दस्तक-विशेषस्तम्भ

उत्कृष्ट जीवन मूल्य ही नहीं, मनुष्य की स्वाभाविक प्यास भी है स्वतंत्रता

सजग होकर ही उड़ना हमेशा होता है आनंददायी 

-हृदयनारायण दीक्षित

मनुष्य स्वेच्छा से जन्म नहीं लेता। मनुष्य का जन्म तमाम ज्ञात और अज्ञात परिस्थितियों का परिणाम होता है। भारतीय चिंतन में प्रकृति में पांच महाभूत बताए गए हैं। सृष्टि का विकास सूक्ष्म से स्थूल की ओर होता है। पांच महाभूतों में आकाश सूक्ष्मतम है। यह दिखाई नहीं पड़ता। उपनिषद्ों और गीता में संसार को उल्टे वृक्ष के रूपक में समझाया गया है। इस वृक्ष की जड़ें ऊपर ‘ऊर्ध्व मूलो’ बहुत ऊपर है। पत्तियां और फलफूल नीचे की ओर विकासमान हैं। हम सबकी जड़े आकाश में हैं। हम आकाश से जुड़े हैं, आकाश हमारा मूल है। अवतार की धारणा अवतरण से आई है। दिव्य चेतना आकाश से नीचे धरती पर आती है तो अवतार। विष्णु के अनेक अवतार बताए गए हैं। विष्णु ही क्यों हम सब भी अवतरित होते हैं, परम व्योम में हमारी जड़े हैं। हम वहीं से आते हैं, यहां विकसित होते हैं। हमारे अंतःकरण का एक भाग पहले से ही निर्मित होता है। पश्चिम के दार्शनिकों की भाषा में कहें तो अंतःकरण का महत्वपूर्ण भाग ‘इन बिल्ट’ होता है। हम जन्म पाते हैं। तमाम शक्तियां हमारी निर्मिति करती हैं। हम बड़े होते हैं। सामाजिक वातावरण संस्कार देता है। इसलिए मनुष्य की प्रतिष्ठा सदा उसका ही अर्जन नहीं होती।

यहां मनुष्य के संभवन अथवा होने का सामान्य विवेचन है लेकिन मनुष्य जीवन के रहस्यों का सरलीकृत वर्णन संभव नहीं है। हम काल विशेष में जन्म लेते हैं, स्थान विशेष में होते हैं। काल हमको सब तरफ से आच्छादित करता है। बाहर से और भीतर से भी। स्थान विशेष की परिस्थितियां भी हमारे होने और विकसित होने में प्रभाव डालती हैं। मनुष्य बेशक प्रकृति का अंग है लेकिन प्रकृति की तमाम शक्तियों से मनुष्य के अन्तर्विरोध भी हैं। इसी तरह मनुष्य समाज का अंग है। समाज से भी उसके अन्तर्विरोध हैं। वह किसी राष्ट्र राज्य का निवासी होता है। राष्ट्र राज्य से भी उसके अन्तर्विरोध स्वाभाविक है। मनुष्य स्वाभाविक रूप में स्वतंत्र रहना चाहता है। प्रकृति ऐसा अवसर देती है लेकिन प्राकृतिक बाधाएं अन्तर्विरोध को जन्म देती हैं। समाज और राष्ट्र राज्य भी स्वतंत्रता बाधित करते हैं। मनुष्य के सामने विकल्प दो ही हैं। पहला कि वह प्रकृति, समाज और राष्ट्र राज्य जैसी परिस्थितियों के अनुसार अपना अनुकूलन करे। नदी की धारा के अनुसार ही बहे। दूसरा विकल्प है कि वह सभी अन्तर्विरोधों से टकराए, समाज व्यवस्था के साथ ही राजव्यवस्था में भी हस्तक्षेप करे। समाज को स्वतंत्रचेता बनाए। स्वतंत्रता उत्कृष्ट जीवन मूल्य ही नहीं मनुष्य की स्वाभाविक प्यास भी है।परवर्ती भारतीय चिन्तन में ‘मोक्ष’ की धारणा है। कौटिल्य और वात्स्यायन आदि महानुभावों ने धर्म, अर्थ और काम सहित तीन पुरूषार्थो की ही चर्चा है। स्वतंत्रता की भूख वस्तुतः सांसारिक परिस्थितियों की ही उपज है। इसीलिए देश काल के अनुसार इसकी मांग भिन्न भिन्न होती है।

मोक्ष स्वतंत्रता का ही चरम है। मोक्ष असाधारण स्वतंत्रता है। पूर्ण स्वतंत्रता में भी हम कम से कम अपने बंधन में तो रहते ही हैं और स्वयं के बंधन में रहना भी स्वतंत्रता को पूर्ण नहीं होने देता। राज समाज तमाम बंधन लगाते हैं। भारत में स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है लेकिन दिक्-काल स्वतंत्र नहीं होने देता। कालपाश बांधे रखता है। संभवतः इसीलिए भारतीय चिन्तकों को स्वतंत्रता से ही संतोष नहीं हुआ। इसीलिए मुक्ति या मोक्ष की अवधारणा का विकास हुआ। पतंजलि प्रख्यात योग विज्ञानी थे। उन्होंने परम स्वतंत्रता को कैवल्य कहा और बुद्ध ने निर्वाण। मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य या निर्वाण परम और परिपूर्ण स्वतंत्रता के ही बोधक हैं। तब ज्ञाता ज्ञान हो जाता है। विद्यार्थी विद्या बन जाता है और ब्रह्मविद् ब्रह्म। लेकिन यह सामान्य विचार नहीं है। विपरीत परिस्थिति और अन्तर्विरोध के संवेदन अन्तःकरण पर पड़ते हैं। यहां विचार जन्म लेते हैं, विचार तरंग होते हैं। उनके वैकल्पिक विचार भी उगते हैं। अपनी मनपसंद के विचार को पकड़कर संघर्ष करने का अपना आनंद है। इसलिए भी कि विचार का चयन हमने ही किया है।

यह विचार हमसे पहले जन्मे किसी अग्रज या वरिष्ठ द्वारा अनुभूत हो सकता है और नहीं भी। देखा यही जाता है कि हमारे द्वारा अपनाए गए विचार के प्रति हमारी निष्ठा क्या है? क्या हम अपने विचार को माने जाने की अपेक्षा दूसरों से तो करते हैं लेकिन स्वयं अपने विचार के प्रति धु्रव निश्चयी नहीं हैं। यह भी कि हम विपरीत परिस्थितियों में अपने विचार को शिथिल तो नहीं कर देते। स्वयं आत्म समर्पण और दूसरों से मर मिटने की अपेक्षा उचित नहीं। समाज और राज्य व्यवस्था से अनुकूलन या उनके सामने आत्मसमर्पण की बात अलग है। इतिहास ऐसे लोगों को महत्व नहीं देता। परिस्थितियां मनुष्य को प्रभावित करती हैं। इतिहास परिस्थितियों को बदलने वाले महानुभावों की ओर आकर्षित होता है। भारतीय पुराण साहित्य का बड़ा भाग इतिहास है। दिनांक रहित विवरण। पुराणकारों ने तिथि समय को कम महत्व दिया और निष्ठा को ज्यादा।भारत के आधुनिक काल के इतिहास में राज समाज की परिस्थितियों से टकराने वाले महानुभावों की सूची बड़ी है। महात्मा गांधी ने इतिहास की धारा में ऐतिहासिक हस्तक्षेप किया था। उनके विचार और कर्म से असहमत होने वाले भी बहुत लोग हैं, होने भी चाहिए। लेकिन उनके ध्येय और सत्य आग्रह से असहमत नहीं हुआ जा सकता।

इसके पहले विवेकानंद दयानंद के नाम भी महत्वपूर्ण हैं। दयानंद ने भारतीय आस्था के तमाम ग्रंथों को ध्येयमूलक चुनौती दी थी। वे वैदिक साहित्य के आधार पर समाज का पुनर्गठन चाहते थे। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन को विश्वव्यापी प्रतिष्ठा दिलाई। दक्षिण भारत के अनेक संतो विचारकों ने अपने दृष्टिकोण से समाज की जड़ता को तोड़ने की कोशिश की थी। डॉ0 अम्बेडकर ने सामाजिक भेदभाव पर तथ्यपरक आक्रमण किया था। तिलक और विपिन चन्द्र पाल जैसे महानुभावों ने भारतीय जनमानस में अद्भुत जनजागरण किया था। स्वाधीनता संग्राम में सारा देश लड़ा था। स्वतंत्र होने की राष्ट्र की सामूहिक इच्छा के निर्माण में अनेक साधकों की शक्ति लगी थी। स्वतंत्रता के बाद भारत निर्माण का काम और भी चुनौती पूर्ण था। तमाम संस्थाएं गढ़ना और संस्थाओं को गतिशील रखना आसान काम नहीं था। 2017 का भारत ऐसे ही लाखों पूर्वजों के सचेत कर्म की उपलब्धि है। ऐसे शुभ्र पक्ष के साथ तमाम कृष्ण पक्ष भी हैं। राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान की चुनौती बड़ी है। इतिहास आलस्य नहीं करता। वह आलसी लोगों की उपेक्षा भी नहीं करता। वह जीवन मूल्यों के साथ धोखाधड़ी करने वालों को क्षमा भी नहीं करता। सामान्यतया इतिहास दोहराव नहीं करता। वैसे शुभ्र पक्ष का दोहराव स्वाभाविक सामाजिक इच्छा होती है।

हम भारतवासी प्रायः अतीत दोहराव की उमंग में रहते हैं लेकिन इतिहास का चरित्र ऐसा नहीं होता। प्रथम तो वह दोहराव नहीं करता और करता भी है तो वह आपदाओं को ही दोहराता है। वह अतीत की गल्ती से न सीखने की सजा अवश्य सुनाता है। इसलिए वास्तविक इतिहास बोध वाले समाज ही दीर्घजीवी होते हैं। शेष को काल अपना खाद्य बना लेता है। स्वतंत्रता दिवस जैसे पर्व इतिहासबोध से ही जुड़े हैं। ऐसे अवसरों पर सुदूर अतीत या निकट अतीत की गल्तियों का पाठ पुनर्पाठ किया जाना ही ज्यादा उचित होता है। वह भी निराशभाव से नहीं, आशा आस्तिकता के पंख लगाकर ही उड़ना सही होता है। सजग होकर ही उड़ना हमेशा आनंददायी होता है। साधारण चित्त की उड़ान हमेशा खतरों से भरी होती है। 

(लेखक उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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