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इतने गुस्से में क्यों हैं लोग?

letter copyयह कितना निर्मम समय है कि लोग इतने गुस्से से भरे हुए हैं। दिल्ली में डा. पंकज नारंग की जिस तरह पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी, वह बात बताती है कि हम कैसा समाज बना रहे हैं। साधारण से वाद-विवाद का ऐसा रूप धारण कर लेना चिंता में डालता है। लोगों में जैसी अधीरता, गुस्सा और तुरंत प्रतिक्रिया देने का अंदाज बढ़ रहा है वह बताता है कि, हमारे समाज को एक गंभीर इलाज की जरूरत है। सोचना यह भी जरूरी है कि क्या कानून का कोई खौफ लोगों के भीतर बचा है या अब सब कानून को हाथ में लेकर खुद ही अपने फैसले करेंगे। एक स्कूटी सवार को रबर गेंद लग जाए और वह नाराजगी में किसी की हत्या कर डाले, यह खबर बताती है कि हम कैसा संवेदनहीन समाज बना रहे हैं। कानून अपने हाथ में लेकर घूमते ये लोग दरअसल भारतीय राज्य और पुलिस के लिए भी एक चुनौती है। गुस्से से भरे लोग क्या यूं ही गुस्से में हैं या उसके कुछ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारण भी हैं। बताया जा रहा है रहा है मारपीट करने वाले लोग बेहद सामान्य परिवारों से हैं और उनमें कुछ बगल की झुग्गी में रहते थे। एक क्षणिक आवेश किस तरह एक बड़ी घटना में बदल जाता है, यह डा. पंकज के साथ हुआ हादसा बताता है। गुस्से और आक्रोश की मिली-जुली यह घटना बताती है लोगों में कानून का खौफ खत्म हो चुका है। लोगों की जाति-धर्म पूछकर व्यवहार करने वाली राजनीति और पुलिस तंत्र से ज्यादातर समाज का भरोसा उठने लगा है। आज यह सवाल पूछना कठिन है, किंतु पूछा जाना चाहिए कि डा. नारंग अगर किसी अल्पसंख्यक वर्ग या दलित वर्ग से होते तो शेष समाज की क्या इतनी सामान्य प्रतिक्रिया होती? इस घटना को मोदी सरकार के विरुद्ध हथियार की तरह पेश किया जाता। इसलिए सामान्य घटनाओं और झड़पों को राजनीतिक रंग देने में जुटी मीडिया और राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना जरूरी है कि एक मनुष्य की मौत पर उनमें समान संवेदना क्यों नहीं है? क्यों वे एक इंसान की मौत को धर्म या जाति के चश्मे से देखते हैं?
डा. नारंग की मौत हमारी इंसानियत के लिए एक चुनौती है और समूची सामाजिक व्यवस्था के लिए एक काला धब्बा है। हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहां सामान्य तरीके से जीने के लिए भी, हमें वहशियों से बचकर चलना होगा। भारत जैसे देश में जहां पड़ोसी के लिए हम कितनी भावनाएं रखते हैं और उसके सुख-दुख में उसके साथ होने की कामना करते हैं। लेकिन यह घटना बताती है कि हमारे पड़ोसी भी कितने हृदयहीन हैं, वे कैसी पशुता से भरे हुए हैं, उनके मन में हमारे लिए कितना जहर है। समाज में फैलती गैरबराबरी ऊंच-नीच, जाति-धर्म और आर्थिक स्थितियों के विभाजन बहुत साफ-साफ जंग की ओर इशारा कर रहे हैं। ये स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, क्योंकि परिवारों में हम बच्चों को अच्छी शिक्षा और दूसरे को सहन करने, साथ लेने की आदतें नहीं विकसित कर रहे हैं। एकल परिवारों में बच्चों की हर जिद का पूरा होना जरूरी है और वहीं सामान्य परिवारों के बच्चे तमाम अभावों के चलते एक प्रतिहिंसा के भाव से भर रहे हैं। एक को सब चाहिए दूसरे को कुछ मिल नहीं रहा है-ये दोनों ही अतियां गलत हैं। समाज में संयम का बांध टूटता दिख रहा है। तेजी से बढ़ती आबादी, सिमटते संसाधन, उपभोग की बढ़ती भूख, बाजारीकरण और बिखरते परिवारों ने एक ऐसे युवा का सृजन किया है जो गुस्से में है और संस्कारों से मुक्त है। संस्कारहीनता और गुस्से का संयोग इस संकट को गहरा कर रहा है। -संजय द्विवेदी, भोपाल

वर्गवादी तथा परिवारवादी संगठन
यूपी में समाजवादी पार्टी ने चुनावी शंखनाद कर दिया है। वैसे उसका पूरा कार्यकाल ही वोटों के समीकरण को पुष्ट करने के लिए रहा है। पर, इस बार पार्टी के लिए चुनाव बहुत अधिक सरल नहीं होंगे। जनता ने बहुजन समाज पार्टी के शासन में भ्रष्टाचार तथा उसके नेताओं के सामाजिक कटुता पैदा करने वाले बयानों से नाराज होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया था लेकिन सपा सरकार लोगों की इच्छाओं को पूरा नहीं कर पायी है। समाजवादी पार्टी स्वयं को लोहिया का समर्थक कहती है लेकिन उसके आचरण में कहीं भी लोहिया के आदर्श नहीं हैं। वह वर्गवादी तथा परिवारवादी संगठन से अधिक कुछ नहीं है। आम जनता को शिकायत है कि सपा वर्ग विशेष के लिए ही कार्य करती है। उसने सर्व समाज को दृष्टि में रखकर कोई काम नहीं किया है। सपा के शासनकाल में साम्प्रदायिक उपद्रव हुए हैं। समाज के एक वर्ग के धार्मिक कार्यक्रमों पर भी तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए गए हैं। चार साल पहले उत्तर प्रदेश में समाजवादी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था। प्रदेश में युवा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव ने पद की शपथ ली थी। सपा की जीत में मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा हाथ था। उनको तरह-तरह के स्वप्न भी दिखाए गए। धर्म के आधार पर संविधान में आरक्षण का प्रावधान ही नहीं है। फिर भी समाजवादी पार्टी ने लोगों को बहकाने का काम किया। जो भी राजनीतिक दल धर्म के आधार पर आरक्षण की बात करते हैं, वे देश की साम्प्रदायिक स्थिति को खराब करने का प्रयास करते हैं।
-आलोक शर्मा, मेरठ

जल विवादों का शीघ्र समाधान हो
कृषि प्रधान देश भारत में इस समय खेती के लिए सिंचाई व्यवस्था की कमी है लेकिन विभिन्न राज्यों के आपसी विवाद के कारण जल समस्या पैदा हो गई है। तमिलनाडु तथा कर्नाटक में कई दशकों से जल विवाद है। यही स्थिति पंजाब तथा हरियाणा की है। जल विवाद को लेकर पंजाब और हरियाणा आमने-सामने हैं। सतलज-जमुना लिंक नहर को लेकर पंजाब और हरियाणा की राजनीति अजीबोगरीब स्थिति में पहुंच गयी है। पंजाब में अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और बादल सरकार की विदाई निश्चित लग रही है। ऐसे में बादल ने सरकार से रूठे हुए ग्रामीणों और किसानों को नहर की जमीनें भर कर वापस करनी शुरू कर दी है। इस बाबत विधानसभा में बिल भी पास हो चुका है। बिना राज्यपाल की मंजूरी के किसानों को आनन-ज़नन में जमीन पर कब्जा देना भी शुरू कर दिया गया है। इस मामले में अकाली दल, भाजपा, कांग्रेस और आप पार्टी के नेताओं को यह सूझ नहीं रहा है कि वे इस फैसले का स्वागत करें या विरोध? इन राज्यों का जल विवाद नया नहीं है। यह पूर्व की कांग्रेस सरकारों की गलती रही है लेकिन लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि इस समय विवाद के कारण नदियों के जल का प्रयोग नहीं हो पा रहा है। यदि समस्या का समाधान निकल जाता है तो किसानों को ही लाभ होगा। भले की पानी कम मिले या अधिक। कुछ खेतों को तो पानी मिलेगा ही। सरकारों को चाहिए कि किसानों के हितों में जल विवादों का शीघ्र समाधान खोजा जाए।
-किरन कौर, पंजाबी बाग-नई दिल्ली

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