दस्तक-विशेष

अंसारी बंधुओं का चैप्टर बंद

संजय सक्सेना
ansariकिसी ने कहा कि यह रूढ़िवादी विचारों पर युवा सोच की जीत है। किसी को लगा कि यह जातिवादी सोच पर विकासवादी सियासत की जीत है। किसी का मानना था, यह बाप-चचा पर बेटे-भतीजे की सियासी बढ़त है। कोई इसे बुराई पर अच्छाई की जीत मानता है। ऐसे लोंगो की भी कमी नहीं है जो इसे मुलायम के कथित समाजवाद पर लोहिया के समाजवाद की जीत के रूप में देखते हैं। इससे इतर अखिलेश के समर्थक और उनकी विचारधारा को मानने वाले यही कहते हैं कि अंत भला तो सब भला। पहले साल बाहुबली नेता डीपी यादव को और आखिरी समय में बाहुबली अंसारी बंधुओं को ‘नो इंट्री’ का कार्ड दिखाकर अखिलेश यादव ने यह साबित कर दिया है कि अगर वह अड़ जायें तो फिर उन्हें कोई बैकफुट पर नहीं ढकेल सकता। तीन दिनों तक चले हाई वोल्टेट ड्रामे के बाद 25 जून को सपा संसदीय बोर्ड की बैठक में जब पार्टी ने मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल (कौएद) से किनारा करने की घोषणा (अखिलेश के तेवरों को भांपते हुए) की तो उन लोगों के चेहरों पर मायूसी छा गई जिन्हें लगता था कि कौएद की मदद से सपा पूर्वी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों पर अपनी ताकत में इजाफा कर सकती है। अखिलेश की विकासवादी जिद के आगे जातिवादी सोच बौनी नजर आयी। तीन दिनों की फजीहत के बाद सपा के बुजुर्ग नेता एक-दूसरे पर विलय की जिम्मेदारी थोपकर अपना दामन बचाते दिखे तो काफी आश्चर्य हुआ। कौएद को सपा के करीब लाने में अहम भूमिका तो चचा शिवपाल यादव गुट ने निभाई थी, लेकिन जब चचा को लगा की भतीजा अखिलेश हत्थे से उखड़ा जा रहा है तो शिवपाल ने यह कहते हुए गेंद मुलायम सिंह के पाले में डाल दी कि कौएद को साथ लाने के बारे में फैसला नेताजी मुलायम सिंह की मर्जी से लिया गया था। इसके बाद अखिलेश के तेवर तो ढीले पड़ गये, लेकिन इरादे चट्टान की तरह अडिग नजर आये। उन्हें लग रहा था कि दागी-दबंग अंसारी बंधुओं को साथ लाने से 54 प्रतिशत युवा वोटर नाराज हो सकते हैं, जो इस समय अखिलेश सरकार के विकास कार्यों से काफी प्रभावित नजर आ रहे हैं। इसीलिये वह हर दांव अजमा रहे थे।
संसदीय समिति की बैठक से चंद घंटे पहले एक निजी न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एक सवाल के जबाव में जब अखिलेश ने कहा कि ‘सपा में नहीं आयेंगे मुख्तार जैसे लोग’ तो सीधे मैसेज सपा आलाकमान यानी संसदीय बोर्ड को गया। यही वजह थी कि संसदीय बोर्ड में अखिलेश के खिलाफ किसी ने मुंह खोलने की हिमाकत नहीं की। अखिलेश ने बैठक में साफ कहा आपराधिक गतिविधियों वाले नेताओं को पार्टी में लाने से विकास का मुद्दा पीछे छूट जायेगा। बड़े-बड़े नेताओं की बोलती बंद हो गई। दो घंटे के भीतर संसदीय बौर्ड ने अखिलेश की विकासपरक विचारधारा पर मोहर लगा दी और कुछ ही देर बाद समाजवादी पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव ने प्रेस कांफ्रेंस करके घोषणा कर दी कि कौमी एकता दल के सपा में विलय से सीएम अखिलेश यादव नाराज थे, इसलिये इस विलय को रद कर दिया गया है। पीसी में रामगोपाल के बगल में शिवपाल यादव भी बैठे थे, लेकिन उन्होंने कुछ कहना उचित नहीं समझा। भतीजे के सामने बाप-चचा ज्यादा छोटें नजर नहीं आयें, इसलिये कौएद से दूरी बनाये जाने के साथ यह घोषणा भी कर दी गई कि कौएद को सपा के करीब लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बलराम यादव (जिनको अखिलेश ने कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया था) का मंत्री पद फिर से बहाल होगा। उधर, कौएद से सपा के दूरी बनाते ही कौएद नेता बाहुबली मुख्तार अंसारी को लखनऊ जेल से फिर शिफ्ट कर दिया गया। मुख्तार को कौएद-सपा के विलय की घोषणा होते ही लखनऊ की जेल में शिफ्ट कर दिया गया था, जिसके चलते पुलिस के कुछ बड़े अधिकारियों पर भी गाज गिरी थी।
ansari_1सपा नेतृत्व ने अंसारी बंधुओं से पीछा तो छुड़ा ही लिया, इसके साथ ही पूरे घटनाक्रम से यह बात भी साफ हो गई कि समाजवादी परिवार में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। इसे मात्र मीडिया की उपज बताकर खारिज नहीं किया जा सकता है। खासकर चचा शिवपाल यादव और भतीजे अखिलेश यादव के बीच कुछ ज्यादा ही तल्खी नजर आ रही है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव कई बार इस तल्खी को कम करने के लिये अपने हिसाब से कदम उठा चुके हैं, परंतु उनके सभी प्रयास बेकार साबित जा रहे हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सपा परिवार में विचारों से अधिक कुर्सी की लड़ाई चल रही है। इसका कारण भी है। 2012 के विधान सभा चुनाव के समय जब यह बात उभर कर आ रही थी कि मुलायम सिंह सीएम बनकर यूपी की सियासत नहीं करेंगे, इसके बाद सीएम के तौर पर शिवपाल यादव के नाम की चर्चा होने लगी थी, मगर ऐन मौके पर अखिलेश की इंट्री हुई और वह बाजी मार ले गये। सियासी पिच के नये खिलाड़ी अखिलेश यादव को सीएम बनाये जाने की घोषणा जब पिता मुलायम सिंह ने की तो राजनीति की पिच के पुराने खिलाड़ी शिवपाल यादव और उनके समर्थकों को नेताजी का यह फैसला रास नहीं आया, लेकिन कोई कर क्या सकता था। यही वजह है कि आज भी शिवपाल यादव के कई फैसलों पर अखिलेश, तो अखिलेश के अनेक फैसलों से शिवपाल आहत होते रहते हैं।
यह पहला मौका नहीं था जब सीएम को बिना भरोसे में लिए पार्टी ने कोई फैसला ले लिया हो। हाल ही में मुलायम की छोटी बहू अपर्णा यादव को लखनऊ कैंट से विधान सभा प्रत्याशी बनाये जाने का फैसला मुलायम सिंह ने अखिलेश को विश्वास में लिये बिना अपने स्तर पर कर दिया था। इससे पहले पंचायत चुनाव के समय सीएम के करीबी सुनील यादव साजन और आनंद भदौरिया को पार्टी से बर्खास्त कर दिया गया। उस वक्त भी सीएम को भरोसे में नहीं लिया गया। तब भी शिवपाल यादव ने अखिलेश की नाराजगी की चिंता किये बिना उनके दोनों करीबियों के निष्कासन का पत्र जारी कर दिया था। इस घटना से सीएम अखिलेश काफी नाराज हो गए और सैफई महोत्सव में भी नहीं पहुंचे। बाद में सीएम ने न सिर्फ दोनों की वापसी करवाई बल्कि एमएलसी भी बनवा दिया। इसके अलावा आरएलडी के विलय और अमर-बेनी की वापसी में भी शिवपाल यादव की सक्रिय भूमिका रही। इसने सीएम को असहज किया, यह सब तब हो रहा है जबकि आम धारणा यही है कि सपा के भीतर होने वाले फैसलों पर अंतिम मुहर सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ही लगाते हैं। इससे पहले अखिलेश की नाराजगी की चिंता किये बिना बिहार के सीएम नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ हुए महागठबंधन पर भी मुलायम ने मुहर लगा दी थी। तब भी अखिलेश की सोच से इतर शिवपाल यादव इस महागठबंधन के पक्ष में खड़े थे। उस समय सपा महासचिव प्रो.रामगोपाल इस महागठबंधन के पक्ष में नहीं थे और उन्होंने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की थी। बाद में यह फैसला बदल भी दिया गया। मगर अंसारी बंधुओं से हाथ मिलाने के पक्ष में नहीं होने के बाद भी प्रो0 रामगोपाल यादव ने अखिलेश का साथ देने की बजाये चुप्पी ओढ़े रखी, जिसको लेकर भी सियासी मायने निकाले गये। अब तो हर तरफ एक ही चर्चा हो रही है कि समाजवादी परिवार मेंं ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य दिखाने की कोशिश की जा रही हो, लेकिन अब यह लड़ाई सार्वजनिक हो चुकी है। इसलिये इसे छिपाया नहीं जा सकता है। जब सपा के महासचिव प्रो.रामगोपाल प्रेस कांफ्रेंस में कहे, ‘इस फैसले (अंसारी बंधुओं को सपा में शामिल करना) से सीएम अखिलेश यादव नाराज थे, मगर अब नहीं हैं। कौमी एकता दल का विलय उनकी इच्छा के विपरीत हुआ था तो हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। हर परिवार में कुछ न कुछ चलता है, पर सब मिलकर उसे ठीक कर लेते हैं।’ यह जुमला ज्यादा दिनों तक चलने वाला नहीं है। सपा से किसी को निकालने, किसी को गले लगाने की परिपाटी के कारण पारिवारिक रिश्तों में तनाव आता देख, संसदीय बोर्ड ने अब नेताजी के पास यह अधिकार सीमित कर दिया है कि बिना उनकी सहमति से किसी नेता को निकाला या पार्टी में शामिल नहीं किया जा सकता है।
इसी के साथ सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का भी गठन नेताजी की मर्जी से ही किया जायेगा। कौएद प्रकरण से उबरने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव 2012 की समाजवादी ‘क्रांति रथ यात्रा’ की तर्ज पर पूरे प्रदेश में ‘समाजवादी विकास रथ यात्रा पर निकलने वाले हैैं ताकि प्रदेश की जनता को उनकी सरकार के विकास कार्यों की जानकारी दी जा सके।
खैर, पूर्वी उत्तर प्रदेश में कौमी एकता दल से हाथ मिलाने या दूरी बनाये रखने से पार्टी को क्या फायदा होगा, यह सब तो अतीत के गर्भ में छिपा है, लेकिन इस सच्चाई को ठुकराया नहीं जा सकता है कि पूर्वांचल के कई जिलों में अंसारी बंधुओं की मजबूत पकड़ है। कौएद 2012 के विधानसभा चुनाव में भारतीय समाज पार्टी के साथ मिलकर 22-22 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। मऊ और मोहम्मदाबाद विधानसभा से पार्टी के विधायक मुख्तार अंसारी और सिगबतुल्लाह अंसारी जीत गए थे। इसके अलावा जहूराबाद, घोसी, जमानिया, गाजीपुर सदर, सैदपुर, जखनिया, जंगीपुर, बलिया सदर, फेफना, बांसडीह, चंदौली, बनारस दक्षिणी विधान सभा सीट पर कौमी एकता दल के प्रत्याशियों को 30 से 50 हजार तक वोट मिले थे। अंसारी बंधुओं का इन सीटों पर आज भी प्रभाव है। कौएद मुस्लिमों के बीच की ही पार्टी नहीं थी। मुस्लिमों के अलावा दूसरी कई बिरादरियां भी कौएद के साथ जुड़ी है। सपा इसी वोट बैंक को अपने पक्ष में करना चाहती थी। मगर अब विलय रद होने से पूरे इलाके में नाराजगी बढ़ सकती है।
इसके विपरीत राजनैतिक पंडित इसे प्रदेशीय परिपेक्ष में देख रहे हैं। उन्हें लगता है कौएद के साथ हाथ मिलाने से पूर्वांचल की कुछ सीटों पर भले ही सपा की दावेदारी मजबूत हो जाती, लेकिन प्रदेश के कई हिस्सों में इसकी निगेटिव प्रतिक्रिया भी होती। विरोधियों को सपा को घेरने का मौका हाथ लग जाता। अखिलेश की इसी सोच ने कौएद और सपा के रिश्तों की चंद घंटों में ही बलि ले ली। आज की तारीख में समाजवादी पार्टी में अखिलेश से बड़ा कोई चेहरा नहीं है। भले ही अखिलेश सरकार कानून व्यवस्था के मामले में घिरी हुई हो, परंतु अखिलेश की छवि बेदाग है। उनके ऊपर किसी तरह के भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है और छवि एक विकास पुरुष जैसी है।
बहरहाल, सपा में अंसारी बंधुओं की इंट्री पर रोक से सपाइयों को एक बार फिर जश्न मनाने का मौका मिल गया है। 2012 के चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अखिलेश यादव ने बाहुबली डीपी यादव को पार्टी में लेने से इनकार कर दिया था। इसका मैसेज पूरे प्रदेश में गया था। अब उसी इमेज को फिर से भुनाने की तैयारी है। माफिया मुख्तार अंसारी की पार्टी को न लेकर सीएम अखिलेश यादव अपनी वही इमेज दोबारा पा सकते हैं। इससे पार्टी को फायदा हो सकता है। कौएद और सपा के विलय का पूरा प्रकरण नाटकीय अंदाज में खत्म हो गया। रह गईं तो कुछ यादें और इसके सहारे वोट बटोरने की चाहत। अगर यह प्रकरण सामने ही नहीं आता तो शायद सपा के पक्ष में माहौल बनाना आसान नहीं होता। 

अंसारी प्रकरण सपा की ड्रामेबाजी: विजय बहादुर
सीएम अखिलेश यादव अपनी छवि को लेकर गंभीर हैं तो विपक्ष अंसारी बंधुओं को सपा में शामिल किये जाने पर अखिलेश की नाराजगी और उनको बाहर का रास्ता दिखाने के प्रकरण को ड्रामेबाजी करार दे रहा है। भाजपा प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि पहले डीपी यादव और अब मुख्तार अंसारी को पार्टी में शामिल नहीं किये जाने का विरोध कर रहे सीएम को यह बात भी नहीं भूलना चाहिए कि 2012 के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक 111 दागी उन्हीं की पार्टी के टिकट से चुनाव जीतकर माननीय बने थे। इनमें से 56 के खिलाफ तो हत्या, अपहरण जैसे गंभीर अपराध में मुकदमा चल रहा था। उन्हीं के राज में समाजवादी परिवार के संरक्षण में रामवृक्ष यादव जैसे भस्मासुर भी पैदा हुए। अनिल यादव, यादव सिंह जैसे भ्रष्ट अधिकारियों को भी उनकी सरकार ने पाला पोसा। गायत्री प्रसाद प्रजापति जैसे भ्रष्ट नेता उनकी कैबिनेट का हिंस्सा बने हुए हैं।

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