ज्ञान भंडार

ऋग्वेद में दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण 

हृदयनारायण दीक्षित : ऋग्वेद विश्वदर्शन का प्रथम उद्भव है। ऋग्वेद के कवि ऋषि सोचने की दार्शनिक दृष्टि के प्रथम अग्रज हैं। वे प्रकृति के गोचर प्रपंचों को ध्यान से देखते हैं। इन प्रपंचो की गति व विधि के प्रति जिज्ञासु होते हैं। वे प्रत्यक्ष को स्वीकार करते हैं लेकिन प्रत्यक्ष देखने से प्राप्त जानकारी पर संतुष्ट नहीं होते। पंथिक, मजहबी या रिलीजियस समाज देवदूतों वाले ज्ञान को अंतिम मानते हैं। पंथ विश्वासी के लिए ऐसा ज्ञान पूर्ण होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए ज्ञान कभी पूर्ण नहीं होता। ऋग्वेद में अनेक विचार है। लेकिन किसी भी ऋषि ने ज्ञान पूर्णता का दावा नहीं किया। ऋग्वेद की केन्द्रीय विचारधारा का मूलतत्व जिज्ञासा है। उपलब्ध ज्ञान को अपर्याप्त समझना ऋग्वेद के ऋषियों की विशेषता है। यहां प्रश्न और जिज्ञासा की प्रकृति प्रवृत्ति प्राचीन काल से ही है। अंधविश्वास की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रकृति के तमाम प्रपंचों को भौतिक गतिविधियों से जांचने की मनोभूमि वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। आधुनिक काल तक विज्ञान काफी समृद्ध हुआ है। प्रयोगशालाओं में तमाम यंत्र हैं लेकिन उपलब्ध वैज्ञानिक निष्कर्ष कभी अंतिम नहीं होते। वैज्ञानिक दृष्टिकोण एक जीवनशैली का भाग है। ऋग्वेद में वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली जीवनशैली का प्रत्यक्ष दर्शन है। यूरोप में ऐसी जीवनशैली 17वीं-18वीं सदी तक भी नहीं थी। प्रकृति की परिवर्तनशीलता का सहज स्वीकार उनकी जीवनशैली में कम था। 
वैज्ञानिक मानसिकता या वैज्ञानिक दृष्टिकोण का बीज जिज्ञासा है। प्रकृति की गतिविधि के प्रत्येक अंश का प्राकृतिक कारण जानने की अभिलाषा है। ऋग्वेद में इस अभिलाषा का वैज्ञानिक प्रवाह है। सबसे बड़ी जिज्ञासा सृष्टि पर है और सृष्टि निर्माण की जिज्ञासा वैज्ञानिक चित्त में ही संभव है। पंथिक धार्मिक विश्वासों में सृष्टि का निर्माता, सृष्टा ईश्वर है। इसलिए विश्वासी के चित्त में ऐसी जिज्ञासा नहीं पैदा होती। ऋग्वेद के ऋषि जिज्ञासु हैं। ऋषि दार्शनिक की तरह सोचते हैं, वैज्ञानिक चित्त से प्रश्न करते हैं। ऋग्वेद का एक सूक्त (10.129) गुनगुनाने योग्य है। कहते हैं कि “तब न पृथ्वी थी। न आकाश था – नो व्योमा परे तत्। न दिवस और न रात्रि। तब न मृत्यु थी, न अमृत्व था। देवता भी नहीं थे तब।” यहां तक दार्शनिक अनुभूति है। आगे वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, “कौन जानता है कि यह सृष्टि कहां और किस कारण उत्पन्न हुई?” वे सृष्टि के अध्यक्ष की कल्पना करते हैं लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विनम्र दार्शनिक तर्क के साथ कहते हैं कि कौन जानता है यह सब? सृष्टि का अध्यक्ष भी अपना आदि अंत जानता है कि नहीं जानता?” यहां सारे प्रश्न महत्वपूर्ण हैं। सृष्टि के पूर्वकाल की ऐसी सुंदर कल्पना और जिज्ञासा अन्यत्र नहीं मिलती। बेशक पंथिक विश्वासों में सृष्टि सृजन की भी सूचनाएं मिलती हैं। लेकिन वे मान्यता होती हैं। सूचना, मान्यता और जिज्ञासा में आधारभूत अंतर हैं। ऋग्वेद में सृष्टि सृजन की सूचना नहीं है। यहां जिज्ञासा है और यह जिज्ञासा ऋग्वेद समाज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जीवंत साक्ष्य है। इस सूक्त की सबसे मजेदार बात है – सृष्टि सृजन के पूर्व देवों का भी न होना। यह तथ्य वैज्ञानिक है। जब सृष्टि ही नहीं थी तो स्वाभाविक ही देवता भी नहीं थे। ऋग्वेद में अग्नि, वायु, जल, सूर्य आदि प्रत्यक्ष देव हैं। सृष्टि के पूर्व वे भी नहीं थे। अपने देवों का अस्तित्व सृष्टि के पूर्व न मानना बड़ी बात है। इस बड़ी बात का आधार ऋग्वैदिक पूर्वजों की वैज्ञानिक मानसिकता है। सूर्य प्रत्यक्ष हैं। प्रकृति की महाशक्ति हैं। वे ऋग्वेद में देवता भी हैं। ऋग्वेद (4.13.5) में प्रश्न है “वे किस आधार पर लटके है? वह कैसे गतिशील है? किसने यह तत्व देखा है – को ददर्श?” जिज्ञासा की इस दृष्टि का स्रोत वैज्ञानिक मानसिकता है। यहां ऋषि तमाम बाते जानता है। वह सूर्य को ऋतयुक्त – समृतः कहता है। ऋत प्रकृति के नियम हैं। सूर्य इन नियमों से बंधे हुए हैं। प्रकृति के ऋत नियम तत्समय विज्ञान के नियम हैं। ऋषि यह सब जानते हैं लेकिन वह संपूर्ण तत्व जानने के लिए इच्छुक हैं। इसलिए “को ददर्श” – किसने देखा है” की जिज्ञासा है।
प्रकृति की शक्तियों की अनुकूलता और उनका ज्ञान उपयोगी है। अग्नि प्रकृति की विराट शक्ति है। ऋषि की जिज्ञासा अग्नि को अनुकूल करने वाली तंत्र व्यवस्था या मंत्र शक्ति जानने की है। यहां सीधे अग्नि से ही प्रश्न किया गया है “आपको किस मन से प्रसन्न करें – केन मनसा? (1.76.1) ऋषि का अपना मन है। ऋषि संभवतः अपनी मनन शक्ति को पर्याप्त नहीं मानते। अग्नि ओज है, बल हैं, ऊर्जा है। ऋषि अग्नि विज्ञान के खोजी जान पड़ते हैं। इसलिए उन्हें अनुकूल और कृपालु बनाने के लिए नया मन खोज रहे हैं। अश्विनी युगल देव हैं, वैद्य भी हैं। वे आरोग्यदाता हैं। ऋषि उनके सामने स्वयं को गैरजानकार बताते हैं, पूछते हैं कि “अज्ञानी लोग आपकी स्तुति कैसे करें? (1.20.1) मरूद्गण प्रतिष्ठित देव हैं। वे गण-समूह में हैं। ऋषि के अनुसार वे एक समान है। वे वायु प्रवाह के पर्याय हैं। वे जल बरसाते हैं। ऋषि जल वर्षा के इस प्रपंच को जानना चाहते हैं। ऋषि प्रश्न है कि “एक समान उम्र वाले मरूद्गण किस शक्ति से जल वर्षा करते हैं? किस तरह की बुद्धि से किस देश में आते हैं?” (1.165.1) अग्नि, वायु, जल, सूर्य आदि प्रकृति की बड़ी शक्तियां हैं। ईश्वर या देवों के अस्तित्व पर आधुनिक काल में भी तमाम तर्क होते हैं। ज्यादातर लोग प्रकृति संचालन का श्रेय किसी अज्ञात शक्ति को देते हैं। ऋग्वेद में यह विचार भी है। प्रश्न है कि “स्वयं अस्थिरहित होकर भी अस्थि धारको का पोषण करने वाले को जन्म लेते किसने देखा है?” (1.164.4) यहां विश्वपोषक शक्ति को अस्थिविहीन कहा गया है। पोषक शक्ति अज्ञात है। ऋषि उसका जन्म व उद्भव जानना चाहते हैं। जल प्रत्यक्ष है। इस सम्बंध में सुंदर प्रश्न है “निरंतर प्रवाहित जलों का आदि प्रवाह कब प्रारम्भ हुआ?” यह प्रश्न शुद्ध रूप में विज्ञान का है। 
मन हमारा संचालक व प्रेरक है। अति सूक्ष्म है। ऋग्वेद में मन जिज्ञासा से जुड़े अनेक मंत्र हैं। एक प्रश्न मन के जन्म पर भी है। पूछते हैं “ऐसा मन का जानकार कौन ज्ञाता है जो बताए कि यह मन कहां से पैदा हुआ?” (1.164.18) शक्ति द्रव्य आदि के उद्भव की जिज्ञासाएं ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में हैं। मन के जन्म की जिज्ञासा सुंदर है।” इसी सूक्त में पृथ्वी सम्बंधी जिज्ञासा भी है। ऋषि पृथ्वी को मनुष्य जैसा प्राणी जानते मानते हैं। वे जानना चाहते हैं कि “पृथ्वी के प्राण, रक्त और आत्मा कहां हैं।” इसी तरह इन्द्र बड़े देवता हैं। शक्तिशाली भी हैं। इन्द्र की शक्ति संपन्नता स्वाभाविक ही ऋषि जिज्ञासा है। आधुनिक काल में भी शक्तिशाली महानुभावों की शक्ति का कारण जानने की जिज्ञासा रहती है। शक्तिशाली इन्द्र के सम्बंध में जिज्ञासा है कि “इन्द्र किस शक्ति के कारण प्रसिद्ध हैं? (4.20.9) इन्द्र शक्तिशाली हैं, देवता भी हैं। क्या वे हमको भी शक्तिशाली बना सकते हैं? ऋग्वेद में प्रश्न भी है कि इन्द्र हमको किस शक्ति से शक्तिशाली बनाएगा? ऋग्वेद ऐसे तमाम प्रश्नों से भरापूरा है। ऋग्वेद में दर्शन के बीज हैं। वे पौध बनने को आकुल व्याकुल हैं। अदिति और पुरूष जेसे प्रतीकों में वेदांत दर्शन का जन्म दिखाई पड़ता है। मन सम्बंधी प्रश्नों में परवर्ती योग दर्शन के सूत्र हैं। सांख्य वैशेषिक दर्शन व मीमांसा के भी सूत्र ऋग्वेद में हैं। भारत के निरीश्वरवादी दर्शनों में भी वेदों के प्रति ममत्व है। ऋग्वेद के दार्शनिक सूक्तों में जिज्ञासा के गीत हैं और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का संगीत। ब्राह्मण ग्रंथो, उपनिषदो में इसी गीत संगीत का विस्तार व विकास है। ऋग्वेद के ऋषि अपने सूक्तों में वैज्ञानिक मानसिकता की ही राह चलते हैं। वे ऐसा सप्रयास ही नहीं करते। तर्क, जिज्ञासा, प्रश्न और प्रतिप्रश्न भारत की प्रकृति है। ऋग्वेद में यही मूल प्रकृति अपने सघन रूप में प्रकट हुई है। दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली मानसिकता ऋग्वेद का मूल प्रवाह है। 

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