दस्तक-विशेषसाहित्य

कविता

शैलजा पाठक

1)
मुहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नही जाती
हम अपने अपने नाम जोड़ते
खोल देते फिर शहर में भी गांठे लगाते खोलते रहे
दूरियों में रास्ते और गलियों को जोड़ा
खेत को मेड़/मेड़ को घर की पगडण्डी से
आँगन को कमरे ओसारे और चूल्हे से जोड़ा
थाली और भूख अपने आप जुड़े और खुले।

अलग अलग शहरों में हम खाली पन्नों पर
भरे मन और भरी आँखों से
मुस्कराते सिसकते ये खेल खेलते रहे
इस जोड़ने से हम नही जुड़े।

हमने उसके सपनों से अपनी ख़ुशी जोड़ी
उसके बंजर में बारिश जोड़ा
उसकी कविता में आस सी ओस बनी
चमकी ढलकी और खो गई
कुछ ऐसे मैं उसकी हो गई।

साथ सपनों के जोड़ा जुड़े और कस ली गांठें
प्यार में कपूर की महक धान की लहक
तितली की उड़ान और फूलों के अतिरिक्त लाल होने को बूझा हमने जोड़ने वाली हिदायते कवायदो के पन्नो को
हवा में उछाल दिया।
मेरे सांस से जुड़ी धमक तुम्हारे आँख में बलखाती
मेरे गाँव की नदी
हमनें कुछ नही जोड़ा
हम जुड़ गये।

रंग को मत पहनाओ सफेद कपड़े
रंग अपनी फितरत दिखायेगा
बिना जोड़े सात रंग छलक जायेगा
धमनियों में धमकता है जादू सा एहसास
प्यार में सूरज डूबता नहीं बुझता है
फिर जल जाता है।
उठो देखो रात सारी दीवारें सुलझा ली थी हमनें।

2)
तुम मुझे खो जाने से बचा लेना/मैं घर बनाना चाहती हूँ
छोटी सी बात पर मत तोड़ना
मैं रंगीन चौकोर कागज को मोड़ कर एक घर बना रही हूँ मैं दीवारों से एतराज कर रही तुम खुले आँगन पर बहस रहे हो
एक कतार में सजे होंगे गमले
जों बस कहानियों में हैं वो हरे हरे हंस रहे हैं
हम घर बना रहे हैं।
घर के पीछे ही क्यों होगा तालाब
आँगन हो तो बिछी भी हो हरी सी घास
बारिश में एक छाजन हो जिससे होकर गिरता हो पानी
तो लो तुम ही कर लो अपनी मनमानी।

सुनो रुको तुम भी आओ
लकीरों में घर बनाते हैं
चलो ठीक है खिंच लो दिवार
जरा पारदर्शी हो दिख जाओ तुम आर पार
अच्छा सुनो बरामदे को खुलना चाहिए उधर पश्चिम में
देर शाम लौटती है बंजारों की टोली
उसका गोद का बच्चा मुझे देख मुस्कराता है
उसकी हथेली में दिन भर की धूप को चूमती हूँ मैं
लकीरों में बरामदा उधर का ही बनाना।

इतनी सी बात पर मत तोड़ना
अब सोचो तो किससे बोलूं मन की बात
जब अपने ही लगा कर बैठे हो मन में घात
शाम को मिलकर सुबह की सोचती हूँ
कुछ बोल नही पाती तो कविता में घर बगिया और नींव में घर रोपती हूँ औचक ही रुक जाती हूँ तालाब के किनारे
बहते थे नांव हमारे यकीं के सहारे।

हम उनमे स्याही से गुलाब लिखते थे
हम आधे अधूरे अपने ख्वाब लिखते थे
मजे की बात तो देखो
चार कोनों से टकरा कर हम डूब भी जाते थे कई बार
कई बार नांव की बुझी लाशें सी मिलती कभी इस पार कभी उस पार हम चौकोर तालाब को गोल कैसे घूमते थे
सोचो न हम बिना कागज भी कितने खत लिखते थे।

मेरी बकवास पर भी मुझे मत छोड़ना
आई हूँ कहानियों की रंगीन डब्बे में बंद रंग खोलने
आई हूँ पानी में नमक जिंदगी में धमक और सांसों में प्यार घोलने पर चौकोर कागज से बनाते घरं की छत तो देखो
आँधियों से डर गईं
लकीरों की कहानी भी किधर गई
बरामदे का रुख उधर ही है यार
हथेली में धूप भर कर लाता है नन्हा राजकुमार
तुम्हारे महल के खांचे में क्या बैठती है ये कहानी
या अम्मा का खेल भर है ये
एक राजा था एक थी रानी
कुम्हार की बेटी बरामदे तालाब कागज़ और लकीरों में खो गई है जरा देखो न वो क्या थी क्या हो गई है …….

मैं घुटनों तक कोट पहने एक सर्द सुबह
सूखे पत्तो के ढेर से होकर गुजर जाउंगी
मुझे रोकना मुझे रोक लेना मेरी डायरी में
रखा ये कौन सा ग्रीटिंग कार्ड है
ये सुफेद कोट की लड़की भूरे पत्तो में खो रही है
उसकी आँख से नम रास्तो पर उदासियों की बारिश हो रही है …..। 

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