दस्तक-विशेषसाहित्य

अथाह सागर और हम!

एक नौका विस्तृत सागर में यूँ स्वयं को लहरों के हवाले कर देती है जैसे कोई अपने किसी परम मित्र पर विश्वास कर समस्यायों से लड़ने की हिम्मत जुटाता है मझधार में! लहरों पर डोलती इस नौका की तस्वीर हमने विशाल क्रूज बाल्टिक क्वीन से ली थी जब एस्टोनिया जाना हुआ था इधर हाल फिलहाल!

अनुपमा पाठक

तालिन्न इस छोटे से देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी भी है। हमारा जहाज स्टॉकहोम से शाम सात बजे चला और सुबह नौ बजे के आसपास तालिन्न पहुंचा। दिन भर का वक्त था हमारे पास शहर घूमने के लिए, फिर शाम को उसी जहाज से वापस होना था स्टॉकहोम। तभी लौटकर सोचा था कि लिख जायेंगे पूरा दिन सब कुछ सहेजने के उद्देश्य से, पर हो नहीं पाया जाने क्यूँ आज लिख जा रहा है सब कुछ स्वयं ही! एक ही दिन का ट्रिप था पर थी बहुत सी बातें लिखने को, टिकट बुक करने के बाद से इस यात्रा हेतु तैयारी के दौरान बहुत कुछ पढ़ा था उस दुर्घटना के विषय में भी तभी जाना था जो वर्षों पूर्व एक बुधवार को एस्टोनिया से स्टॉकहोम लौटने वाले जहाज के साथ घटित हुई थी। 28 सितम्बर 1994 के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन को तालिन्न से रवाना हुआ जहाज कभी स्टॉकहोम पहुंचा ही नहीं, मध्यरात्रि के बाद जलमग्न हुए जहाज संग 800 से ऊपर यात्रियों ने जलसमाधि ले ली। आँखों देखे अनुभव पर कितने ही वीडियो मिले यू ट्यूब पर सब रोंगटे खड़े कर देने वाले।
यात्रा कितनी अनिश्चितताओं को साथ लिए चलती है, इसका अनुमान लगा सकना कहाँ इंसान के वश की बात है… ठीक जीवन यात्रा की तरह जहां अगले ही पल का पता नहीं होता!
जो कुछ लोग बच गए इस अप्रत्याशित भयावह दुर्घटना में, उनका जीवन के प्रति नजरिया ही बदल गया उनके अनुभव पढ़ते सुनते हुए आँखें तो नम हुई हीं जीवन के सत्य को अपने तरीके से पा लेने अपनी तरह से व्याख्यायित करने के उनके अंदाज ने बहुत कुछ सोचने को विवश भी किया। मन उस स्थिति की कल्पना से ही सिहर उठता है और जीवन जो पास है उसके प्रति अन्यमनस्कता कम हो जाती है अनुराग बढ़ जाता है कि यह एहसास हो जाता है कि कब जुदा होगी पता नहीं, पर यह तो निश्चित है कि हमेशा साथ नहीं रहने वाली जिंदगी!
इसी जिंदगी की डोर थामे उसकी स्पंदित साँसों को साथ लिए निकलना हुआ था हमारा सफर पर। अब तक कई बार क्रूज पर जा चुके हैं यहाँ, पर हर बार कुछ नयी अनुभूति होती है सागर वही होता है रास्ते भी वही होते हैं पर अनुभव के धरातल हर बार कुछ नया दे जाती है बाल्टिक की लहरें सूर्यास्त की बेला में उसमें सूरज के समाने वाला मनोरम दृश्य सुबह सवेरे सागर का सूर्य की किरणों को खुद में समाहित कर चमकना सबकुछ अलग होता है हर बार! हो भी क्यूँ न, आखिर प्रति स्वयं को रोज दोहराती भी है तो एक अलौकिक नयेपन के साथ!
क्रूज शाम को चली 6 बजे के आसपास अपने पोर्ट से। हम अब जहाज पर सवार थे, केबिन में लगेज रखकर सीधे ऊपर भागे सबसे उपरी मंजिल पर। किनारा छोड़ते हुए कैसा नजारा होता है, किस तरह विशाल क्रूज अलविदा कहता है पोर्ट को… यह देखना हमारे लिए जैसे हर बार बेहद जरूरी होता है, कितनी ही बार यात्राएं कर चुके हैं इस तरह पर धीरे धीरे दूर होते किनारे और विशाल समुद्र की ओर बढ़ते जहाज पर सवार हो सूरज व चाँद को जलमग्न होते देखना हमेशा चमत्त करता है! शाम का वक्त था, कुछ ही देर में सूर्यास्त होने वाला था। सूर्यदेव मानों अपनी पोटली बाँधने में लगे थे, सागर में डूब जाने को लालायित से! रक्ताभ पानी और एक विहंगम दृश्य, इससे ज्यादा और क्या कहें! तस्वीर दिखा सकते हैं, पर तस्वीरों में कहाँ उतर पाती है वो बात या शायद ये ही हो कि हमें उतनी अच्छी तस्वीरें खींचनी आती ही नहीं!
खैर, अब हम दो रातों तक हमारा घर रहने वाले जहाज की हर मंजिल का अवलोकन कर रहे थे। यहाँ के कई क्रूज पर गए हैं, वाइकिंग लाइन के सिन्द्रेल्ला, मरिएल्ला, इसाबेल्ला, अमोरेल्ला पर मगर सिल्या लाईन के बाल्टिक क्वीन पर यह हमारा पहला सफर था। अन्य के मुकाबले यह हर दृष्टि से श्रेष्ठ व भव्य था! रात्रि के समय कई कार्यक्रम आयोजित होते हैं जहाज के फन क्लब में, यहाँ जो देखा वो दातों तले ऊंगली दबाने पर मजबूर कर गया, आप भी देखिये यह अद्भुत करतब :: अफ्रीका स्पेशल थी यह प्रस्तुति और भी कई गीत नृत्य के कार्यक्रम हुए, रात भर चलने वाला था यह सब कुछ लेकिन हम थके हुए थे, शुक्रवार की शाम थी, हफ्ते भर की थकान थी, सो हमने केबिन में जाकर विश्राम करना ही उचित समझा। सोच कर सोये कि सुबह जल्दी उठ कर सूर्योदय का आनंद लेंगे, शनिवार की सुबह सुन्दर काण्ड का पाठ करते आ रहे हैं, सो वह करेंगे और इतना जब कर चुके होंगे तब पहुंचेगी नाव अपनी मंजिल तक। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उठने में कुछ देर हो गयी, स्नान ध्यान में से बस स्नान ही हो पाया ध्यान रह गया। नाव एस्टोनिया पहुँच चुकी थी, हमें उतरना था इसलिए अब ध्यान और सुन्दरकाण्ड का पाठ तो तालिन्न की गलियों में घूमते हुए ही होगा!
अब समय था सीमित और घूमने को था पूरा शहर, हमने यही निश्चय किया कि प्राचीन शहर देखेंगे और हुआ भी यही पैदल नाप लिया हमने शहर, नए भाग तक पहुँचने का समय नहीं बचा, सो गए भी नहीं! कोई अफसोस भी नहीं क्यूंकि जितना देखा वह बहुत था, जितना चले, जितनी चढ़ाईयां चढ़ीं वो हमारी क्षमता के हिसाब से बहुत अधिक थी। थकान तो अच्छी खासी होनी ही थी, हुई भी! वापस क्रूज पर लौटकर हमने सोचा कि कुछ विश्राम करके फन क्लब के कार्यक्रम देखने जायेंगे, पर जब आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी, हम स्टॉकहोम के करीब पहुँच चुके थे।
ये क्या? यह तो शहर घूम कर लौटने के बाद का सबकुछ लिख रही है कलम।
हे लेखनी! जरा पीछे मुड़ो और हमें ले चलो समुद्र किनारे जहां हमने एस्टोनिया का इतिहास पढ़ा था लगी हुई प्रदर्शनी में, जहां हमने आगे बढ़ते हुए प्राचीन विशाल दीवारों को देखा था जो कभी शहर के रक्षार्थ खड़े किये गए थे, और ले चलो उन उंचाईयों पर भी जहां तक चढ़ते हुए हमारे पैरों ने जवाब दे दिया था! स्मृतियाँ व तथ्य साथ दें एवं कलम अपना हुनर कुछ क्षण के लिए हमें दे दे तो आज यह दास्तान पूरा लिख जाएँ, इतने दिनों से टुकड़ों में लिखा जा रहा है अटका हुआ है। एस्टोनिया के संघर्ष का इतिहास और एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र होने की कहानी अंकित है यहाँ… पोर्ट से निकलकर आगे बढ़ते हुए जो सबसे पहले दिखा वह इतिहास ही था…
यूरोप में रिफर्मेशन अधिकारिक तौर पर मार्टिन लुथर (1483-1546) एवं उनके 95 शोध प्रबंधों के साथ 1517 में प्रारंभ हुआ, रिफार्मेशन के परिणामस्वरूप बाल्टिक क्षेत्र में कई क्रांतिकारी परिवर्तन हुए! 1561 के लिवोनियन युद्घ के दौरान उत्तरी एस्टोनिया ने स्वयं को स्वीडिश नियंत्रण को सौप दिया। प्रकारांतर में (1629) एस्टोनिया की मुख्य भूमि पूरी तरह से स्वीडिश शासन के तहत आ गयी। 1631 में स्वीडिश राजा गुस्ताफ द्वितीय एडल्फ ने किसानों को अधिक से अधिक अधिकार देने के लिए अभिजात्य वर्ग को मजबूर कर दिया, हालांकि, दासत्व को बरकरार रखा गया। फिर आगे चल कर चाल्र्स 11 ने जमींदारी समाप्त करते हुए सम्पदा स्वीडिश क्राउन को सौंपते हुए प्रभावी रूप से धरतीपुत्रों को दासत्व से मुक्ति दिलाई और उन्हें करदाता किसान बनाया! 1632 में प्रिंटिंग प्रेस एवं विश्वविद्यालय की स्थापना हुई डोर्पट में (डोर्पट को ही आज टार्टू के रूप में जाना जाता है)। एस्टोनियाई इतिहास में इस अवधि का उल्लेख ‘खुशहाल स्वीडिश काल’ के रूप में किया जाता है!
उत्तरी युद्घ (1700-1721) के दौरान एस्टोनिया एवं लिवोनिया के आत्मसमर्पण के कारण स्वीडन ने रूस के हाथों एस्टोनिया को खो दिया निस्ताद संधि के तहत। एस्टोनिया के लिए अच्छी बात यह थी कि दास प्रथा की समाप्ति हो चुकी थी एवं विश्वविद्यालय की स्थापना ने मूल एस्टोनियाई भाषी आबादी को शिक्षा के प्रति जागरूक भी कर दिया था। इसके फलस्वरूप 19वीं सदी एक सक्रिय एस्टोनियाई राष्ट्रवादी आंदोलन का गवाह बनी! सर्वप्रथम यह आन्दोलन एस्टोनियाई भाषा साहित्य, थिएटर और पेशेवर संगीत की स्थापना के माध्यम से सांस्तिक स्तर पर प्रारंभ हुआ पर जल्दी ही राष्ट्रीय पहचान के गठन की भूमिका में आ गया और इस अवधि को जागृति युग के नाम से भी जाना गया।
साहित्य एवं संस्कृति ही तो राष्ट्र की पहचान होते हैं और इसी चेतना से कोई राष्ट्र अपने स्वाभिमान एवं अपनी पहचान की रक्षा कर सकता है। एस्टोनिया ने सोवियत रूस से अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी एवं समर जीतने पर टार्टू शांति संधि पर हस्ताक्षर किये गए! ये 2 फरवरी 1920 की शुभ बेला थी। एस्टोनिया गणराज्य को क्रमश: 7 जुलाई 1920 को फिनलैंड द्वारा, 20 दिसंबर 1920 को पोलैंड द्वारा, 12 जनवरी 1921 को अर्जेंटीना द्वारा एवं पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा 26 जनवरी 1921 को विधि सम्मत मान्यता दी गयी! एस्टोनिया ने बाईस वर्षों तक अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखा। वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से राजनीतिक अशांति के बाद 1934 में संसद भंग हो गयी, पुन: 1938 से संसदीय चुनाव प्रारंभ हो पाए़ फिर शुरू हो गया दूसरा विश्वयुद्घ जिसमें एस्टोनिया ने अपनी 25 प्रतिशत आबादी खो दी, यह आंकड़ा यूरोप भर में इंसानी क्षति का सबसे बड़ा आंकड़ा था।
अगस्त 1939 में जोसेफ स्टालिन ने हिटलर से मोलोतोव-रिबेन्त्रोप संधि एवं गुप्त अतिरिक्त प्रोटोकल के तहत पूर्वी यूरोप को ‘विशेष रुचि के क्षेत्रों’ में विभाजित करने की सहमति प्राप्त कर ली। इसके बाद शुरू हुआ भयावह सिलसिला। 24 सितम्बर 1939 को लाल नौसेना के युद्घपोत तालिन्न एवं उसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में नजर आये, सोवियत हमलावरों ने एस्टोनियन बंदरगाहों पर गश्ती शुरू कर दी। एक समझौते के तहत एस्टोनियाई सरकार सोवियत संघ को ‘परस्पर रक्षा’ के लिए एस्टोनियाई धरती पर सैन्य ठिकानों और 25000 सैनिकों को स्थापित करने की अनुमति देने को मजबूर हो गयी। 18 जून 1940 को 90000 अतिरिक्त सैनिकों ने एस्टोनिया में प्रवेश किया और रक्तपात से बचने के उद्देश्य से एस्टोनिया ने आत्मसमर्पण कर दिया। 21 जून तक एस्टोनिया पूर्ण रूप से सैन्य कब्जे में आ गया। फिर 22 जून 1941 को सोवियत संघ पर जर्मनी के आक्रमण के बाद, एस्टोनिया जर्मन सेना के अधीन हो गया।
शुरू में जर्मनी का एस्टोनिया के लोगों द्वारा स्वागत ही किया गया था सोवियत संघ और उसके दमन से मुक्तिदाता के रूप में, इस उम्मीद के साथ, कि जर्मनी की मदद से उनका देश पुन: स्वतंत्र हो जाएगा पर लोगों का यह भ्रम जल्द ही टूट गया। सोवियत से मुक्ति मात्र एक दूसरी सत्ता द्वारा शाषित होना था। अभी एस्टोनिया की राह में कई संघर्ष शेष थे! सोवियत बलों ने देश के उत्तर पूर्व में लड़ाई के बाद 1944 की शरद ऋतु में एस्टोनिया पर पुन: अपना अधिकार कर लिया। लाल सेना द्वारा फिर से कब्जा कर लिए जाने पर एस्टोनिया के हजारों लोगों (अनुमानित 80000) ने या तो जर्मनी के साथ पीछे हटने का फैसला किया या फिनलैंड/स्वीडन के लिए पलायन कर गए। ये लोग मुख्यत: शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, राजनीति एवं सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञ थे। फिर इन लोगों के संघर्षकाल का लम्बा इतिहास है। कितना लिखें इसके विषय में, अब चलते हैं कुछ सुखद और प्रेरक दौर में।
यह वक्त था 1989 की गीत क्रांति का, वृहद् स्वतंत्रता के लिए किया गया यह अनूठा प्रदर्शन मील का पत्थर साबित हुआ, जिसे बाल्टिक मार्ग भी कहा जाता है लगभग 2 लाख लोगों ने लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया से गुजरती हुई मानव श्रृंखला बनायी तीनों राष्ट्रों के पराधीनता के अनुभव एक से थे, एक सी थी स्वतंत्रता की चाह और एक से थे स्वतंत्रता को पा लेने के उपक्रम तो क्यूँ न बनती श्रृंखला ज्वलंत उद्देश्यों से परिपूर्ण!
फिर चिर प्रतीक्षित दिन आया मास्को में सोवियत सैन्य तख्तापलट के प्रयास के दौरान, 1940 के पूर्व जैसा था, वैसा राज्य पुनर्गठन हुआ एस्टोनिया में एवं 16 नवम्बर 1988 को एस्टोनियाई संप्रभुता की घोषणा हुई। अभी भी लम्बी राह शेष थी, स्वतंत्र घोषित होने में अभी भी समय था, 20 अगस्त 1991 को औपचारिक स्वतंत्रता की घोषणा हो गयी! एस्टोनिया की आजादी को सर्वप्रथम मान्यता देने वाला देश था आइसलैंड! 1 मई 2004 को यूरोपीय संघ से जुड़ने वाले दस देशों के एक समूह में से एक एस्टोनिया भी था! ये थे प्रदर्शनी में वर्णित तथ्य और यात्रा के मील के पत्थर!
आज लिख रहे हैं, तो इस पहली तस्वीर के विषय में लिखने में ही काफी वक्त लग गया!
एस्टोनिया की स्वतंत्रता का इतिहास लिख रहे थे और मन हमारा भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में कहीं विचरण कर रहा था वीर बलिदानियों के साथ! आज चौदह अगस्त है, पंद्रह अगस्त की पूर्वसंध्या और हम दूर देश में भारत का राष्ट्रीय पर्व सेलिब्रेट करने को पूरे उत्साह के साथ तैयारी में जुटे हैं, अपनी स्वतंत्रता के प्रति गर्व से मस्तक ऊंचा किये हुए! कितनी ही समस्याएं हों, राष्ट्र पर्व के प्रति उत्साह कभी कम नहीं होना चाहिए! ये हमारा गौरव है, तिरंगा हमारी शान है! अभी यहीं से तिरंगे को नमन!!!
अब एस्टोनिया की स्वतंत्रता के इतिहास से आगे बढ़े हम, बंदरगाह की सुन्दरता निहारते हुए राजधानी तालिन्न शहर में प्रवेश किया! ज्ञात हो कि तालिन्न का प्राचीन शहर यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की सूची में है। यह एक वैश्विक शहर के रूप में दुनिया के शीर्ष दस डिजिटल शहरों की सूची में भी शामिल है। यह शहर वर्ष 2011 के लिए फिनलैंड के टूर्कू के साथ यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी भी रहा! सबसे पहले पहुंचे हम प्राचीन शहर के ऐतिहासिक केंद्र में, यहीं संत उलफ चर्च स्थित है, यह 123 मीटर ऊंचा है! हमने चर्च के अन्दर प्रवेश किया और चर्च टावर पर चढ़ने का निश्चय किया। टिकट खरीदा और हमने कमर कस ली करीब गिनती में 200 ऊंची उबड़-खाबड़ सीढ़ियों को चढ़ने के लिए़ उस ऊंचाई से शहर का दृश्य देखने की आकांक्षा ने हमसे यह मुश्किल चढ़ाई चढ़वा ही दी। किनारे पर लगी रस्सी पकड़े चढ़ते हुए कितनी बार हारा मन लेकिन लौटने की कोई राह नहीं थी सो आगे बढ़ना ही था, सीढ़ियों पर जगह इतनी कम है कि दो लोग साथ-साथ पार भी नहीं हो सकते, ऊपर से कोई उतर रहा हो तो चढ़ने वाले को रूक कर उसे रास्ता देना होता है इस संकरी राह में खैर, अब हम ऊपर पहुँच चुके थे। पूरा शहर दृश्यमान था, यहीं खड़े होकर हमने आगे के पड़ावों की रूपरेखा तैयार की। ये जो तीन टावर दिख रहे हैं यह चर्च ही हैं, वही बीच वाली ईमारत के पास संसद भवन भी है।
ऊपर से ली गयी इस तस्वीर में हमने बाल्टिक क्वीन को कैप्चर करने का प्रयास किया है, जिस क्रूज ने इस शहर तक पहुँचाया उसकी तस्वीर तो बनती ही थी इस ऊंचाई से, भले स्पष्ट न आये!
यहाँ से तस्वीरें ली, थोड़ी सांस ली और धीरे-धीरे उतरना शुरू किया, वापसी का रास्ता तो आसान था ही! वहीं लौटते वक्त बीच में विश्राम कुर्सी पर बैठे भी हम बस तस्वीर के लिये…
यहाँ से बढ़े तो पास में ही एक म्यूजियम सा कुछ था, वहाँ भी टावर पर चढ़ने की सुविधा थी और ऊपर एक पथ बना हुआ था। चढ़ाई ऊंची नहीं थी और ऊपर बने पथ पर चढ़कर कम ऊंचाई से शहर को देखना था इसलिये यहाँ भी टिकट ले कर हम ऊपर बढ़े! यात्रियों को घूमाने के लिए टॉय ट्रेन जैसा कुछ चलता है, यहीं से ली हुई तस्वीर है यह।
ये कबूतर भी यहीं मिले, एक-दूसरे का साथ एन्जॉय करते हुए, हमने कई कोणों से तस्वीरें ली झरोखे की और कबूतर भी निर्विकार भाव से वैसे ही बैठे पोज करते रहे! अच्छा लगा यहाँ आना!
अब हम उस ओर बढ़े जिधर संसद भवन स्थित है। तस्वीरें लेकर संतोष कर लिया क्यूंकि अब वहाँ स्थित दो और चर्च टावर में चढ़ने की हिम्मत शेष नहीं थी! संसद भवन से सटा एक विशाल उद्यान था, वहीं कुछ देर हमने हरे पेड़ की छाँव में विश्राम किया और पुन: भटकने को निकल पड़े! ये वहां की कोई पारंपरिक दुकान थी, ऐसे कई स्टॉल दिखे पर यहाँ कुछ देर रुक जाने का कारण बनी एक गिलहरी जो महिला से वे गोलियां ले लेकर बड़े चाव से खा रही थी जिस तरह वह शिष्टतापूर्वक एक खाने के बाद दूसरा दाना लेने को उद्घत होती हम वह पोज कैमरे में उतारने को उद्घत हो जाते…
फिर इधर से आगे बढ़े तो अब हम टाउन स्क्वॉयर पहुंचे, यहाँ की चहल-पहल मनमोहक थी। पारंपरिक परिधानों वाली युवतियों के साथ सैलानी तस्वीरें खिंचा रहे थे।टाउन हॉल भी यहीं स्थित था। टावर यहाँ भी था और यह महिला कोई पारंपरिक सूप की तैयारी में लगी है एकदम पारंपरिक परिधान पहने हुए! ऐसी सुदूर जगह में कहीं भारत से सम्बंधित कुछ दिख जाए तो भले वह कितना भी रिमोटली रिलेटेड क्यूँ न हो, आँखें चमक ही उठती हैं! यहाँ हमें एक इंडियन रेस्तरां दिखा और एक पंजाबी दम्पति जो दूर से ही चमक रहे थे अपने फ्लोरसेंट अरेंज एवं येलो परिधानों के कारण, बस यही सब देखने में हम थोड़ा खो गए! अब तो हालत खराब, सुशील कहीं दिख ही नहीं रहे थे, भीड़ में खोये बच्चे की तरह रुलाई निकलने ही वाली थी कि समस्या सुलझ गयी और वे नजर आ गए।
अब लगभग समाप्त ही था समय, कुछ एक घंटे शेष बचे थे! हम यहाँ से कई गलियों से होते हुए वापसी के रास्ते पर थे। वहीं राह में यह प्राचीन खँडहरनुमा स्थान मिला… अन्दर प्रवेश करने पर यह मछली की आति ऊपर लटकती दिखी और सीढ़ियों से नीचे उतरकर लगभग जमीन के नीचे था एक कलाकार का कार्यस्थल! वहाँ प्रवेश किया हमने, अँधेरे में मोमबत्ती के मद्घम प्रकाश में एक व्यक्ति कई कलातियों के बीच घिरा हुआ कुछ रचने में मग्न था, हम बाहर आये और फिर आगे को चल दिए! रास्ते में कई स्टाल थे, कुछ पारंपरिक पेटिंग्स के दूकान दिखे और उनमें रंग भरता हुआ पेंटर अपने कार्य में निमग्न दिखा!
इन्हीं दृश्यों को आँखों में बसाते हुए अब हम वहाँ थे जहां 1994 की दुर्घटना में काल कवलित हुए सैकड़ों लोगों की यादों को स्मृति चिन्ह में समाहित किया गया है… इस स्मृति स्थल पर कुछ क्षण रुक कर जीवन मृत्यु की पहेली में उलझे हुए थके हारे हम बाल्टिक क्वीन पर पुन: सवार हुए! और उसके बाद क्या हुआ यह तो पहले ही ऊपर लिख चुके हैं रात भर सोये और सुबह का सूरज स्टॉकहोम में देखा! प्रभु को धन्यवाद दिया कि हम सही सलामत वापस आ गये कि एक और नया दिन हमारी राह देख रहा था!
’’’ये कलम का सफर समाप्त हुआ, यात्रा पूरी हुई तो विराम लेते ही फोन पर बातें शुरू हो गयी सिंदरी! पहली बार लेक्चरर के रूप में शामिल होंगी कॉलेज के स्वतंत्रता दिवस समारोह में कल मेरी ननद रानी, सो उनकी अपनी व्यस्तताएं थी, फिर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों की तैयारी कैसे करवाई इसका विस्तृत वर्णन सुनने को मिला हमें, किसी नाटक के साउंड मिक्सिंग को लेकर कुछ काम शेष था सो वे उसमें लग गयीं और अब हम अपनी बहना से बात करने लगे। उसने भी लन्दन में अपने वाई़ एम़ सी़ ए़ हॉस्टल में होने वाले झंडोत्तोलन समारोह के बारे में बताया! उसके लिए अपने देश से दूर यह पहला स्वतंत्रता दिवस है और निश्चित ही वह बहुत मिस करने वाली है अपने देश के समारोहों की उमंग को! इन दोनों से बात करके हम और भी भावुक हो गये लहराते ध्वज का स्मरण कर यहीं से अपनी मातृभूमि के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करते हैं…
जय हिन्द! जय भारत!! 

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