दस्तक-विशेषस्तम्भ

क्या अफसरशाही के आगे दम तोड़ गया गांधी का पंचायत राज मॉडल!

डॉ. अजय खेमरिया

गांधी जी की 150 जयंती पर उनकी वैचारिकी के विविध पक्षों पर दुनिया भर में चर्चा हो रही है।भारतीय शासन और राजनीति के लिहाज से पंचायती राज और गांधीवाद की चर्चा मप्र और दिग्विजय सिंह के बगैर अधूरी ही है। गांधी विचार भारत मे स्थानीय शासन को मजबूत करने का पक्षधर है और मप्र देश का पहला ऐसा राज्य था जिसने 73 वे संवैधानिक संशोधन के बाद त्रि स्तरीय पंचायत राज को प्रदेश में लागू किया। दिग्विजय सिंह उस दौर में मप्र के मुख्यमंत्री थे इसलिये उन्हें इसका श्रेय भी दिया जाता है। वस्तुतः मप्र में 10 साल मुख्यमंत्री रहते हुए दिग्विजय सिंह का मूल्यांकन उनके आखिरी कार्यकाल के साथ ही किया जाता है जबकि हकीकत यह है कि पंचायत राज के प्रति उनकी वचनबद्धता को कभी शासन और राजनीति के लिहाज से मूल्यांकित नहीं किया गया है, खुद दिग्विजय सिंह भी इसके लिये बराबर से जिम्मेदार है। उन्होंने अपनी राजनीति को जिस अतिशय संघ और बीजेपी विरोध पर केंद्रित करके आगे बढ़ाया, उसने इस गांधीवादी प्रयोग को पीछे धकेल दिया। आज मप्र में कमलनाथ सरकार पानी का अधिकार लागू करने के लिये कानून बना रही है, जबकि हकीकत यह है कि दिग्विजय राज में पानी का प्रबंध पहले ही स्थानीय निकायों और पंचायतों को दिया जा चुका है। असल में पंचायत राज स्थानीय जरूरतों के स्थानीय संशाधनों के बेहतर नियोजन का आधार है, गांधी जी कहा करते थे कि गांव का विकास गांव के लोग तय करें।

गांवों की अपनी आर्थिकी भारत में हजारों सालों से निरन्तर रही है जिसे अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से तहस नहस किया था। 73 वां संवैधानिक संशोधन गांधीवाद की इसी अवधारणा को कानूनी धरातल देता है मप्र में इसे सबसे पहले लागू किया गया 1993 से 1998 के मध्य जिस व्यापक तरीके से सत्ता का विकेंद्रीकरण करने का प्रयास दिग्विजय सिंह ने किया वह अगर अमल में स्थाई रहता तो आज मप्र सामुदायिक विकास के मामले में देश का अग्रणी राज्य होता। इस दरमियान शिक्षा का लोकव्यापीकरण किया गया। हर 3 किलोमीटर पर मिडिल स्कूल खोला गया। शिक्षा गारंटी, सेटेलाइट स्कूल जैसी स्कीम आरम्भ की गई, जिनके पीछे सोच यह थी कि गांव के ही पढे—लिखे नौजवान गांव के बच्चों को बुनियादी शिक्षा उपलब्ध कराएं।इसके लिये स्थानीय पंचायत प्रतिनिधियों को भर्ती के अधिकार दिए गए। गांवों का पेयजल प्रबंधन पंचायतों को सौंपा गया। कृषि विस्तार अधिकारी, ग्राम सेवक, डॉक्टर, नर्सेज, वेटनरी डॉक्टर, सहायक से लेकर ग्राम्य विकास से जुड़े लगभग सभी महकमे पंचायतों के प्रति उत्तरदायी बनाये गए। आदर्श प्रारूप में यह प्रयोग सत्ता विकेंद्रीयकरण का मजबूत आधार साबित हो सकते थे लेकिन यह भी हकीकत है कि इस गांधीवादी मंशा का लोगों ने बेजा फायदा उठाने की भी भरपूर कोशिश की। जिन पंचायत प्रतिनिधियों को शिक्षा कर्मी भर्ती का अधिकार दिया गया उन्होंने गुणवत्ता की जगह भाई भतीजावाद और कदाचरण को प्राथमिकता दी। बावजूद इसके मप्र में पहली बार ग्रामीण स्कूल शिक्षकों से आबाद हुए। जनपद, जिला और ग्राम पंचायत की त्रिस्तरीय सरंचना को जिस व्यापकता के साथ प्रशासन के साथ सयुंक्त किया गया उसने पहली बार आम आदमी की सीधी भागीदारी को सुनिश्चित करने का काम किया।
गांधी जी स्थानीय नेतृत्व के विकास पर जोर देते थे क्योंकि भारत जैसे विशाल देश की व्यवस्थाओं को सिर्फ कुछ लोगों के चमत्कारिक नेतृत्व के बल पर समावेशी नहीं बनाया जा सकता था। वे महिलाओं में भी उनकी जन्मजात प्रतिभा के प्रकटीकरण के प्रबल पक्षधर थे। मप्र के पंचायत राज मॉडल में गांधी जी की दोनों मंशाओं का समावेश था। त्रि स्तरीय पंचायत में महिला, दलित, आदिवासी, ओबीसी, सभी वर्गों का कोटा तय किया था। आरम्भ में यह नवोन्मेष सत्ता के परंपरागत केंद्रीय ठिकानों को कतई पसन्द नहीं आया। महिलाओं के मामले में अधिकतर जगह उनके पति या परिजन आगे रहते थे मप्र में ऐसी महिलाओं के पति को ‘गांधी के एसपी’ कहा जाता था यानी सरपंच पति। शिक्षक, स्वास्थ्य कर्मी, ग्रामसेवक, फारेस्ट गार्ड, कृषि सहायक से लेकर दूसरे सभी सरकारी मुलाजिम जिनका कार्यक्षेत्र गांव था पहली बार स्थानीय स्तर पर जबाबदेही के साथ सयुंक्त किये गए। यह भारतीय शासन और राजनीति में गांधी विचार का अक्स ही था। बाद में सिंचाई पंचायत, जिला विकेंद्रीकरत प्लान, फिर जिला सरकार, ग्राम सभा को वैधानिक दर्जा जैसे अनेक अनुभवजन्य प्रयोग मप्र में किये गए। लेकिन सत्ता का यह विकेंद्रीकरण कुछ समय बाद ही सत्ता संस्थानों खासकर अफसरों को रास नही आया जिस मॉडल को दिग्विजय सिंह अमल में लाना चाहते थे उसमें अफसरशाही के अधिकार लगातार कम हो रहे थे। जिला पंचायत की इकाई के अधीन एक आईएएस संवर्ग का अफसर सीईओ था। जिले के सभी विभागों के मुखिया भी इस निर्वाचित निकाय के प्रति जबाबदेह बनाये गए थे। घूंघट में बैठी महिलाएं और भदेस भारतीय प्रतिनिधिओं के आगे पढ़े—लिखे अफसरों की क्लास भला कैसे इंडियन समुदाय को स्वीकार्य होती? ब्लाक का बीडीओ हमें विकास का सर्वेसर्वा याद है लेकिन अब वहां जनपद पंचायत को बॉस बनाया गया।

पंचायत के विकास प्रस्ताव जनपद से निर्धारित होने लगे यही कार्यपालिका के स्थाई संवर्ग और स्थानीय नेतृत्व के बीच टकराव का आधार बना। जवाबदेही आज भी भारत के प्रशासन का सबसे कमजोर पक्ष है जिसे जनता और तंत्र दोनों के उच्च चरित्र का इंतजार है। गांधी जी लोकजीवन में नैतिक सहिंता के हामी थे लेकिन 73वे संशोधन के बाद सत्ता की ताकत तो नीचे हस्तांतरित हुई पर जिस नैतिक हस्तांतरण की आवश्यकता थी वो थम गई। विकास के लिये जो धन बीडीओ और कलेक्टर के पास सचिवालय से आता था उसने नीचे आकर प्रतिनिधियों को हिस्सेदारी पर मजबूर कर दिया। यही मप्र में पंचायत राज की विफलता का बुनियादी आधार बना। असल में भारतीय लोकजीवन की भी यही त्रासदी है। राजनीतिक फायदे के लिये यहाँ हमेशा अधिकारों को तरजीह दी जाती है कभी भी कर्तव्यों की अनिवार्यता पर चर्चा तक नहीं होती है। गांधी जी का ग्राम्य मॉडल नियोजन और कर्तव्य की सामूहिक चेतना पर आधारित है। बगैर इसके यह आगे नहीं बढ़ सकता है। भारत में परम्परागत ग्राम्य आर्थिकी सहअस्तित्व और सामूहिक उतरदायित्व पर ही टिकी थी। चुनावी राजनीति ने इसे दलित, पिछड़ा, अगड़ा में बांटकर समिष्टि का भाव ही खत्म कर दिया। आज मप्र में पंचायत राज अफसरों के आगे बंधक है क्योंकि इसके दूषित अनुप्रयोग ने फिर अफसरशाही को केन्द्रीयकरण का अवसर मुहैया करा दिया। 2003 में दिग्विजय सिंह की मप्र से पराजय के पीछे पंचायत राज को दोषी निरूपित कर प्रस्तुत किया गया। अभिजन वर्ग ने इसे विकास का देहाती मॉडल बताकर आलोचना की। जबकि हकीकत यह है कि चुनावी राजनीति ने इस मॉडल को दूषित किया है चुनाव जीतने के लिये सरपंचों और ग्राम सचिवों को हथियार के रूप में उपयोग करने की प्रवर्ति ने ही इस मॉडल को आम आदमी में प्रतिक्रियावादी बनाया। सरकारी धन के अपार प्रवाह ने भी चुने गए प्रतिनिधियों को बेइमान बनाया। जिस अफसरशाही के अधिकार हस्तांतरित हुए उसने अपनी जवाबदेही इस मॉडल को सफल बनाने की जगह इसे चंद चिन्हित चेहरों के साथ मिलकर असफल बनाने में पूरी की। आज त्रिस्तरीय पंचायत राज पूरी तरह से अफसरशाही के रहमोकरम पर जिंदा है। ग्राम सभा का अस्तित्व कागजों में सिमटा है। बेहतर होगा गांधी जी की 150वीं जयंती पर मप्र की कमलनाथ सरकार दिग्विजय मॉडल को नवोन्मेष स्वरूप में लागू करने की पहल सुनिश्चित करें इस मानसिकता के साथ कि पंचायत राज चुनावी राजनीति और सत्ता की पटरानी नहीं है बल्कि यह भारत के भाग्योदय का मूलमंत्र है।
(गांधी जयंती 2 अक्टूबर पर विशेष)
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

Related Articles

Back to top button