दस्तक-विशेष

अरे जरा सा तो रुकिए!

प्रसंगवश : ज्ञानेन्द्र शर्मा

jara rukiye toमानवरहित रेलवे क्रासिंग अभिशाप बनते जा रहे हैं। भदोही में फिर एक हादसा हो गया और कई नन्हें-मुन्नों की जानें चली गईं। जांचें होती हैं लेकिन यह पता नहीं लगता कि गलती किसकी थी। लेकिन इतना पक्का है कि वाहन चालक नम्बर एक के अपराधी हैं। बिना गेट के क्रासिंग पर तो हादसा होता ही है, जहां गेट लगे हैं, वहां रोज लोग हादसों को निमंत्रण देते हैं। आप किसी भी क्रासिंग पर थोड़ी देर के लिए खड़े हो जायं। आप देखेंगे कि कैसे बंद फाटक को फांदकर, उसके नीचे से, उसके किनारे से, उसको थोड़ा ऊपर उठाकर लोग निकलते हैं और अपनी जान जोखिम में डालते हैं। जिनके साथ छोटे बच्चे हैं, वे भी यह करने से नहीं चूकते।
सबको जल्दी है। पांच-दस मिनट भी उनके पास लेविल क्रासिंग पर रुकने के लिए नहीं हैं। वे पान की दुकान पर गुटका खरीदने और खाने में चाहे जितना वक्त लगा दें, सड़क यात्रा के लिए उनके पास समय नहीं है। उन्हें इतनी जल्दी होती है कि वे किसी भी नियम को तोड़ने से बाज नहीं आते। सामने ‘ठहरिए’ के मोटे शब्दों वाले बोर्ड लटकते हैं पर लोग उनको भी परे हटा देते हैं। तो बात केवल मानवरहित क्रासिंग तक ही सीमित नहीं है, जहां रेलवे फाटक हैं, बाकायदा मानव सहित क्रासिंग हैं, वहां भी तो यही हाल है। अब सवाल यह है कि क्या रेलवे पर दोष मढ़ देने से संतुष्टि मिल जाएगी? फिर बच्चों को लेकर जाने वाले वाहनों के ज्यादातर ड्राइवर हद दर्जें के लापरवाह होते हैं। वे अपने वाहनों में जब चलते हैं तो पूरे जोर से टेप पर गाने बजाते चलते हैं या फिर मोबाइल से कान में कॉर्ड लगाकर गाने सुनते चलते हैं। रेलवे क्रासिंग पर यदि आती हुई ट्रेन की आवाज उन्हें न सुनाई दे तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब कान ही बंद होंगे तो कोई आवाज कहां से सुनाई देगी? स्कूलों के प्रबंधक इस पर कतई ध्यान नहीं देते।
उनका इन लापरवाह ड्राइवरों पर कोई नियंत्रण नहीं होता। वे तो वाहन के ठेके उठा देते हैं और फिर ब्रेफिक्र हो जाते हैं। बच्चे जिएं, मरें उनसे क्या मतलब। तो फिर जब हम खुद ही इतने लापरवाह हैं, नियम तोड़ने वाले हैं तो कोई क्या कर लेगा? और जब हम अपनी मदद खुद नहीं करना चाहते तो भगवान भी क्या कर लेगा! ल्ल

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