दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

ऋग्वेद में अग्नि उपासना

हृदयनारायण दीक्षित : अग्नि ऋग्वेद के प्रतिष्ठित देवता हैं। ऋग्वेद के मंत्रोदय के पहले से ही भारत के लोग अग्नि उपयोग व तत्वदर्शन से सुपरिचित थे। वैदिक ऋषियों ने अग्नि की सर्वव्यापकता और सर्वसमुपस्थिति का साक्षात्कार किया था। वैदिक साहित्य के विद्वान डाॅ. कपिल देव द्विवेदी ने वेदों में अग्नि उल्लेख के 2483 मंत्र बताये हैं। ऋग्वेद में अग्नि सम्बंधी 200 सूक्त हैं। भारत के प्रत्येक मंगलकार्य में अग्नि की उपस्थिति है। भारतीय विवाह सारी दुनिया में अतिविशिष्ट संस्कार हैं। वर और कन्या आजीवन साथ साथ रहने की शपथ लेते हैं। अग्नि को साक्षी जानकर परस्पर प्रीति युक्त जीवन का संकल्प लेते हैं। विवाह संस्कार के साक्षी बनते हैं अग्नि। दुनिया के किसी भी पंथ, रिलीजन, मजहब में अग्नि की ऐसी प्रीतिपूर्ण श्रद्धायुक्त उपासना नहीं है लेकिन ऋग्वेद में अग्नि श्रद्धेय देवता हैं। भारतीय पंच महाभूतों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में एक हैं। वे ऋग्वेद के बाद यजुर्वेद सहित चारों वेदों के मंत्रों में प्रत्यक्ष हैं। उपनिषदों में भी अग्नि उपासना के गीत हैं। ऋग्वेद की अग्नि उपासक परंपरा भारतीय धर्म के प्रत्येक कर्मकाण्ड में उपस्थित हैं और धार्मिक कर्मकाण्ड का भाग भी है। आदिम मनुष्य अग्नि से परिचित नहीं था। अमेरिकी वैज्ञानिक असीमोव के अनुसार मनुष्य ने आग का उपयोग लगभग 10 लाख वर्ष पहले सीखा था। उनके अनुसार मनुष्य ने जंगल में लगी आग देखी, वहां से वे उसे अपने उपयोग के लिए लाए। वे उसे घरों में जलाए रखते थे। ऋग्वेद में लकड़ी की डालों को ‘अरणि’ कहा गया है। अग्नि का जन्म अरणि के संघर्षण से हुआ। ऋग्वेद (1.31.2) में कहते हैं, “काष्ठ लकड़ियां – अरणिं अग्नि की माताएं हैं।” वैदिक ऋषियों के सूक्त मंत्रों की अपनी शैली है। वे अरणियों को उचित ही अग्नि की माताएं कहते हैं। अरणि के भीतर अग्नि पहले से है। एक मंत्र में (1.70.2 व 3) कहते हैं कि अग्नि वनों के भीतर हैं – गर्भों वनानां। वे पानी के भीतर भी हैं – गर्भो यो अपाम्”। यहां प्रत्यक्ष भौतिक विज्ञान है और अरणि व अग्नि के बीच मां संतति के रिश्ते हैं।
अग्नि सदा से हैं लेकिन आदिम मनुष्य अग्नि से अपरिचित थे। बाद में अग्नि की खोज मनुष्य ने ही की। अग्नि की खोज व प्राप्ति मनुष्य की कर्मठता का परिणाम है। ऋग्वेद के 7वें मण्डल के प्रथम सूक्त प्रथम मंत्र में यही बात कही गई है, “नर श्रेष्ठों ने अग्नि को अपने हांथो व उंगलियों की कुशलता से पाया।” यहां हाथ व उंगली कर्मठता के प्रतीक हैं। मनु वैदिक ऋषियों के पूर्वज अग्रज हैं। एक मंत्र (7.2.3) में उल्लेख है कि “मानवहित में मनु ने अग्नि को सदा के लिए प्रतिष्ठित किया।” अग्नि देवता हैं लेकिन ऋग्वेद (1.60.3) के अनुसार “मनुष्य अग्नि उत्पन्न करते हैं।” यहां मनुष्यों द्वारा देवता उत्पन्न किए जाने की प्रेमपूर्ण घोषणा है। ऋग्वेद का प्रथम मंत्र अग्नि की स्तुति है। यह अग्नि स्तुति से ही प्रारम्भ होता है। इसी तरह ऋग्वेद के अंतिम सूक्त भी अग्नि की ही स्तुति हैं।
अग्नि भूख पैदा करती है। अन्न पाचन से सम्बन्धित अग्नि जठराग्नि है। बोलने की शक्ति भी अग्नि की है। वाक्शक्ति मूलतः अग्नि शक्ति है। अग्नि सर्वत्रव्यापी शक्ति है। ऋग्वेद के ऋषियों ने उनका सुंदर मानवीकरण भी किया है। वैदिक समाज में विद्वानों की प्रतिष्ठा है। कवियों का सम्मान होता है। ऋषि अग्नि को भी ‘कवि और विद्वान’ बताते हैं। (3.9.1) मनुष्य के कर्म का उपकरण हाथ हैं। अग्नि के हाथ मधुर हैं। (5.5.2) अग्नि कवि हैं, वैदिक कवि ऋषि हैं। अग्नि भी ऋषि कहे गए हैं। (3.2.8) मनुष्य को घृत या घी प्रिय है। ऋग्वेद के अनुसार अग्नि भी घृत के इच्छुक रहते हैं। (2.3.11) वैदिक कवि ऋषि अग्नि को देवता, दाता विधाता मानते हैं लेकिन मनुष्यों जैसा प्रेम भी करते हैं। इसलिए अग्नि स्तुतिकत्र्ता के पुत्र भी हैं। ऋषि उनसे कहते हैं कि आप हमारे पुत्र भी हैं – त्वं पुत्रो भवसि। (2.1.9)


अग्नि आकाश में हैं। सूर्य का मूल अग्नि हैं। अंतरिक्ष में वे विद्युत हैं। पृथ्वी पर वे हैं ही। यज्ञ कर्म में वे ही सारा दायित्व निभाते हैं। अनेक दार्शनिक मंत्रों में वे ही यजमान व पुरोहित भी हैं। अग्नि का तेज ताप कल्याणकारी है। वे यज्ञ में भिन्न भिन्न देवों को दी गई आहुतियां उन-उन देवों तक पहुंचाते हैं। अग्नि ने अपने तेज से द्युलोक, अंतरिक्ष और पृथ्वी का भर दिया है। (3.2.7) अग्नि प्रकृति के भीतर हैं, वे बाहर भी प्रकट हैं। ऋग्वेद की अग्नि अनुभूति गहराई से ध्यान देने योग्य है। प्रकृति का संविधान ऋग्वेद में ‘ऋत’ कहा गया है। अग्नि ऋत-नियमों का पालन करते हैं। पालन कराने के प्रेरक भी हैं। ऋग्वेद में अग्नि को ‘ऋतस्य क्षत्ता’ कहा गया है। ऋग्वेद में अग्नि की सर्वव्यापकता है लेकिन मनुष्यों द्वारा अग्नि उत्पन्न करने का उल्लेख विशेष विचारणीय है।
ऋग्वेद में अग्नि उत्पन्न करने व स्थापित करने का श्रेय पूर्वज आर्य अभिजनों को दिया गया है। अग्नि के तमाम उपयोगों का विकास पूर्वज आर्यो ने किया। अग्नि उपयोग से मानव सभ्यता में तमाम परिवर्तन आये। जीवन को सुंदर बनाने के नए आयाम खुले। अग्नि का आविष्कार और शोध भारत भूमि पर हुआ। भारतवासियों ने अग्नि का साक्षात्कार किया। ऋग्वेद में बारंबार अरणि से अग्नि के उद्भव की बाते आती हैं। अग्नि सदुपयोग का ज्ञान विश्व सभ्यता को भारत का उपहार है। प्रत्येक भारतवासी को इस तथ्य पर गर्व करना चाहिए। ऋग्वेद के मंत्र इस के साक्ष्य हैं।
ऋग्वेद के ऋषियों कवियों का अग्निदर्शन उत्तर वैदिक काल में और भी विकसित हुआ उपनिषद् के ऋषियों ने इसे पुष्ट किया। कठोपनिषद् में सुंदर मंत्र में कहा गया है कि अग्नि ही प्रकृति के सभी रूपों में “रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूवः है। यहां अग्नि समूची प्रकृति का मूल तत्व हैं। अग्नि तत्व एक है। उसके अग्नि रूपा तत्व सूर्य, विद्युत आदि हैं लेकिन वही तत्व सभी जीवों, वनस्पतियों, जलों आदि में भी दर्शनीय हैं। भारतीय परंपरा में स्वाभाविक ही अग्नि को अतिरिक्त श्रद्धा मिली है। इस परंपरा का आदि स्रोत ऋग्वेद है। ऋग्वैदिक दर्शन का विस्तार उपनिषदों में है। इस दर्शन की अनेक अनुभूतियां अन्य देशों में पहुंची। दार्शनिक हिराक्लिट्स ने अग्नि को सृष्टि का मूलतत्व बताया था कि विश्व को देवों ने नहीं बनाया। इसे मनुष्यों ने भी नहीं बनाया। वह सदा से था। आज भी है और आगे भी रहेगा। यहां एक चिरंतन अग्नि है। यह परिमाणों में जलती है और परिमाणों में बुझती है।” वे अग्नि के रूपों पर टिप्पणी करते हैं “अग्नि के आवर्तन में पहले समुद्र है। समुद्र का आधा भाग पृथ्वी है। आधा ज्वलनशील विद्युत या अग्नि।” अग्नि ही परिवर्तित होकर जल व पृथ्वी बने। शेष विस्तार भी अग्नि का ही है। हिराक्लिट्स के अग्नि चिंतन की प्रेरणा ऋग्वेद का दर्शन है।

ऋग्वेद में शव दाह का उल्लेख है। एक पूरा सूक्त मृतक और अग्नि पर है। शव को अग्नि को समर्पित किया गया है। अग्नि से स्तुति है कि इस मृत शरीर को धीरे-धीरे जलाएं। इसे कष्ट न हो। इसे स्वयं अपने में समाहित करे। फिर मृतआत्मा से कहते हैं कि तेरी आंखे, आंखो की ज्योति सूर्य से मिले। तेरा प्राण विश्ववायु से मिले। जो अंग जिस दिव्य प्रकृति शक्ति का प्रसाद है, वह उसी प्रकृति शक्ति के पास लौट जाए। हम सबको आंखो की दृष्टि सूर्य से मिली है, हम सूर्य ज्योति में देख पाते हैं। चन्द्रमा भी सूर्य ज्योति का प्रकाश है। प्रकाश का मूल स्रोत अग्नि है। सूर्य का तेजस् भी अग्नि तेज है। संभवतः इसीलिए मृत शरीर को अग्नि को समर्पित करने की परंपरा चली।
अग्नि आराध्य हैं। उपास्य हैं। उपयोगी हैं। संरक्षक हैं। पोषक हैं। पालनकत्र्ता हैं। सर्जक कवि हैं। वाणी का ओजस् तेजस् अग्नि से है। अग्नि तेजस् हैं। प्रकृति की महाशक्ति है। काव्य और लेखन सृजन की शक्ति अग्नि देते हैं। वे स्वयं कवि हैं। वे हमारी स्तुतियां देवों तक ले जाते हैं। ऋग्वेद में अग्नि के अनेक रूप आयाम हैं। प्रत्यक्ष भौतिकवादी रूप अग्नि का उपयोग है। यह मानव सभ्यता के विकास का क्रान्तिकारी चरण है। संवेदनशील चित्त के लिए वे दिव्य, प्रकाशवान दीप्ति हैं। ऋग्वैदिक पूर्वजों के आराध्य उपास्य देवता। उन्हें नमस्कार है।

(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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