दस्तक-विशेषसाहित्य

अंत: तक झकझोरती ही नहीं बल्कि सोचने पर विवश करती हैं कहानियां

परितोष कुमार ‘पीयूष’

वो अजीब लड़की’ (कहानी संग्रह) प्रियंका ओम की पहली पुस्तक है। कुंठित मानसिकता के सारे ठिकानों पर धावा बोलती हुई, तमाम पोषित सामाजिक वर्जनाओं को खंडित करती यह संग्रह पाठकों के बीच अपनी ठोस जमीन तैयार कर चुकी है। फिलवक्त तंजानिया (अफ्रीका) में रह रहीं प्रियंका ओम अंग्रेजी साहित्य में स्नातक फिर ‘सेल्स एण्ड मार्केटिंग’ में एमबीए तक पढ़ी, बिहार(भारत) की मूल निवासी हैं। क्षणिक मुलाकात भर में अपने व्यक्तित्व वा खुले विचारों की लोगों पर अमिट छाप छोड़ने वाली यह युवा लेखिका बेहद संवेदनशील, शालीन, सामाजिक और आज के समय की एक स्पष्टतावादी जागरूक महिला है। अपने आस-पास में चल रहे हर सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाक्रमों पर उनकी पैनी नजर होती है।
प्रियंका ओम उन मुठ्ठी भर कथाकारों में से है जो ‘सच को सच’ और ‘झूठ को झूठ’ कहने का हौसला बुलंदी के साथ रखते हैं। और यही वजह है की उनकी तमाम कहानियों में थोपे हुए कथ्य और जबरन घसीटाते पात्रों की झलक लेशमात्र भी नहीं मिलती। उनकी कहानियाँ परिवार, रिश्ते, परिवेश, सोशल मीडिया, गाँव, शहर, बाज़ार से गुजरते हुए वर्तमान समय तथा उनमें व्याप्त विडंबनाओं के साथ स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों की बारीकियों का गहन पड़ताल करती है।
इस संग्रह में कुल चौदह कहानियां हैं, सभी कहानियां उतनी ही अलहदा और अपनी सी कहानी लगती है, जो पाठक को अंत: तक झकझोरती ही नहीं बल्कि सोचने पर विवश करती हैं। और यही एक रचनाकार की वास्तविक सफलता भी है कि सायास ही पाठकों का रचनाओं से जुड़ाव हो जाना, पाठकों को ऐसा प्रतीत होने लगना कि अरे यह घटना तो हमारे पास की है, घटने का शिकार तो हमारा परिवार भी रहा है, कहानियों में पाठक को लगे वही पात्र है उसकी ही कहानी है।
बहरहाल, संग्रह की पहली कहानी ‘सौतेलापन’ एक जीवंत सी कहानी प्रतीत होती है। हाँ, वही सौतेलापन जिसकी भयावह त्रासदी से आज भी हमारा सभ्य मानव समाज पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है, आज भी समाज के कई परिवारों में माता-पिता के मन में व्याप्त है, और मासूम, निश्छल वा अबोध बच्चे इसका शिकार होते जा रहें हैं। यहाँ सोचने पर हम विवश हैं! कि आखिर ऐसा क्या है जो एक ही गर्भ में नौ महीने तक पले बच्चों में से किसे एक से ज्यादा प्यार, ज्यादा ममत्व और अपने ही दूसरे बच्चे से कम क्यों? हम अकसर अपने समाज में देखते आयें हैं एक परिवार में अगर तीन चार या दो बच्चे हैं तो उनमें से एक से ज्यादा प्यार किया जाता है, दूसरे से कम! दोनों तो या सभी आपके ही बच्चे हैं तो फिर ऐसा सौतेलापन क्यों? एक के हिस्से में दूध और दूसरे के हिस्से में पानी क्यों? इन्हीं तमाम उलझे हुए सवालों के जवाब तलाशती हुई लेखिका ‘सौतेलापन’ शीर्षक कहानी की जीवंत रचना कर बैठती है, जो हमें अपने ही तथाकथित विकसित समाज के एक विद्रुप सच को इस कहानी के माध्यम से परत दर परत उकेर कर हमारे सामने रखती है। लेखिका कितनी डूब कर कहानी के बरक्स सौतेलेपन की विद्रुपताओं से आत्मसात कराकर और इस कुकृत्य के दुष्प्रभावों से पाठकों को सतर्क करना चाहती है, इस कहानी के अंश में हम साफ साफ महसूस कर सकते हैं-
” सौतेलापन नाम की बिमारी चुपचाप नहीं आती। इसके लक्षण शुरुआती दिनों में ही दिखने लगते हैं। न ही ये एड्स की तरह होती है। जी इसमें शरीर के अंत का खतरा नहीं होता, बल्कि आत्मा मर जाती है!”(पृष्ठ सं.13/सौतेलापन)
संग्रह में आगे बढ़ते हैं- लावारिस लाश, मृगमरीचिका, वो अजीब लड़की, लालबाबू, ईमोशन एक से बढ़कर एक कहानियाँ हैं। यहाँ यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि प्रियंका ओम की बोल्ड कहानियों में सहादत हसन मण्टो, इश्मत चुगताई से लेकर समकालीन कथाकार सूरज प्रकाश तक के कहानियों की झलक कहीं न कहीं मिलती है।
इनकी कहानियों में भाषा पक्ष में कसावट के साथ-साथ पात्रों के बीच वार्तालाप का तरीका अद्भुत है जो इनकी लेखनी को पूर्व से चली आ रही या ढोये जा रहे शिल्प से पृथक कर एक अलग पहचान देती है।
लावारिस लाश एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसका जन्म कुँवारी माँ के गर्भ से होता है और उसे जन्मने के बाद ऑरफेन्ज के दरवाजे पर छोड़ दिया जाता है। और एक वार्डन की देखरेख में वह बड़ी होती है, इस रिश्ते को बड़ी गंभीरता के साथ इस कहानी में लेखिका ने पिरोया है। ऑरफेन के बाद का सफर भी पढ़ना काफी दिलचस्प है जहाँ कदम कदम पुरुषों की मानसिकता, यौन लौलुपता और कुंठा पर जबरदस्त प्रहार करती हुई लेखिका समय के यथार्थ को बड़ी बेबाकी से सामने लाती है।इस कहानी के कुछ अंश से गुजरते हैं-
“पिछड़े हुए पुरुष शरीर और पहनने वाले कपड़े में फर्क नहीं समझते। जब तक नयी रहती है उसके कलफ लगे सम्मोहन में होते हैं…।” (पृष्ठ सं-30/लावारिस लाश)
“औरत की सबसे बड़ी क्वालिफिकेशन उसका शरीर है। प्रिंटेड वाली डिग्रियां सिर्फ कागज का टुकड़ा होती हैं, जो फ़ाइल की खूबसूरती के लिए होती हैं, जिसे खूबसूरत लड़कियां अपने सीने से लगाकर वॉक इन इन्टरव्यू के लिए तैयार रहती हैं। इन्टरव्यूअर के सामने जब वो फ़ाइल सीने से हटाकर सामने टेबुल पर रखती है तो उसकी फाइल से पहले उसके सीने की उभार का मुआइना होता है…।” (पृष्ठ सं- 31/लावारिस लाश)
पुरुषों के धोखे, प्रेम के झाँसे देकर इजाजत से यौन सुख प्राप्त करना आज भी हमारे समाज में किस तरह बदस्तूर जारी है, अपने ही प्रेमी द्वारा उसे इस बात पर रिजेक्ट कर दिया जाता है कि वह ऑर्फेन है, उसकी कोई जाति नहीं कोई धर्म नहीं। अपने रिजेक्शन पर वह कहती है- “सोते वक्त तो धर्म नहीं पूछा था तुमने?”
“शारीरिक संबंध बनाना और बात है और पारिवारिक सम्बंध बनाना अलग बात है”,
लड़के ने यह कहकर बात साफ कर दी थी।(पृष्ठ सं- 36/लावारिस लाश)
‘फिरंगन से मोहब्बत’ एक स्पेनिश लड़की ‘डल्स’ और एक भारतीय लड़के के बीच की एक संस्मरणात्मक कहानी है, जिनकी दोस्ती फेसबुक के जरिये होती है। डल्स कुछ दिनों के लिए भारत भ्रमण पर आती है वहीं वह भारतीय लड़का डल्स की गाइड बनकर साथ रहता है। दो अलग-अलग भाषा, संस्कृति और देश के हैं वो दोनों, उनके बीच के बेतकल्लुफी, संबंध और संवेदनाओं का खुला जिक्र इस कहानी में है।
“कई बार उसके पारदर्शी कपड़ों से झांकते उसके अंत: वस्त्र मेरे अंदर के पुरुष को झकझोर कर रख देते हैं। लेकिन मैं मर्द और जानवर के बीच के फर्क को नहीं मिटाना चाहता।” (पृष्ठ सं- 66/फिरंगन से मोहब्बत)
“रात की चाँदनी में चमकती हुई सफ़ेद रेत पर उसका चमकीला शरीर मेरे ऊपर था….हमारे हाथ एक दूसरे के शरीर के सारे रहस्य को बेपर्दा कर रहे थे। मैं…..पहनने ही वाला था कि उसने कहा ‘मैं प्रस्टीच्यूट हूँ’।” (पृष्ठ सं- 69/फिरंगन से मोहब्बत)
‘लालबाबू’ ढ़ेर सारे सदस्यों से भरे एक ग्रामीण परिवेश वाले परिवार की कहानी है जहां लालबाबू एवं छोटकी चाची के साथ-साथ लालबाबू एवं घर आयी नयी दुल्हन के बीच चल रहे गुप्त रिश्तों की बारीकियों एवं यौनाकर्षण को दिखाया गया है। लालबाबू को कहानी का मुख्य पात्र बनाकर उसके द्वारा एक समय, परिवेश और बड़े कुनवे में रिश्तों का गूढ़ चित्रण किया गया है।
“चाची कौन सी रेखा थी जो इतना बड़ा जोखिम ले लिया। लेकिन ऊ हमको अमिताभ से कम कहाँ समझती थी। ….उस दिन भी उसी ने कहा था आज रात को आ जाओ लल्ला, तुहार चच्चा तो खेत पर ही सोयेंगे फसल की रखवाली के लिए।” (पृष्ठ सं- 120/लालबाबू)
“मैया के साथ भंशा में ऐसी जुगत लगाई कि एक ही आँगन के दूसरे कोने में खाना पकाती अदितवा की कनियाँ को सारा दिन ताड़ते रहते।” (पृष्ठ सं- 121/लालबाबू)
इसी तरह आगे इमोशन भी एक स्वत: बनी कॉल गर्ल की बेहतरीन कहानी है। पूरे संग्रह में यह कहानी सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। हमारे समाज के कई आयामों को खोलती यह कहानी पाठकों को भीतर तक झकझोर कर रख देती है।
“क्योंकि मुझे पूरा यकीन है एक मर्द का ईमान औरत के ब्लाउज में छिपा होता है।”
सभ्य आचरण के बहाने से मर्द मेरी मदद करने आते हैं और तय हो जाता है उसी वक्त, कहाँ और कितने दिन!”(पृष्ठ सं- 142/इमोशन)
“जब पापा काम के सिलसिले में बाहर गये थे तब पापा के बॉस घर आये थे।…डाइनिंग टेबल पर जूठे बरतन के साथ शराब के खाली ग्लास भी पड़े थे। बॉस का डिनर शूट वहीं सोफे पे पड़ा था मम्मी के बेडरूम से चूड़ी बजने की आवाज आ रही थी।
पापा सुबह सुबह आ गये थे…आते ही मम्मी से पूछा था ‘डन’?
मम्मी ने कहा था ‘डन डना डन’।” (पृष्ठ सं- 148/इमोशन)
हिन्दी साहित्य में ‘वो अजीब लड़की’ प्रियंका ओम का बेशक पहला हस्तक्षेप है लेकिन उनकी कहानियों में परिपक्वता की कमी नहीं। जरूरत है तो थोड़ी और गंभीरता की, बोल्डनेस या सपाटबयानी का यह कतई मतलब नहीं की हम सारी सीमाएँ लाँघ दें। इस संग्रह की कहानियों में कहीं-कहीं पर अति बोल्डनेश के प्रयोग ने कथ्य की मारकता को निश्चित ही प्रभावित किया है। कहनी की जल्दबाजी और आतुरता भी कथ्यों की गोपनीयता के संवहन को कमजोर बनाते हैं। बहरहाल, लेखिका की यह पहली पुस्तक है, उनमें गद्य रचने की सलाहियत है, प्रचुर मात्रा में शब्द हैं, अपने शिल्प के साथ भाषा पर अच्छी पकड़ भी है। कहानियों को थोड़ा वक्त देंगी तो जल्द ही अपनी मंजिल साध लेंगी। 

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