दस्तक-विशेषसाहित्य

आत्माराम विज्ञानी

आशुतोष राणा की कलम से…
क्रॉकडायल की छाप वाला सूट्केस, उनकी दसों उँगलियों में विभिन्न नगों से जड़ी हुई कुछ सोने-चाँदी की अँगूठियाँ, तेल से पीछे खींचकर बांधे गए लम्बे बालों की एक चोटी, जिसे रुद्राक्ष व सोने के छोटे गुरियों के बैंड से बांधा हुआ था। माथे पर लालसुर्ख एक बहुत बड़ी बिंदी जिसके बीचों-बीच एक छोटा सा सोने का श्रीयंत्र चिपका हुआ था। उनके चेहरे पर किसी को भी असहज और आतंकित कर देने वाला एक अजीब सा सम्मोहन था। करीब पाँच फुट दो इंच के उस सूटेड- बूटेड व्यक्ति को देख के लगता था कि यह निश्चित ही कभी अघोरी रहा होगा और अब श्मशान छोड़कर शहर में रहने लगा है। हावड़ा मेल के फस्र्ट एसी के ‘ए’ कूपे में, ये मेरे सहयात्री थे। अपनी सीट पर व्यवस्थित होने के बाद मैंने एक सौजन्यता पूर्ण मुस्कुराहट उन पर फेंकी, वे सम्भवत: मेरी पहल का इंतजार ही कर रहे थे। छूटते ही पूछ लिया कहाँ तक यात्रा करेंगे श्रीमान ? मैंने कहा – गाडरवारा, और आप? वे बोले आपसे आगे, इलाहाबाद तक। मैंने महसूस किया कि वे मेरे बारे में जानने से ज्यादा अपने बारे में बताने के लिए अधिक उत्सुक हैं।
मनोविज्ञान का नियम है कि उत्सुक व्यक्ति की उत्सुकता को तुरंत निस्तार नहीं देना चाहिए। यह बिल्कुल अधपके फल को तोड़ लेने के जैसा होता है। सो मैंने उन्हें और अधिक पक जाने के लिए तटस्थ मुद्रा बना ली और अच्छा कह के शून्य में देखने लगा। यह उनकी आतंकित करने वाली ‘सम्मोहन शक्ति’ पर पहली चोट थी। वे बोले- क्या करते हैं आप? मैं चुपचाप करीब 20 सेकेंड तक अपने चेहरे पर बिना कोई भाव लाए उन्हें देखता रहा। इस 20 सेकेंड के सन्नाटे ने उन्हें मेरे प्रति कौतुहल से भर दिया-उन्हें लगा कि मैं कोई बहुत बड़े रहस्य का उद्घाटन करने से पहले उनकी पात्रता परख रहा हूँ। जिससे उन्होंने अपनी मुख मुद्रा को और अधिक गम्भीर बनाके मुझे अपने विश्वसनीय और सुपात्र व्यक्ति होने का सबूत दिया। अब वे तैयार थे- मैं क्या करता हूँ सुनने के लिए। मैंने उनकी बात का जवाब ना देते हुए उनसे पूछा- टाइम कितना हुआ? वे दोनों हाथों में घड़ियाँ पहने थे फिर भी अचकचा के मोबाइल उठा लिया और उसमें से समय देख के बताया कि 10 बज रहे हैं। मैं ‘अच्छा’ कहके फिर चुप हो गया। अब उनकी जिज्ञासा चरम पर थी, वे थोड़ा हिल गए थे। अब उन्होंने पूछा आप चाय पिएँगे? और मुझसे ‘हाँ’ सुनने की अपेक्षा लिए मुझे देखने लगे।
मैंने कहा, आपने क्या पूछा था? वे बोले- चाय का, मैंने कहा नहीं उससे पहले? वे सोच में पड़ गए और अचानक जैसे छोटे बच्चों को भूला हुआ जवाब याद आता है बिल्कुल उसी उत्साह में बोल उठे- मैंने पूछा था कहाँ जा रहे हैं? मैंने कहा नहीं, वो तो मैं बता चुका। वे बोले हाँ वो तो आप बता चुके!! वे कन्फ्यूज हो गए थे, क्योंकि उनकी रुचि मुझमें थी ही नहीं, वे मेरे बारे में जानने से अधिक स्वयं के बारे में बताने के लिए उत्सुक थे। उन्होंने मुझसे सम्बन्धित कुछ उड़ते हुए सवाल मात्र इसलिए किए थे जिससे उन्हें स्वयं के बारे में बताने का वैध लाइसेंस मिल जाए। लगातार हो रही चोटों से वे बिखरने लगे थे, अपने को समेटते हुए- उत्साह से बोले मैं इलाहाबाद जा रहा हूँ। जी आपने बताया था मुझे, ये कहके मैं फिर शून्य में देखने लगा। मैं जितनी शांति से जवाब देता वे उतने ही बेचैन हो रहे थे। चार लोगों के कूपे में हम मात्र दो लोग थे, अचानक बोले आप बहुत चुप रहते हैं। मैंने हँस कर कहा- अकेला व्यक्ति यदि बात करने लगे तो लोग उसे पागल कहेंगे, चुप रहना मेरा स्वभाव नहीं वरन् मेरे सामान्य प्राणी होने का प्रमाण है। ये उनपर अभी तक की सबसे बड़ी चोट थी। जिसने उनके सम्मोहन अस्त्र को व्यर्थ सिद्घ कर दिया था। अब उन्होंने मुझे अपने मोहपाश में बाँधने के लिए अपने तुणीर में से एक नया अस्त्र निकाला- अपना हैंडबैग खोल के उसमें से दो लैपटॉप, चार पामटॉप और तीन मोबाइल निकाले। उनके पास कुल पाँच मोबाइल थे दो पहले से ही बाहर रखे थे। उनकी इलेक्ट्रॉनिक सम्पन्नता देख एक बार को मुझे लगा कि मैं किसी छोटे-मोटे इलेक्ट्रॉनिक तस्कर के साथ यात्रा कर रहा हूँ।
किंतु आने वाले समय में मेरा ये भ्रम टूटने वाला था। फिर उन्होंने एक डोंगल निकाला और उसे प्रॉपर सिग्नल के लिए सेट किया और जूझने लगे अपने तमाम गैजेट्स के साथ। उन्हें विश्वास था कि इस शक्ति प्रदर्शन से मैं निश्चित ही उनके प्रति उत्सुक होकर उनके सम्मोहन की चपेट में आ जाऊँगा। उनके मन की बात चूँकि मैं ताड़ गया था इसलिए उनको एक बड़ा झटका देने के लिए मैंने अपनी तटस्थता को उदासीनता में बदल दिया। वे मुर्झा से गए और गैजेट्स पर ही अपनी निगाहों को गड़ाए हुए- अहा, ओहो, अच्छा, ये बात, हम्म ज़ैसी ध्वनियाँ पहले मद्घिम व बीच-बीच में तीव्र स्वर में निकालने लगे। मैं भी पूरी ढीठता लिए हुए निर्विकार भाव से शून्य में ही देखता रहा। अब उनसे अपना अस्तित्व सम्भाला नहीं जा रहा था, वे अपने बारे में बताने के लिए मचलने से लगे। वे बोले आप आत्माओं में विश्वास करते हैं? उन्होंने प्रश्न कुछ इस अंदाज में किया था कि मैं उनके प्रश्न का उत्तर ‘ना’ में दूँ जिससे वे आत्मा के ‘हाँ’ पक्ष को लेके मुझ पे चढ़ जाएँ। मैंने उनकी अपेक्षानुरूप कह दिया जी नहीं मैं आत्माओं में विश्वास नहीं करता। वे प्रसन्नता से फनफनाने लगे और एक पारलौकिक सी दृष्टि मुझ पे डाली, बोले आपने पूछा नहीं फिर भी बता देता हूँ- दरअसल मैं एक तांत्रिक हूँ, मेरा नाम आत्माराम विज्ञानी है। लोग मुझे आदर से टेक्नो बाबा भी कहते हैं। पहले मैं श्मशान में मृत आत्माओं को ढूँढ के उनका उपचार करता था अब शहर में जीवित, छद्म, छिपी हुई आत्माओं को ठिकाने लगाने का काम करता हूँ। मृत आत्माओं से ज्यादा खतरनाक जीवित आत्माएँ होती हैं, ये यदि किसी के पीछे पड़ जाएँ तो अच्छा भला आदमी पागल हो जाता है।
मरी हुई आत्माओं को ढूँढना बड़ा आसान होता है। अमूमन उनका अड्डा कब्रिस्तान या श्मशान होता है और ये किसी भी गाँव शहर कस्बे में सीमित संख्या में होते हैं। लेकिन जीवित आत्माओं को ढूँढना बिल्कुल समुद्र में गिरे हुए सुई के पैकेट को ढूँढने जैसा होता है। क्योंकि ये वीराने में नहीं बस्तियों में वास करती हैं। जब मैं सिर्फ मृत आत्माओं का उपचार करता था तब सिर्फ तंत्र साधना से काम चल जाता था। किंतु इन जीवित आत्माओं का उपचार करने के लिए मुझे यंत्र को भी सिद्घ करना पड़ा। जब तक मैं सिर्फ तांत्रिक था तो लोग मुझे आत्माराम, यानि आत्मा को आराम देने वाला मानते थे, लेकिन जब से इन जिंदा भूतों से निपटना शुरू किया तो लोगों ने आत्माराम के साथ विज्ञानी और जोड़ दिया। और वे हे हे करके हँसने लगे, मुझे यह व्यक्ति अत्यंत रोचक लगा सो उनका उत्साह बढ़ाने के लिए मैं भी हँस दिया और कहा कि, मतलब अब आप तांत्रिक ही नहीं यांत्रिक भी हैं? अपने तमाम गैजेट्स की तरफ इशारा करते हुए बोले-जी ये सारे हथियार उन जीवित आत्माओं के शोधक यंत्र हैं।
मैंने कहा- कैसे? मैं देख रहा हूँ आप सोशल मीडिया पे एक्टिव हैं, ट्वीटर फेसबुक, इंस्टाग्राम पर !! अब वे अत्यंत रहस्यमयी मुस्कान लिए हुए लगभग फुसफुसाते हुए बोले, इन जीवित आत्माओं का सबसे बड़ा अड्डा यही है। यहाँ पर एक-एक आत्मा दस-दस रूपों में मौजूद होती है। ये सिर्फ रूप ही नहीं लिंग बदलने में माहिर होती हैं। स्त्री-पुरुष बन सकता है, पुरुष-स्त्री का भेस धारण कर लेता है। मृत आत्माएँ सिर्फ निराकार रह पाती हैं, किंतु ये जिंदा भूत !!! बाबा रेऽऽ – साकार होते हुए निराकार, निराकार से साकार, साकार से ऊंकार। पता नहीं क्या-क्या !! और तो और, ये योनि भी बदल लेते हैं, मनुष्य योनि से पशु योनि में बदल जाएँ, कहो पेड़-पौधा बन जाएँ अब उन्होंने अपना पामटॉप उठाके एक ट्वीटर अकाउंट मुझे दिखाया जिसके प्रोफाइल पर एक अजीब से प्राणी की फोटो लगी थी जिसे कुत्ता कहें, गधा कहें समझ नहीं आ रहा था और नाम कुछ ’’४ूू८८३ँीं३३ीू‘ूँंल्लूँंल्ल३ँी६ङ्म११्री१ लिखा था। टेक्नो बाबा बोले आप बताइए कि, ये क्या है? कौन है? किस योनि का है? स्त्री है या पुरुष? है भी कि नहीं है? मैं चक्कर में पड़ गया क्योंकि सच में प्रोफाइल को देख के उसे समझ पाना मेरे लिए असम्भव था। वे बोले इस भूत ने पता नहीं कितने अच्छे भले लोगों को पागल करके रखा है। ये चौबीसों घंटे, हफ्ते के सातों दिन, बारह महीने एक्टिव रहता है। जिनके पीछे इसे छोड़ा गया है इधर उनने कुछ लिखा और अगले ही पल ये उनपे झूम जाता है और आठ दस इसके जैसे ही उस भलेमानस को घेर लेते हैं। उसकी खूब लानत-मलानत करते हैं। उसके कपड़े फाड़ डालते हैं, उसे नारकीय यातना देते हैं और उस भले आदमी को खदेड़ के ही दम लेते हैं, जिसे इनकी भाषा में ट्रोल कहा जाता है। मृत आत्माएँ तो अपनी अतृप्त इच्छा की पूर्ति के लिए किसी जीवित व्यक्ति को अपना साधन बनाती हैं, उनकी एक निश्चित माँग होती है इसलिए उनसे निपटना आसान है। किंतु ये !! अतृप्त नहीं-अशांत आत्माएँ हैं। जिनकी कोई माँग ही नहीं होती सिवाय अशांति के। जो व्यक्ति इनके रडार में है उसे पीड़ा पहुँचाना ही इनका प्रमुख धर्म है। मृत आत्माएँ तो बेचारी स्वपीड़ा से ग्रसित होती हैं किंतु ये परपीड़ा के उन्माद से भरे होते हैं। इसलिए मैं इनको परपीड़क संघ के नाम से पुकारता हूँ। मैंने पूछा इनका ऐसा कोई संघ या संगठन है क्या? वे बोले अरे नई जी, जैसे नशेड़ी-नशेड़ी को ढूँढ लेता है, वैसे ही ये अपने आप ही एक-दूसरे की तरफ खिंचे चले आते हैं। ये कभी एक-दूसरे से मिले भी नहीं होते लेकिन इनमें गजब का भाईचारा होता, ये परपीड़ा के रिश्ते से बँधे होते हैं। दुनिया में प्रेम के रिश्ते से कहीं बहुत मजबूत पीड़ा का रिश्ता होता है।
मैंने कहा, जब हम छोटे थे तब स्कूल हो या घर, हमें ये कहा जाता था कि किसी को परेशान करना अच्छी बात नहीं है। यदि हम किसी को परेशान करते तो हमें दंड दिया जाता था, घुटना टेक करवा के या मुर्गा बना के। वे हँसने लगे, बोले- भाईसाहब देश अब छोटा नहीं रहा, बड़ा हो गया है। अब प्रताड़ित करने के लिए दंड का नहीं, पुरस्कार का विधान है। पहले निरक्षरता थी तो मरने के बाद भी आत्माएँ भोंदू ही रहती थीं, भूत बनने के लिए उनको मरना पड़ता था। अब साक्षरता का परचम चारों ओर फहरा रहा है, अब भूत बनने के लिए मरने की जरूरत नहीं है। अब जीवित होते हुए भूत बनने की कला में हम पारंगत हैं। जिंदा भूत मरे हुए भूत से ज्यादा खतरनाक होता है साहब। पहले मरने के बाद कब्र खोदी जाती थी, अब ये जिंदा भूत आपके जीते जी ही आपकी कब्र खोद देते हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ने में तो ये एक्सपर्ट होते हैं। ये जादू भी जानते हैं, अच्छे भले मनुष्य को गधा और उल्लू बनाने में तो महारत हासिल है इनको। अब आप सोचो, कि मैं मनुष्य हूँ इसलिए मनुष्य जाति को आप अपनी बात से सहमत कर लोगे तो आप गलतफहमी में हैं। क्योंकि अब आप मनुष्य बचे ही नहीं, इनने आपको गधा या उल्लू बना दिया है और ये संसार का नियम है कि कोई भी मनुष्य किसी गधे या उल्लू की बात से सहमत नहीं होता। चूँकि आप गधा और उल्लू बना दिए गए हैं इसलिए आपकी बात से सहमत होने वाला ऑटोमेटिक गधा और उल्लू की बिरादरी में शामिल हो जाएगा। इसलिए लोग आपसे छटके रहेंगे और आप संसार में अकेले पड़ जाएँगे। आप महाभारत के अश्वत्थामा के जैसे अपने घाव को लेके भटकते रहोगे। ये मरने आपको देंगे नहीं और जिंदा आप रह नहीं पाओगे। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, सो आप सोशल होने की चाह से सोशल मीडिया की तरफ लपलपाते हुए चले आते हैं, किंतु इन जिंदा भूतों ने इस सोशल मीडिया को सबसे ज्यादा अनसोशल बना के रख दिया है। इनके चक्कर में पड़ के आप अपने घर में भी अनसोशल हो जाते हैं। ये बिलकुल भगवान के जैसा व्यवहार करते हैं, पल भर में किसी का निर्माण कर दें और क्षण भर में किसी को मिटा कर रख दें। जैसे ईश्वर सब जगह है लेकिन किसी को दिखाई नहीं देता, बिलकुल वैसे ही ये हैं। इनके कई रूप होते हैं इसलिए इनका कोई रूप नहीं होता। मैंने कहा- लेकिन अब तो कानून बन गया है जिसमें ऐसे लोगों को सख्त सजा देने के प्रावधान हैं। वे हाऽऽऽहा करके जोर से ठहाके मारने लगे बोले- मरे हुए को मौत की धमकी से डर नहीं लगता साहब। यदि कोई हो तो सजा मिलेगी न !! जब वहाँ कोई है ही नहीं तो उसका क्या उखाड़ लेंगे आप? किस पे मुकदमा करेंगे? एक जगह से उसे ब्लॉक कर दो वो दूसरी जगह से घर में घुस जाएगा। आप हिंदू हैं? मैंने कहा -जी। पूजा पाठी हैं? मैंने कहा- जी। किस भगवान के फॉलोअर हैं? मैंने कहा कि हम तो 33 कोटि देवी-देवताओं में विश्वास करते हैं इसलिए सभी हमारे पूजनीय हैं। वे बोले -आप जैसे आदमी से भी अगर मैं सब भगवानों के नाम पूछ लूँ तो आपको भी याद नहीं होंगे। ऐसे ही इनके भी सैंकड़ों नाम, सैंकड़ों रूप होते हैं आप किस-किस का हिसाब करेंगे? कानून बना के आप मनुष्य पर नियंत्रण कर सकते हैं, हवा पर नहीं। विज्ञान सबसे शक्तिशाली होता है वो भी सिर्फ साकार को ही कंट्रोल कर सकता है, निराकार को साधने की ताकत उसमें भी नहीं है। फिर कानून तो सिर्फ एक मान्यता है। मानने वालों के लिए वो भगवान है और ना मानने वालों के लिए कल्पना।
जैसे अभेद किला बनाने से पहले वास्तुशास्त्री उसमें चोर दरवाजे का निर्माण कर लेते हैं, जिससे जरूरत पड़ने पर बचने के लिए उस दरवाजे से बाहर निकला जा सके। वैसा ही कुछ आप यहाँ भी समझो।
मैंने आपत्ति दर्शाते हुए कहा कि- आप कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर स्थितियों को पेश कर रहे हैं। मैं भी सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हूँ। मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता।
वे बोले- देखिए आप भले ही एसी फस्र्ट में यात्रा कर रहे हैं किंतु आप सामान्य आदमी हैं, आपकी कोई वैल्यू नहीं हैं। साधारण लोगों को तो आजकल मरे हुए भूत भी घास नहीं डालते फिर जिंदा की बात तो आप भूल ही जाओ। उनके आकर्षण का केंद्र बनने के लिए पहले आपको प्रसिद्घ होना पड़ेगा। वे सिर्फ उन्हीं को दिखाई देते हैं जो कुछ हों, आखिर उनकी भी कुछ इज्जत है। डाका वहाँ डाला जाता है जहाँ कोई खजाना हो। भिखारियों के घर में चोर नहीं घुसते, लूट वहाँ होती है जहाँ लूटने के लिए कुछ हो- आपके पास है ही क्या? जो वे आपको दिखाई दें? पहले उनके दर्शन की पात्रता प्राप्त कीजिए फिर उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाइए। आपने रेल का टिकट खुद लिया या किसी ने आपको स्पॉन्सर किया है? मैंने कहा मैं दूसरों के पैसों पर आनंद उठाने वाला सुविधाभोगी नहीं हूँ। ये मेरी मेहनत की कमाई है। वे बोले ये प्रमाण है आपके कुछ ना होने का। आपको कोई फस्र्ट क्लास का टिकट नहीं देता, आपको कोई इन्वाइट नहीं करता, कोई स्पॉन्सर नहीं करता इसका मतलब है कि आप सिलेब्रिटी नहीं हैं। इसके बाद भी आप इन दिव्यात्माओं के दर्शन चाहते हैं? शेष आदमी होके विशेष आदमी होने का रुतबा मत माँगिए। तुमको ट्रोल करके इनको क्या मिलेगा? बल्कि उल्टा तुम ही खामखां प्रसिद्घ हो जाओगे। ये कोई भोंदू भूत नहीं हैं जो गाँव के गरीब-गुरबों को अपनी सवारी बनाते हैं। ये सब बुद्घिजीवी हैं पढ़े-लिखे, ये शेष वर्ग पर नहीं विशेष वर्ग पर अटैक करते हैं। इन्होंने अशक्त के पक्ष में नहीं, सशक्त के विरुद्घ मोर्चा खोला हुआ है। आप-आप ही हैं इस बात का क्या सबूत है आपके पास? मैंने कहा मेरे पास पासपोर्ट है, राशन कार्ड है, वोटर आईडी, आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेन्स, जन्म प्रमाणपत्र से लेकर मूल निवासी प्रमाणपत्र तक सारे डॉक्युमेंट हैं। वे बोले- ब्लू टिक है? मैं चौंका !! वे बोले- जब तक ब्लू टिक नहीं है तब तक आप-आप नहीं हैं, ये सारे कागज बेकार हैं। ब्लू टिक आपके वैधानिक होने, विशेष होने का एकमात्र प्रमाण है। पहले ब्लू टिक की हैसियत हासिल करो फिर ट्रोलर्स को देखने का ख्वाब देखना। नहीं तो मेरी मंडली में शामिल हो जाओ, समाज सुधारने का काम करो। जैसे पैसे से पैसा कमाया जाता है वैसे ही प्रसिद्घि से प्रसिद्घि कमाई जाती है। आजकल जली जलाई बीड़ी से बीड़ी जलाने का जमाना है। अपनी माचिस लेके कोई नहीं घूमता। कलयुग में प्रसिद्घ होने के लिए आपको सद्कर्म करने की जरूरत नहीं है, ये लम्बा रास्ता है, आप तो बस किसी सद्कर्म करने वाले प्रतिष्ठित, प्रसिद्घ आदमी को घेर लो और उसके सभी कर्मों पर प्रश्नचिन्ह लगाकर उसकी प्रतिष्ठा को धराशायी कर दो, ये इंस्टेंट फार्मूला है- यू विल बी फेमस इन शॉर्ट स्पैन ऑफ टाइम। मे बी यू विल गेट अवार्ड सम डे। बट रेवॉर्ड तो पक्का है। क्या कहते हो? और उन्होंने आशा भरी निगाहों से मुझे देखा। उन्हें पूरा विश्वास था कि मैं उनके प्रभाव में आ चुका हूँ।
मैंने कहा- बात तो आपकी बेजोड़ है, लेकिन मुझे ये बताइए जिन्हें आप जिंदा भूत कह रहे हैं उन आत्माओं का आह्वान कौन करता है? ये किसके नियंत्रण में रहती हैं? जीते जागते मनुष्य को भूत बना के कौन प्रस्तुत करता है? यदि आपके कथानुसार ये समाज सुधारने का काम कर रहे हैं तो अपने प्रोफाइल पर ये खुद का या किसी मनुष्य का फोटो ना लगाकर किसी ऐसे जानवर का फोटो क्यों लगाते जिसमें कुत्ता-कुत्ता नहीं रहता, शेर-शेर नहीं रहता, घोड़ा गधा जैसा दिखाई देता है, गधा घोड़ा जैसा लगता है? इनके स्वरूपों को बिगाड़ कर कौन डिजाइन करता? ये अजीब से नाम क्यों रखते हैं जो पढ़ने पहचानने में मुश्किल हैं? आपको किसने इस काम पर रखा है?
वे मक्कारी से मुस्कुराते हुए बोले, आप ऐसे सवाल कर रहे हैं जिनका कोई जवाब नहीं है। मैंने कहा -जवाब नहीं है या आप देना नहीं चाहते ? बोले – मैं खुद भी इन सवालों के चक्रव्यूह में फँसा हुआ हूँ। मैं बहुत बड़े तंत्र का एक छोटा या यंत्र हूँ, यंत्र कितना ही बड़ा हो जाए किंतु तंत्र से बड़ा नहीं हो सकता। इसलिए तंत्र तो यंत्र को देख सकता है किंतु यंत्र में तंत्र तक पहुँचने की हैसियत नहीं है। मैंने कहा- यानि ये बिल्कुल भगवान की माया के जैसा है जिसमें हम माया को तो प्राप्त कर सकते हैं किंतु मायापति को नहीं। वे बोले -हाँ कुछ ऐसा ही समझ लें, और उसी रौ में बोले ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। आप तो ब्रह्म को देखो मिथ्या के चक्कर में मत पड़ो। मैंने पूछा – हम लोग ब्रह्म की श्रेणी में आते हैं या मिथ्या की ? वे स्वयं को मिथ्या मानने पर राजी नहीं थे, सो फँस गए, बोले आफकोर्स हम ब्रह्म हैं। मैंने कहा, श्रीमान जी जब हम सभी ब्रह्म हैं- तब आप क्यों चाहते हैं कि हम मिथ्या के पक्ष में खड़े होकर ब्रह्म होते हुए भी मिथ्या के नाम से जाने जाएँ ? जो अंतर तंत्र और तांत्रिक में होता है, वही अंतर ब्रह्म और ब्रह्मा में है। ब्रह्म एक धारणा है जो असीमित है, और ब्रह्मा एक व्यक्ति है जो सीमित है। ऐसे ही तंत्र एक व्यवस्था है विचार है, और तांत्रिक एक व्यक्ति है। हम जैसे आमजन विशेष होने में नहीं शेष होने में विश्वास रखते हैं। क्योंकि विशेष सीमित होता है और शेष असीमित। हम तंत्र के उपासक हैं तांत्रिक के नहीं। हम साधारण लोग व्यवस्था और विचार के पक्षधर होते हैं व्यक्ति के नहीं, क्योंकि व्यक्ति आते जाते रहते हैं किंतु व्यवस्था सदैव वर्तमान होती है। इसलिए हम आम लोग व्यवस्था के लिए व्यक्ति को बदलते हैं, व्यक्ति के लिए व्यवस्था को नहीं बदलते। हम जैसों के लिए व्यक्ति की विशेषता प्राप्त करने से कहीं अधिक कल्याणकारी विचार की विलक्षणता को प्राप्त करना है। क्योंकि कोई भी व्यवस्था व्यक्ति से नहीं, विचार से संचालित होती है। हम आमजनों के लिए प्रसिद्घ होने से अधिक कल्याणकारी सिद्घ होना है। हम सामान्य लोग किसी की बदनामी पर अपने नाम की इमारत नहीं खड़ी करते। किसी को मिटा के स्वयं को बनाने में हमारा विश्वास नहीं है। किसी की अप्रतिष्ठा पर हम अपनी प्रतिष्ठा का महल खड़ा नहीं करते। हम समाज को सुधारने में नहीं स्वयं को सुधारने में विश्वास रखते हैं, क्योंकि हमें हमारे संत मनीषियों ने सिखाया है कि ‘हम सुधरेंगे, तो जग सुधरेगा।’ मैं आपके जैसा तांत्रिक, यांत्रिक नहीं हूँ लेकिन मांत्रिक जरूर हूँ, इसलिए आपको प्रसिद्घि का नहीं सिद्घि का मंत्र बताता हूँ। आम होना ही खास होने की प्रक्रिया है महाराज। यदि आप खास होना चाहते हैं तो स्वयं को आम बना लीजिए। आम को आम होना आता है इसलिए उसे ‘फलों का राजा’ कहा जाता है। अब मेरे अंदर का ठेठ ग्रामीण लट्ठबाज इंसान जगा, जिसे सिर्फ कबीर के दोहे ही नहीं फाग गाई जाने वाली गालियाँ भी कंठस्थ थीं, मैंने कहा- इस देश का जितना नुकसान आतंकवादी नहीं करते उससे ज्यादा तुम जैसे अराजकतावादी करते हैं। आतंकवादी तो देश के मानचित्र पर चोट करके उसे बिगाड़ना चाहते हैं, किंतु तुम जैसे लोग देशवासियों के मानचित्र को खंडित करते हो। आतंक से ज्यादा खतरनाक अराजकता होती है। भ्रष्टाचार से ज्यादा घातक तुम जैसों का मिथ्याचार है। मैं विशुद्घ भारतीय देहाती हूँ, मुझे बुद्घि ही नहीं अपने बल पर भी भरोसा है, विशिष्टता की चाह में अशिष्टता करने वालों की नकेल कसना हमें खूब आता है। अपने छोटे से स्वार्थ के लिए इस बड़े देश की अस्मिता और आन के साथ मत खेलो। किसी देश की प्रगति को जितना खतरा युद्घ से नहीं होता उससे ज्यादा गृहयुद्घ से होता है। अपने लोग हुज्जत करने के लिए इज्जत करने के लिए होते हैं। वे सकपका गए थे, मैंने बिना पलक झपकाए उनकी आँख में आँख गड़ाकर कहा- रात के 12 बज गये हैं, मैं अब सोना चाहता हूँ, इसलिए फटाफट अपनी ये दुकान बंद करो-खबरदार यदि सुबह सात बजे तक तुम्हारी अहा, ओहो, अच्छा, हम्म सुनाई पड़ी तो फिर आवाज निकालने लायक नहीं बचोगे। उन्होंने बेहद फुर्ती से दो मिनिट में अपना सारा सामान पैक किया और दुबक के सो गए, यहाँ तक कि उन्होंने मेरी शुभरात्रि का भी जवाब नहीं दिया। सुबह सात बजे जब मैं उठा तो पाया कूपे में- मैं अकेला था। रेल अटेंडेंट ने बताया कि मोटे साहब तो रात दो बजे ही भुसावल में उतर लिए। पता नहीं क्यों मुझे अचानक सुंदरकांड की ये पंक्तियाँ याद आ गईं
‘गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।  तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा’
और कल के वार्तालाप से पैदा हुआ मेरा सारा विषाद समाप्त हो गया। मैं ये सोच के मुस्कुरा दिया कि हनुमान जी महाराज तो चिरंजीवी हैं उनके रहते हुए हम भारतवासियों की किसी भी प्रकार के अनिष्ट की प्रत्येक शंका बेमानी है। क्योंकि जहाँ रामभक्त हनुमान हैं वहाँ प्रभु श्री राम का होना निश्चित है। श्रीराम तो अयोध्यापति हैं इसलिए हमारा पूरा देश ही नहीं हमारी देह भी अयोध्या है, अयोध्या यानि जहाँ युद्घ नहीं होता। अब मैं धड़धड़ाती हुई ट्रेन से अपने गंतव्य की ओर मैं निश्चिन्त होकर बढ़ रहा था। 

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