दस्तक-विशेषस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

अखण्ड ब्रह्माण्ड एक जीवमान इकाई है

हृदयनारायण दीक्षित

स्तम्भ : कोरोना महामारी को लेकर कई विचार हैं। इसका प्रत्यक्ष कारण वायरस है। चरक संहिता में विस्तार से अनेक रोगों व रोगों के निदान का वर्णन किया गया है। लेकिन इसमें कोरोना से मिलती बीमारी का उल्लेख नहीं है। नियतिवादी इसे काल का प्रभाव मानते हैं। चरक ने काल को एक द्रव्य माना है। अथर्ववेद में सभी प्राणी और प्रकृति की शक्तियां भी काल आश्रित बताए गए हैं। वस्तुतः वे काल आश्रित न होकर गति गुण संपन्न है। काल इसी गति का अनुभव है। इसलिए काल अस्तित्व का एक अंश है। उपनिषदों में संपूर्ण अस्तित्व परम, ब्रह्म या अक्षर कहा गया है। उपनिषद् दर्शन ग्रंथ है। उपनिषद् के ऋषि काल को नित्य निरपेक्ष नहीं मानते। वे ब्रह्म को परम विभु और व्यापक कहते हैं। मुण्डकोपनिषद् (2.1.6) में कहते हैं “उस परम तत्व से ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद के मंत्र प्रकट हुए हैं। काल संवत्सर और सभी लोक भी उसी से पैदा हुए हैं।” यहां काल सहित सारे लोक और मंत्र भी ब्रह्म का विस्तार हैं। काल का जन्म भी परम तत्व से हुआ है।


वृहदारण्यक उपनिषद् शतपथ ब्राह्मण का भाग है। इस उपनिषद् में परम अविनाशी का नाम ‘अक्षर’ है। इसी अक्षर के प्रशासन में निमिष, अहोरात्र, ऋतु, मास और संवत्सर है।” (3.8.9) उपनिषद् के ऋषि ने ‘प्रशासन’ शब्द का प्रयोग किया है – एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने। (वही) यहां काल स्वतंत्र सत्ता नहीं है। अक्षर प्रशासन के अधीन है। वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य कहे गए हैं। काल भी इन्हीं नौ द्रव्यों में एक द्रव्य है लेकिन यह प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय नहीं है। इसका निश्चय अनुमान से ही संभव है। ऐतरेय ब्राह्मण में गतिशीलता को श्रेय बताया गया है। यहां निद्रालु को कलियुग का, उठ बैठे को द्वापर का, खड़े हुए को त्रेता का व गतिशील को सतयुग का प्रतिनिधि कहा गया है। सक्रिय गति सत्युग है। मधु मक्खियों का उदाहरण है। वे गतिशील होकर मधु संचय करती हैं। चरैवेति-चलते रहो के मंत्र सूत्र से समय अच्छा होता है। आलसी गतिशील नहीं होते। गतिशील की तुलना में उनके समय को बुरा कहा जा सकता है।
गीता में उपनिषद् दर्शन का प्रभाव है। भक्ति अंशों के अतिरिक्त यह सांख्य दर्शन प्रधान है। गीता में काल प्रकृति का नियंता नहीं है। सांख्य दर्शन के अनुसार गीता में “गुण ही गुणों के साथ खेलते बताए गए हैं।” श्रीकृष्ण जहां भगवत्ता हैं, वहां वे ही प्रकृति की गति के अध्यक्ष हैं। कहते हैं, “प्रकृति मेरी अध्यक्षता में ही गतिशील है।” गति से ही काल का अनुभव होता है। गीता की काल धारणा अथर्ववेद के काल तत्व के सामने महत्वहीन है। श्रीकृष्ण ने गीता (10.30) में स्वयं को गणना वाला काल बताया है “कालः कलयातामहम्।” आगे बताते हैं “मैं अविनाशी काल हूं।” (वही 10.33) गीता (4.2) में काल का भी उल्लेख है। लेकिन यह काल सबको प्रभावित करने वाला नहीं है। यहां प्राचीन ज्ञान का उल्लेख है। यह ज्ञान काल विशेष में नष्ट हो गया है – स कालेनेह मह्ता। गीता (11.7) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विश्वरूप दिखाया। अर्जुन डर गया। उसने पूछा “आप उग्र रूप कौन हैं?” (11.31) श्रीकृष्ण ने कहा “कालोअस्मि – मैं काल हूं। लोक नष्ट करने में संलग्न हूं।” (वही 10.32) यहां काल की शक्ति संहारक है।

कालशून्यता या टाइम लेसनेस भी एक विचारणीय विषय है। पतंजलि ने योग, प्राणायाम, ध्यान का गहन विवेचन किया है। चित्त चंचल है। उन्होंने चित्त प्रवृत्तियों की समाप्ति को योग बताया है – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः। चित्त अपनी वृत्ति मंे गति करता है। वृत्तियों की गति के कारण समय का अनुभव होता है। इसलिए सुख और दुख का अनुभव है। सुख दुख के अनुभव का मूलकारण चित्तवृत्ति या चित्त गति है। गति के लिए दिक् चाहिए। दिक् में ही गति संभव है। ध्यान में दिक् नहीं होता। इसलिए गति नहीं होती। पतंजलि कहते हैं, “यथाभिमत ध्याना द्वा – अपने अभिमत वाले विषय पर ध्यान करें।” (योगसूत्र, समाधिपाद, 39) पतंजलि ध्यान के विषय का विकल्प भी सुझाते हैं “अथवा ईश्वर पर प्राण केन्द्रित – ध्यान करें – ईश्वर प्रणिधाना द्वा। (वही 23) ईश्वर दिक् नहीं है। वे ईश्वर की परिभाषा करते हैं “क्लेश कर्म, कर्मफल और वासना से असम्बद्ध चेतना का नाम ईश्वर है।” (वही 24) कर्म कर्मफल व वासना काल का भ्रम देते हैं। हम कर्म करते, कर्मफल पाते, गंवाते हुए समय के आभास में होते हैं। पतंजलि इससे असम्बद्ध चेतना को ईश्वर बताते हैं। वे आगे कहते हैं – “समय के पार होने के कारण वह गुरूओं का गुरू है।” ईश्वर समय से परे है। समाधि में समय नहीं होता। प्रश्न है कि क्या वास्तव में समय होता है? होता तो समाधि में भी क्यों न होता?

कालबोध और कालगणना एक नहीं है। गणना और गणित मनुष्य के आविष्कार हैं। अंकों का आविष्कार भारत ने किया। दिन, रात, मास, वर्ष, युग भारत की प्रज्ञा का चमत्कार हैं। यह सभी नाम रूप रहित हैं। वर्ष का रूप नहीं होता। इसलिए दुनिया में ‘वर्ष’ की अनेक धारणाएं हैं। दिन या रात्रि का भी रूप नहीं है। प्रकाश भी दिवस का पर्याय नहीं है। मुख्य बात है गति। विज्ञान मूलतः गति का अध्ययन है। पृथ्वी की गति से समयवाची दिन, रात, मास व वर्ष हैं। ग्रहों की गति का सूक्ष्म विवेचन व प्रभाव का अध्ययन ज्योर्तिविज्ञान है। विद्वान इसे कालगणना कहते हैं। वस्तुतः यह गति गणना है।
इतिहास भी गति का आयाम है। विवेचक इतिहास संकलन में ईसा पूर्व या ईशा के पश्चात शब्द का प्रयोग करते हैं। इस विवेचन में ईशा महत्वपूर्ण है, वे कालगणना के एक बिन्दु हैं। भारतीय सभ्यता के विवेचन में सरस्वती नदी भी ऐसी ही है। हम सरस्वती सूखने के पूर्व और सरस्वती सूखने के बाद का गणित लेते हैं। कोरोना वैश्विक महामारी (2020) के पूर्व और उसके बाद का विश्व भी इसी तरह की काल रेखा है। दुनिया का कोई भी इतिहासकार संपूर्ण भूत का विवरण नहीं दे पाया है। इतिहासकार अलबेरूनी को शिकायत थी कि हिन्दू अपना इतिहास काल क्रम के अनुसार नहीं लिख सके। पुराणों के बारे में भी विद्वानों को शिकायत रही है कि इनमें समय का ठीक ध्यान नहीं रखा गया है। ऐसी बातों के कई स्पष्टीकरण दिये जा सकते हैं लेकिन सत्य एक है। काल का अनुभव गति से होता है। काल सर्वत्र एक जैसा नहीं है। पुराणों में भी पृथ्वी पर काल का अनुभव अन्य लोकों से पृथक है। पृथ्वी का एक मास पितृलोक के एक अहोरात्र दिन-रात के बराबर है। पृथ्वी का एक वर्ष देवलोक के एक अहोरात्र या दिन-रात के समान हैं।

समूचा ब्रह्माण्ड एक इकाई है। यह पूर्ण है। इसी संपूर्ण को ऋग्वेद में पुरूष और अदिति नाम दिए गए हैं। दोनो प्रतीकों की एक सामान्य विशेषता है। दोनों सदा से है, सदा रहते है। दोनो के लिए एक सामान्य बात कही गई है। पुरूष के लिए कहते है, “जो अब तक हो चुका है और जो आगे होगा, वह सब पुरूष है।” इसी तरह अदिति के लिए भी कहते हैं कि “जो अब तक हो गया है, जो आगे होगा, वह सब अदिति ही है।” इस विवरण में भूत, वर्तमान, और भविष्य अर्थात काल का अस्तित्व व्यर्थ हो गया है। पुरूष का ऐसा ही विवेचन अथर्ववेद में भी है। काल सूक्त के अनुसार अथर्ववेद के कालरथ पर ज्ञानी ही बैठ सकते हैं। सिद्ध ज्ञानियों को पता होता है कि सृष्टि सनातन निरंतरता है। निरंतरता अविभाज्य होती है। ब्रह्माण्ड के भीतर अंगो की गति है। सो उन उन गतिशील अंगों के सापेक्ष काल है। अखण्ड ब्रह्माण्ड एक जीवमान इकाई है। इस महासंपूर्णता में काल का अस्तित्व कैसे होगा?

(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर ​प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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