दस्तक-विशेषस्तम्भ

आपातकाल : आगे की कथा

आपातकाल। स्वातंत्र्योत्तर भारतीय इतिहास का संक्रमण काल। एक निरंकुश सत्तालोलुप शासक द्वारा लोकतंत्र पर कुठाराघात और अधिनायकवादी व्यवस्था थोपने का काल। लाखों निरपराध नागरिकों के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया या उपचार के अनिश्चितकाल तक कारागार में बन्द होने का काल। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्पूर्ण दमन का काल। 25 जून को आपातकाल थोपे जाने के दिन की सालगिरह है। इस महत्वपूर्ण अवसर पर आपातकाल के समय लगभग सोलह महीने तक कारागार में बंद रहे तब उन्नीस वर्ष के युवक और अब युनाइटेड किंगडम में एक वरिष्ठ गैस्ट्रोएंटरलॉजिस्ट के पद पर कार्यरत डॉक्टर प्रदीप सिंह की कलम से उनकी आँखों देखी कहानी की दूसरी किश्त, उस काले समय का एक प्रमाणिक दस्तावेज। हम चाहते हैं कि इतिहास के पन्नों पर जो ठीक से दर्ज न हुआ उससे भी आप रूबरू हों।

डॉ. प्रदीप सिंह

पुलिस हमें कला संकाय के भवन से नीचे ले आई, हमारे हाथों में हथकड़ियाँ डालीं और छात्र कांग्रेस के नेता के नेतृत्व में अपनी गाड़ी में बिठाकर हमें लंका पुलिस चौकी की तरफ ले चली। हमारे पीछे ‘लोकनायक जयप्रकाश जिन्दाबाद’ का नारा गूँजता रहा। लंका थाने में कुछ कागज पत्तर का काम हुआ और फिर थोड़ी देर में हमें भेलूपुर थाने ले जाया गया। वहाँ हमें रात भर लॉकअप में रखा गया- अलग अलग। मेरे लॉकअप में एक और कोई बीमार मरियल सा कैदी था। बस हल्की सी याद है। यादें अब धुँधली पड़ती जा रहीं हैं। इतना याद है कि रात को थानेदार ने – नागेन्द्र सिंह या कुछ ऐसा ही नाम था उनका, मुझसे और मेरे साथियों से अलग-अलग पूछताछ की। नागेन्द्र सिंह का उन दिनों बनारस में बड़ा रुतबा था। कर्मठ व्यक्ति थे, हाथ पाँव तोड़ने की कला में उन्हें विशेष दक्षता हासिल थी। अपनी दक्षता का पूरा परिचय तो नहीं दिया, ठीक से आभास जरूर करवाया। हमारे साथी कौन हैं, कहाँ हैं वगैरह-वगैरह, और हाथ-पाँव टूटने और बिजली के झटके से होने वाले अनुभवों का विस्तार से परिचय दिया और एक-दो घंटे बाद हमें छोड़ बेचारे अपनी पत्नी बच्चों के पास चले गए, पारिवारिक आदमी थे। रात भर हम उसी लॉकअप में रहे। सुबह सिंह साहब से ऊँची पोस्ट वाले कोई डीएसपी या एसपी आए, शायद कोई त्रिवेदी। ब्राह्मण आदमी, दयालु और धर्मभीरु। उन्होंने नागेन्द्र सिंह को उनकी अनुपस्थिति में बड़ी गालियाँ सुनाई – निर्मोही है, बड़ी बेरहमी से हाथ पाँव तोड़ता है आदि। माँ-बाप ने तुम्हें पढ़ने-लिखने के लिए भेजा था, क्यों पड़ गए इंदिरा गांधी के विरोध के चक्कर में, अब भोगो, कौन बचाएगा नागेन्द्र से तुम्हें आदि-आदि । फिर बाद में हमें पुलिस गाड़ी में जिला कचहरी ले जाया गया, वहाँ बाहर काफी प्रतीक्षा के बाद हमारा नंबर आया, हम कटघरे में खड़े किए गए। पुलिस वालों ने मजिस्ट्रेट को हमारी बेहूदा कारस्तानियों के बारे में कुछ बताया, मजिस्ट्रेट ने सिर-विर हिलाया, हमारी समझ में कुछ नहीं आया। हमें गाड़ी में दुबारा बिठा दिया गया। थोड़ी देर में हमें जिला जेल का द्वार दिखा, हमने मुक्ति की साँस ली क्योंकि जेल में नागेन्द्र सिंह तो नहीं होते न मारपीट करने के लिए। वहाँ हमारे जैसे बहुत से लोग थे, राजनैतिक बंदी। हमें तो बस मजा आ गया।
बनारस जिला जेल में भारी भीड़ थी। भाँति-भाँति के जीव एकत्रित थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग, समाजवादी, इक्का-दुक्का माक्र्सवादी, गैर राजनीतिक गलती से पकड़े गए लोग। अक्सर संघ वालों और समाजवादियों में गरमागरम बहस होती। हम तीन सत्याग्रही एक ही बड़ी बैरक में थे। शुरू जाड़ों के दिन थे। बड़ा गुलजार माहौल था। मेरे ऊपर भारत रक्षा अधिनियम के तहत चार मुकदमे दायर थे। एक मुकदमे के अनुसार मैं रात के अंधेरे में रेल की पटरियाँ उखाड़ता देखा गया था। दूसरे के मुताबिक मैं बिजली के खम्भे उखाड़ रहा था। तीसरे के मुताबिक मैंने पुलिसवालों को भारत सरकार के आदेशों की अवहेलना करने और विद्रोह के लिए उकसाया था। चौथा भी ऐसे ही कुछ था, अब याद नहीं है। कुछ इसी तरह के मुकदमे मेरे साथियों पर भी दायर हुए थे। इन सारे मुकदमों में छित्तूपुर (विश्वविद्यालय परिसर के ठीक पीछे एक गाँव) के चार मुसहर गवाह थे। ये गवाह हर गैरकानूनी वारदात के समय आसमानी भूतों की तरह तुरंत पहुँच जाते थे और पुलिस के काम में हाथ बँटाते थे। इन मुकदमों में जमानत का प्रावधान था।
बाबूजी भभुआ से आ गए और उन्होंने वकीलों और कचहरी के चक्कर लगाने शरू किए। उस समय बनारस में एक माक्र्सवादी (सीपीएम के, सीपीआई के नहीं) वकील थे जिन्होंने सारे राजनीतिक कैदियों के मुकदमे, चाहे वे किसी भी विचारधारा से जुड़े हों, अपने हाथों में लिए थे बिना एक पैसा फीस के। हम तीन संघी छात्रों के मुकदमे भी उन्हीं के जिम्मे थे। दुर्भाग्य से मुझे उनका नाम याद नहीं है। बाबूजी ने मुझे बताया कि मेरे और मेरे बाबूजी के संघी होते हुए भी किस प्रेम से उन्होंने उनसे बात की थी और मेरे मुकदमे का काम संभाला था। एक दिन सुबह हम तीनों को और दूसरे बहुत सारे लोगों को पुलिस अपनी गाड़ी में बिठा कर कचहरी ले गई। कोई हफ्ते भर कारागार की दीवारों में कैद आदमी के लिए बाहर की दुनिया कितनी खूबसूरत लगती है, इसका आभास, जो कभी कैद में नहीं रहा, उसके लिए बहुत मुश्किल है। सड़क, पेड़, रिक्शा, ठेला, गाड़ियों के भोंपू – एक अद्भुत रंगीन दुनिया। हम लोग दिन भर हथकड़ी में बँधे कचहरी में रहे। बहुत धीमी गति से चलने वाला किस्सा था। वकघ्ील साहब ने कोई जिरह विरह मजिस्ट्रेट या जज से की। जज साहब मौन शांत भाव से अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। कागजों पर शायद कोई दस्तखत वगैरह किया, कुर्सी से उठे और बिना एक शब्द बोले अपने चैम्बर में चले गए। तब तक शाम हो चली थी। हम लोगों को पुलिस वालों ने गाड़ी में बिठाया और हम जिला जेल वापस लौट आए। अफवाह फैली कि हमें सारे मुकदमों में जमानत मिल गई है। हम सब बड़ी बेताबी से अगले दिन अपनी सम्भावित रिहाई की प्रतीक्षा करने लग गए ।
अगली सुबह बाबूजी काफी लम्बी चौड़ी कवायद और इस अफसर उस अफसर से मिलने के बाद मुझसे मिलने की अनुमति प्राप्त कर जेल आए। और तभी अधिकारी फरमान भी आ गया। हम तीनों की जमानत मंजूर। पर मेरे ऊपर मीसा ठोंक दिया गया था, इसलिए जमानत के बाद भी मैं रिहा नहीं हो सकता था। मेरे दो साथी रिहा कर दिए गए। जिन मित्रों को मीसा का पता न हो, उनके लिए बताता चलूँ कि मीसा में किसी प्रकार की न्यायिक उपचार या सुनवाई का प्रावधान नहीं था। सरकार जिसे चाहे उसे बिना कोई आरोप बताए बंद कर सकती थी, किसी अदालत को या ईश्वर को यह पूछने का भी अधिकार नहीं था कि कैदी के ऊपर आरोप क्या है, कब तक बंद रहेगा, किस कारागार में है या कि जिन्दा है या मुर्दा, या यदि मुर्दा है तो उसकी लाश कहां है। यहाँ विषयान्तर करते हुए थोड़ी सी जिज्ञासा भर है – उस समय महान भारतीय बुद्घिजीवियों की इस प्रावधान के बारे में क्या राय थी? कोई दस दिन मैं बनारस जिला जेल में रहा। सर्दियों के खुशनुमा दिन। जवानी का जोश। पिकनिक सा माहौल। साधारण श्रेणी का कैदी था। राशन वगैरह भिखमंगे जैसा ही था, पर और ढेर सारे मित्रों को राजनीतिक कैदी का सम्मान मिला था, उनका दानापानी बेहतर था। हम मिल बाँटकर खाते थे। गरमागर्म बहसें। विभिन्न विचारधाराओं के लोग पर एक ही कारण और एक ही संघर्ष के कारण एक छत के नीचे। ऊर्जावान, उफनता हुआ माहौल। मुझसे उम्र और अनुभव में बड़े समाजवादी नेता और छात्रसंघ के भूतपूर्व अध्यक्ष मार्कंडेय सिंह (अब स्वर्गीय) से हुई लम्बी वार्ता की अभी भी मेरे मन में मीठी याद है। मैं संघी था और मार्कंडेय सिंह लोहियावादी। पर हमलोग खुले हृदय से वैसी गंभीर बहस कर सकते थे जिसकी अब जगह नहीं बची ।
एक दिन एक सुंदर धूपीली दुपहरी मेरे लिए आई पुलिस की एक गाड़ी और मुझे बताया गया कि चूँकि अब मैं मीसा में था और जिला जेल में मीसा के कैदियों के रहने के लिए उपयुक्त व्यवस्था न थी, इसलिए मेरा तबादला कहीं बड़ी और मेरे जैसों के लिए उचित (!) जगह केन्द्रीय कारागार में होगा। यानी कि मेरी पदोनन्ति। गर्व से मेरा सीना फूला। साथियों को, जिनसे थोड़े ही दिनों में बहुत प्रेम का सम्बन्ध बन गया था, भारी मन से विदाई दी और अपना झोला लेकर गाड़ी में बैठा। परिवार को खबर न थी। खबर का कोई उपाय ही न था। पुलिस की गाड़ी में पीछे मैं अकेला ही बैठा था। धूप, हवा, सड़क, सड़क की भीड़भाड़, गाड़ियों की चिल्लपों – मैंने गौर से देखा, आँखों और दिल में वे दृश्य सँजोए – पता नहीं कब फिर देखने को मिले, न मिले। आधे घंटे में गाड़ी केन्द्रीय कारागार के विशाल दरवाजे पर पहुंची। दरवाजा खुला और मुझे एक दफ्तर में ले जाया गया। वहाँ कुछ कागज पत्तर का काम हुआ। वहीं मैंने देखा मेरी जान-पहचान के समाजवादी कार्यकर्ता अशोक पाण्डेय को अनुशासनहीनता के दंड स्वरूप हाथों में हथकड़ियाँ और पाँवों में बेड़ियाँ पहने एक कोने में बैठे हुए।
अब कहाँ छोटा सा जिला जेल और कहाँ इतना बड़ा केन्द्रीय कारागार का पसरा हुआ परिसर। एक पक्का (पक्का की परिभाषा बाद में) आया और मुझे ले चला मेरे गन्तव्य पर। मुझे लगता है वहाँ तक चलकर पहुँचने में कोई पन्द्रह मिनट तो लग ही गए होंगे। सुनसान दुपहरी। एक आदमी नहीं दिखा जबतक कि मैं अपनी जगह नहीं पहुँचा। और मेरी जगह थी एक बन्द कोठरी। मुझे तन्हाई (उसे यही कह कर बुलाते थे) में रखने का आदेश था। कारागार के अहाते के अन्दर एक और हाता। उस हाते के अन्दर एक पंक्ति में कोई दस बारह कोठरियाँ। आसमान सी ऊंची चहारदीवारी से घिरा हाता। थोड़ी सी जगह बाहर – लेकिन सिर्फ दिन के समय। घुसते ही मेरा भव्य स्वागत हुआ – आइए नेताजी के स्वर के साथ। असल में वहाँ के सारे कैदी कोफेपोसा (तस्करी और विदेशी मुद्रा के धंधे के बारे में कानून) के तहत बन्द छोटे-मोटे तस्कर थे। उन्हें लगता था कि मेरे जैसे ‘नेताओं’ ने इंदिरा गांधी को चिढ़ाया, इंदिरा गांधी इससे नाराज हुईं और इस चपेटे में व्यापारी भी बंद हो गए। गेहूँ के संग बेचारा घुन पिसा। इसलिए वे लोग मुझ जैसों को अपनी इस हालत के लिए जिम्मेदार मानते थे और राजनीतिक लोगों से बहुत चिढ़ते थे। मैं वहाँ अकेला राजनीतिक शख्स था। मैं शेर की मांद में घुसा उपहास का पात्र निरीह स्कूली लड़के की मानिंद था।
दोपहर के कोई तीन बजे होंगे। मैं तन्हाई वाले बैरक में ले जाया गया। अब याद नहीं है ठीक से पर मेरे पास शायद एक दो कपड़े, तौलिया आदि रहे होंगे और एक आध किताब। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में बताया था – आइये नेता जी, आइए नेताजी के मजाक उड़ाते नारों से मेरा भव्य स्वागत हुआ। वहाँ कोई पन्द्रह तन्हाई की कोठरियाँ थीं। इन कोठरियों में कोफेपोसा के तहत छोटे-मोटे टुटपुंजिया व्यापारी या तस्कर बन्द थे। उन बेचारों का कारावास भी मीसा में बन्द राजनीतिक कैदियों की तरह ही था। किसी अपील का कोई प्रावधान न था, बन्द रहने की अवधि की कोई सीमा न थी। ये छोटे लोग थे। अपने धंधे पानी में लगे थे। पत्नी और बच्चों का भार उनके कंधों पर था। उन्हें लोकतंत्र और तानाशाही, इंदिरा और जयप्रकाश में दिलचस्पी न थी। ये कोई मोटे असामी न थे। अधिकांश की शिक्षा बहुत सीमित थी। बेचारे चपेटे में आ गए थे। और उनकी समझ यह थी कि मेरे जैसे ‘नेताओं’ ने इंदिरा गांधी को तंग किया और गुस्से में आकर इंदिरा ने सबको बन्द कर दिया और इसी चपेटे में वे मासूम लोग फँस गए। इस तर्क की दृष्टि से मेरे जैसे ‘नेता’ उनके गुनहगार थे। अब आप मेरी स्थिति की कल्पना करें। इतने बड़े कारागार के अंदर यह ऊंची दीवारों से घिरा छोटा कारागार और उसमें पन्द्रह कमरों में से चौदह में पहले से ही रह रहे इस तरह के बड़ी उम्र के कैदी और उनके बीच उन्नीस वर्ष का एक अकेला नवागंतुक ‘नेता’। मेरी हालत वही थी जो मेडिकल स्कूल में गलती से छात्रावास में फँस गए नये-नये मेडिकल छात्र की सीनियरों के बीच होती है या होती थी।
जाड़ों के दिन थे। दिन में तो मौसम खुशगवार था और हाते के अंदर अपनी कोठरी के बाहर बैठने की इजाजत थी। पर शाम के पाँच बचे कैदियों को अपनी अपनी कोठरियों में जाना होता था और संतरी (पक्का) बाहर से दरवाजा बंद कर देता था। दरवाजा क्या था एक ग्रिल सा था। बाहर से सब कुछ दिखता था। कोठरी के अंदर एक कंबल होता था या दो, मुझे अब याद नहीं है। बहुत घिसा हुआ सदियों से इस्तेमाल हुआ खटमली कम्बल आपका ओढ़ना बिछौना था। कोई खाट वाट नहीं थी। फर्श पर ही लेटना होता था। कोठरी में एक किनारे दो तीन ईंटों से घिरी एक छोटी सी जगह थी जिसमें आप रात को नित्यक्रिया कर सकते थे। अब याद नहीं है कि कोठरी में बाल्टी थी कि नहीं। लेकिन कैदियों ने अपने इन्तजाम कर रखे थे। कोठरी बन्द होने के पहले बाहर के शौचालय में टट्टी पेशाब पहले ही कर लेते थे जिससे रात में तलब लगने का खतरा कम हो जाय। पानी वानी भी जरा कम पीते थे बन्द होने के पहले। धार्मिक साहित्य पर कारागार में बहुत जोर था। आपको कल्याण की एक प्रति मिलती थी। लेकिन कोठरी के अंदर कोई रोशनी नहीं थी। दरवाजे के बाहर थोड़ी दूरी पर आपकी पहुँच के बाहर एक लालटेन होती थी जिसकी मद्घिम-मद्घिम घटती बढ़ती, जलती बुझती रोशनी में आप पढ़ने का प्रयास कर सकते थे। लालटेन इसलिए कैदी की पहुँच से दूर रखी जाती थी कि कहीं कोई पागल कैदी आत्महत्या का प्रयास न करे । कम्बल से ठंढ से थोडा बचाव जरूर हो सकता था। फिर एक दो दिन में आदत पड़ जाती थी। रातें बहुत लम्बी थीं। शाम को पाँच बजे से सुबह सात बजे तक कोठरी में बन्द रहना होता था। सुबह सात बजे कोठरी खुलती और आपको बाहर (बहुत ही छोटा सा ऊंची ऊंची दीवारों से घिरा हाता) की धूप हवा और अपने साथियों के दर्शन होते। चाँपा कल जैसी कोई चीज थी जिससे लोटे में पानी भर कर जो दो तीन शौचालय थे जिन्हें आप बारी-बारी से प्रयोग करने का लाभ उठा सकते थे।
(क्रमश:) …

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