दस्तक-विशेषस्तम्भ

अंतिम साँसों तक अंग्रेजों से लड़ने वाली वीरांगना अवंतीबाई

स्तम्भ : नारी ही नारायणी है। सृष्टि की आद्य शक्ति है,पालकर्ता व संहारकर्ता के रूप में भी जानी जाती है। इस आद्यशक्ति को हम लक्ष्मी, सरस्वती और महाकाली के रुप में मानते है। प्रत्येक स्त्री उसी शक्तिस्वरूपा का अंश है। इस संकल्पना को लेकर भारतीय संस्कृति अनादिकाल से प्रवाहमान है।
त्रेतायुग में कैकेयी अपने पति दशरथ के साथ न केवल युद्ध भूमि में जाती थीं, बल्कि युद्ध भूमि में शौर्य का परिचय भी देती थीं। मां दुर्गा और मां काली ने ऐसे कई दैत्यों का संहार किया। जिनका वध स्वयं देवता भी नहीं कर सके। यमराज को भी पराजित करने की क्षमता नारी में होती है। सावित्री ने यह सिद्ध कर दिखाया। पौराणिक काल की तरह आधुनिक नारियां भी बाहुबल में पुरुषों की ही तरह श्रेष्ठ हैं। यह सिद्ध कर दिखाया है महारानी अवंतीबाई ने। अवंतीबाई का जन्म 16 अगस्त, 1831 को मध्यप्रदेश के सिवनी जिले में मनकेहणी गाँव में जमींदार राव जुझार सिंह के घर हुआ था। रामगढ़ राज्य के राजा विक्रमाजीत सिंह से अवंतीबाई का विवाह हुआ। कुछ समय पश्चात जब महाराजा का स्वास्थ्य खराब रहने लगा तो अवंतीबाई राज्य की देखभाल करने लगी। अस्त्र शस्त्र संचालन और घुड़सवारी उन्होंने बचपन में सीखा था। स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो निर्वहन भारत में पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी देश के इतिहास में नहीं मिलता है। अवंतीबाई इसकी प्रत्यक्ष उदाहरण थीं। भारत में स्त्रियों को पूर्ण स्वतंत्रता थीं। पितृगृह में बालिकाओं को पाक शास्त्र की शिक्षा के साथ—साथ उनके व्यक्तित्व को हर दृष्टि से विकसित किया जाता था। भारत में कित्तूर की रानी चेन्नम्मा, कर्नाटक की महारानी अब्बक्का, महारानी दुर्गावती और महारानी लक्ष्मीबाई की तरह एक लम्बी श्रृंखला है जिन्होंने कुशलता पूर्वक राज्य संचालन के साथ ही समरांगण में दुश्मनों के दांत भी खट्टे किये। महारानी अवंतीबाई ने भी यही किया। पति की असमय मृत्यु हो जाने पर उन्होंने राज्य का कार्यभार संभाला।
लॉर्ड डलहौजी ने रामगढ़ राज्य को हड़पने की दृष्टि से राजा विक्रमाजीत सिंह को विक्षिप्त तथा दोनों पुत्रों अमान सिंह और शेर सिंह को नाबालिग घोषित कर दिया। लॉर्ड डलहौजी 1848 ई. में भारत में ब्रिटिश राज का गवर्नर जनरल बनकर आया था। उसके कार्यकाल में अंग्रेजी राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ। वह एक के बाद एक राज्य व बड़ी रियासतों को वह हड़पता चला गया। सतारा, पंजाब, अवध, सिक्किम, संभलपुर के राजा नारायण सिंह, झांसी के राजा गंगाधर राव और नागपुर के राजा रघुजी तृतीय के राज्यों का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में कराने के बाद डलहौजी की नजर मध्य प्रदेश के रामगढ़ पर पड़ी। इन राज्यों की अपेक्षा रामगढ़ राज्य काफी छोटा था फिर भी महारानी पूरी वीरता के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया। दुर्भाग्य से कुछ समय बाद 1855 ई. में राजा विक्रमाजीत सिंह की एक दुर्घटना में मौत हो गयी। अंग्रेजों को लगा कि राज्य हड़पने का अच्छा मौका है। अंग्रेजों ने “कोर्ट ऑफ वार्ड्स” की कार्यवाही की। परिणामस्वरूप रामगढ़ रियासत कोर्ट ऑफ वार्ड्स के कब्जे में चली गयी। महारानी अवन्तीबाई ने अंग्रेजों की शर्त मानने से इंकार कर दिया। रानी ने राज्य के कृषकों को अंग्रेजों के दिशा निर्देशों को न मानने का आदेश दिया। इस सुधार कार्य से रानी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। उधर अंग्रेज राज्य को हड़प करने की योजना बनाने लगे। इस बीच 1857 की क्रान्ति का पत्र जब रामगढ़ पहुंचा तो अवंतीबाई इसकी तैयारी में लग गयीं और रामगढ़’ 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र बना। रानी ने राज्य के आस-पास के राजाओं, और जमींदारों का विशाल सम्मेलन रामगढ़ में आयोजित किया।
डॉ. सुरेश मिश्र की पुस्तक मध्यांचल के विस्मृत सूरमा के अनुसार रानी अवंतीबाई ने एक पत्र और दो काली चूड़ियों की एक पुड़िया बनाकर प्रसाद के रूप में वितरित करना प्रारम्भ किया। रानी ने पत्र में लिखा – “अंग्रेजों से संघर्ष के लिए तैयार रहो या चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठो।” रानी का पत्र और चूड़ियाँ पुरुषार्थ जागृत करने का सशक्त माध्यम बनीं। पुड़िया लेने का मतलब था अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति में अपना समर्थन देना। रानी के इस पत्र ने आसपास के राजाओं को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जबलपुर में भी आवाजें गूँजने लगीं। जुलाई माह के अंतिम दिनों में मण्डला में विरोध के स्वर सुनाई पड़ने लगे। मण्डला परगना के तालुकदारों ने अंग्रेज सरकार के खिलाफ हुंकार भरी। इसके बाद विरोध इतना उग्र हुआ कि अंग्रेजों को सोहागपुर छोड़कर भागना पड़ा। धीरे— धीरे सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में क्रान्ति की ज्वाला तीव्र हो गयी। जबलपुर में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध विद्रोह तेज होने पर 14 सितम्बर, 1857 को गढ़ा के गोंड राज्य के वारिस शंकरशाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह और अन्य 13 लोगों को गिरफ्तार कर सार्वजनिक रूप से तोप से उड़ा दिया गया। इस घटना के बाद क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी। 25 सितम्बर को शाहपुरा के तहसील दफ्तर और थाना पर क्रांतिकारियों ने आक्रमण कर दिया। कचहरी और थानों को आग के हवाले कर दिया गया। अंग्रेज अधिकारी भाग खड़े हुए।
इसके बाद मार्च, 1858 के दूसरे सप्ताह के आस-पास रामगढ़ किला अंग्रेेजों ने घेर लिया। क्रांतिकारियों व अंग्रेजी सेना में कई दिनों तक संघर्ष चलता रहा। सेनानियों की संख्या में निरंतर कमी आ रही थी। किले की दीवारें भी रह-रहकर ध्वस्त होती गईं। अंत में रानी अवंतीबाई अंग्रेजी सेना का घेरा तोड़कर देवहारगढ़ पहुँच गई। रामगढ़ में तैनात शेष सिपाहियों ने एक सप्ताह तक अंग्रेजी सेना को रोके रखा। अंत में वाडिंगटन ने रामगढ़ में रानी के आवास पर कब्जा कर अपना मुख्यालय बना लिया। 9 अप्रैल को सुबह 7 बजे बड़ी संख्या में सेनानी पहाड़ी के उत्तरी सिरे से रामगढ़ में प्रवेश करने के लिए तीन मार्गों से होते हुए आगे बढ़े। वाडिंगटन चार जम्बूकों और पुलिस टुकड़ी के साथ सेनानियों के समक्ष मोर्चा खोला, लेकिन लड़े बिना ही हारने का दिखावा कर अपनी खाईयों की ओर वापस लौट आया। सेनानी अंग्रेजों की चाल समझ नहीं पाए और विजय उल्लास मनाते हुए पहाड़ी से नीचे उतर आए। मौके का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने सेनानियों पर गोलियाँ चलाई।
अंग्रेज कैप्टन वाडिंगटन यही चाहता था कि सेनानी पहाड़ी से निकलकर खुले में आ जाएँ क्योंकि जंगल-पहाड़ी क्षेत्र सेनानियों के लिए सुरक्षित स्थान था। अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते सेनानी रामगढ़ कस्बे के उत्तर में स्थित कन्दराओं की ओर चले गए। अप्रैल, 1858 में शाहपुरा विजय सिंह के ससुर शिवबख्श के यहाँ से अंग्रेजों ने तिजोरी, कुछ संग्राम से जुड़े दस्तावेज और बन्दूकें जब्त की। 18 जून, 1858 को सोहागपुर के किला पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। एक मध्यस्थता में अंग्रेजों ने सेनानियों के सामने शर्त रखा कि वे 19 जून की सुबह 08 बजे तक आत्म समर्पण कर दें। उनके साथियों को परेशान नहीं किया जाएगा। वहीं, सेनानियों को फाँसी के बदले अन्य सजा मिलेगी और जीवनदान भी दिया जाएगा। लेकिन सेनानियों ने बात नहीं मानी और 19 जून को किला खाली करके रीवा की ओर कूच कर गये। रानी अवंतीबाई ने डिंडोरी नगर की सीमा पर खैरीगंज में अपना मोर्चा जमाया। अंग्रेजी सेना और क्रांतिकारियों में भयंकर युद्ध हुआ। 20 मार्च 1858 को घमासान युद्ध हुआ बड़ी संख्या में सैनिक हताहत हुए। रानी के बाएं हाथ में गोली लगी और बन्दूक हाथ से छूटकर गिर गई। मंडला गजेटियर में लिखा है कि रानी ने स्वयं तलवार पेट में घोंप ली। अचेतावस्था में कैप्टन वाडिंगटन ने रानी को झुककर प्रणाम किया और पूछा आपको कुछ कहना है। रानी ने कहा – क्रांति की जिम्मेदार मैं स्वयं हूं। बाकी लोग निर्दोष हैं। वह 20 मार्च 1858 को वीरगति को प्राप्त हुई। रानी ने अंग्रेजों से जंग में लड़ते-लड़ते अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए अवंतीबाई ने स्वयं को कटार मार लीं, लेकिन अंग्रेजों के समक्ष आत्म-समर्पण नहीं किया। उन्होंने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। 1857 की क्रान्ति में जो योगदान महारानी लक्ष्मीबाई का था वही योगदान महारानी अवंतीबाई का भी था।
(वीरांगना अवंतीबाई का बलिदान दिवस 20 मार्च पर विशेष)

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