दस्तक-विशेषस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

गीता की अन्तर्राष्ट्रीय लोकप्रियता

हृदयनारायण दीक्षित

स्तम्भ : गीता लोकप्रिय ग्रन्थ है। वेदों की लोकप्रियता भी आसमान पर पहुंची। लेकिन गीता ने वेदों की लोकप्रियता को भी पीछे छोड़ा। गीता की लोकप्रियता ने विश्व में नये कीर्तिमान बनाये। भारत में अनेक ग्रन्थों को गीता बताने का चलन बढ़ा। गणेश पुराण के क्रीड़ाखण्ड के एक भाग को ‘गणेश गीता’ कहा गया। कूर्मपुराण के आखिरी हिस्से ‘ईश्वरगीता’ कहलाये। योगवशिष्ठ का भी एक भाग ‘ब्रह्मगीता है। विष्णु पुराण के तीसरे हिस्से में ‘यमगीता’ है। अध्यात्म रामायण के उत्तरकाण्ड में ‘रामगीता’ है। महाभारत में पिंगल गीता, पराशरगीता, और हंसगीता आदि हैं। गीता की लोकप्रियता के कारण ही ‘कपिलगीता’, पांडवगीता, व्यासगीता आदि ग्रंथ भी चर्चित हुए। अर्जुन और श्रीकृष्ण के मध्य हुए सम्वाद की भी एक और गीता है। उसे ‘अनुगीता’ कहते हैं। भगवद्गीता महाभारत युद्ध के ठीक पहले का सम्वाद है।

‘अनुगीता’ युद्ध के बाद हुई बातचीत है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा “आपने युद्ध के प्रारम्भ में मुझे जो ज्ञान दिया था, उसे मैं भूल गया हूं। कृपया उसे दोबारा बताएं।” आग्रह मजेदार है। अर्जुन गीता सुनकर ही कर्मप्रवृत्त हुआ। युद्ध हो गया। विजय मिल गयी। पहले वाली गीता विषादग्रस्त चित्त से सुनी गयी थी। श्रीकृष्ण ने कहा “उस समय मैंने योगयुक्त अंतःकरण से उपदेश किया था। अब वैसा उपदेश असंभव है।” हरेक विचार और दर्शन के उगने की एक पृष्ठभूमि होती है। युद्ध के पहले अर्जुन विषादग्रस्त था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के विषाद, जिज्ञासा और सभी तर्कों का समाधान किया— गीता के जन्म में अर्जुन के विषाद, प्रश्न और जिज्ञासा की भूमिका है। लेकिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन का निवेदन स्वीकार किया। कुछ मोटी-मोटी बातें कही। यही ‘अनुगीता’ है। लेकिन मूल गीता में विश्वदर्शन की सारी अनुभूतियां हैं, कर्म हैं, सांख्य है, भक्ति है, ऋग्वेद की परम्परा है, उपनिषदों का सार है। गीता पूरब और पश्चिम, सारी दुनिया के विद्वानों को आकर्षित करती है।
गीता महाकाव्य का हिस्सा है। टेप रिकार्ड नहीं है। डी.डी. कोशम्बी माक्र्सवादी विद्वान ने गीता के बारे में लिखा, ’क्या कोई संस्कृत कृति नही थी जिसने भारतीय चरित्र को उसी प्रकार आकारित किया है जिस प्रकार सर्वेतीज के ’डान क्विजोत’ ने स्पेनी विद्वानों को प्रभावित किया है? एक पुस्तक काफी हद तक इसी कोटि की है वह भगवतगीता है। कौशम्बी गीता के प्रभाव को स्वीकार करते हैं। लिखते हैं, यह सम्भव नही लगता कि ईसा की तीसरी सदी के अंतकाल से पहले इसकी रचना हुई पर यह कृति कृष्ण के मुह में डाल दी गयी और अंतिसंबर्द्धित महाभारत में जोड़ दी गयी। कोशंबी ने लिखा है, यूवान-च्वांग ने किसी ब्राह्मण की ऐसी कृति का उल्लेख किया है। संदर्भ से प्रकट होता है कि यह कृति गीता ही रही होगी। इसका इस्तेमाल करने वाला पहला असाधारण ब्राह््मण था शंकर (लगभग 800 ई.)। बाद में प्रतिद्वंद्वी प्रचारक रामानुज ने उसी गीता से नितांत भिन्न प्रेरणा प्राप्त की। ज्ञानेश्वर ने जनसाधारण के लिए इसे उत्कृष्ट मराठी में प्रस्तुत किया।
माक्र्सवादी चिंतक डाॅ. रामविलास शर्मा ने गीता की प्रशंसा की है, “सबसे प्रभावशाली अंश वे हैं, जहां योग का वर्णन है। दुख में उद्विग्नता नहीं, सुख में स्पृहा (प्रीति) नहीं। इस धारणा की प्रतिध्वनियां यूरोप से दूर-दूर तक सुनाई देती है।” डाॅ. शर्मा ने शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ का उदाहरण दिया है। हैमलेट भी विषादग्रस्त है। वह लिखते हैं, “रोमन साम्राज्य के दिनों में ऐसी धारणाएं भारत से इटली पहुंची थीं। फिर यूरोप के पुनर्जागरण काल में वे इटली से इंग्लैण्ड पहुंची। दार्शनिक स्तर पर गीता का अंतर्राष्ट्रीय महत्व है।” महात्मा गांधी ने भी 1925 में ‘यंग इण्डिया’ में लिखा था “जब निराशा मेरे सामने आ खड़ी होती है और जब बिल्कुल एकाकी मुझको प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ती, तब मैं गीता की शरण लेता हूं। कोई न कोई श्लोक मुझे ऐसा दिखाई पड़ जाता कि मैं विषम विपत्तियों में भी तुरन्त मुस्कराने लगता हूं – मेरा जीवन विपत्तियों से भरा रहा है – और यदि वे मुझ पर अपना कोई दृश्यमान, अमिट चिन्ह नहीं छोड़ जा सकीं, तो इसका सारा श्रेय भगवद्गीता की शिक्षाओं को ही है।” तिलक गांधी के अग्रज थे, बहुपठित थे। वे गीता रहस्य के व्याख्याता थे। दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने लिखा “श्रीमद्भागवद्गीता प्राचीन ग्रन्थों में शुद्ध हीरा है। पिण्ड-ब्रह्माण्ड-ज्ञान सहित आत्मविद्या के गूढ़ और पवित्र तत्वों के आधार पर मनुष्यमात्र के पुरूषार्थ की अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णावस्था की पहचान करा देने वाला, भक्ति और ज्ञान का मेल कराके इन दोनों का शास्त्रोक्त व्यवहार के साथ संयोग करा देने वाला और दुःखी मनुष्य को शान्ति देकर निष्काम कर्तव्य के आचरण में लगाने वाला गीता के समान बाल-बोध ग्रन्थ, संस्कृत की कौन कहे, समस्त संसार के साहित्य में नहीं मिल सकता।”
यूरोपीय विद्वान एडविन अर्नाल्ड ने गीता पर ग्रंथ लिखा – सेलेशियल सांग। उसने गीता के भाष्यकार पूर्ववर्ती विद्वानों की प्रशंसा की और लिखा, “मैं इस आश्चर्यजनक काव्य (गीता) का अनुवाद करने का साहस कर रहा हूं वह केवल इन विद्वानों के परिश्रम से उठाये हुए लाभ की स्मृति रूप में है और इसका दूसरा कारण यह भी है कि भारतवर्ष के इस सर्वप्रिय काव्यमय दार्शनिक ग्रन्थ के बिना अंग्रेजी साहित्य निश्चय ही अपूर्ण रहेगा।” बंगाल में सन् 1784 में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना हुई। सोसाइटी की प्रेरणा से चाल्र्स विलिकिन्स ने गीता का अनुवाद किया। गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्स ने इस कृति की लिखित प्रशंसा की थी।
डाॅ0 राधाकृष्णन् ने गीता के अनुवाद (परिचय पृष्ठ 13) में लिखा, “भगवद्गीता कोई गुह्य ग्रन्थ नहीं है, जो विशेष रूप से दीक्षित लोगों के लिए लिखा गया हो और जिसे केवल वे ही समझ सकते हों, अपितु एक लोकप्रिय काव्य है, जो उन लोगों की भी सहायता करता है जो अनेक और परिवर्तनशील वस्तुओं के क्षेत्र में भटकते फिर रहे हैं।” गीता सभी दर्शनों का सार है। इसे विज्ञान की तरह पढ़ने, दर्शन की तरह सोंचने की अभिलाषा स्वाभाविक है। डाॅ. वासुदेवशरण अग्रवाल भी लिखते हैं, “इसमें संदेह नहीं कि गीता मानव-जीवन की मौलिक समस्याओं की व्याख्या करने वाला ऐसा परिपूर्ण काव्य है।” हेनरी डेविड थोरो ने दिलचस्प ढंग से कहा, “मैं गीता के अद्भुद् ब्रह्माण्डीय दर्शन से प्रातः काल अपनी बुद्धि (इंटलेक्ट) का स्नान कराता हूं। इसकी तुलना में आधुनिक विश्व और विश्व साहित्य मुझे बहुत निम्नस्तर का लगता है।” एल्डुलस हक्सले ने लिखा, “गीता शाश्वत दर्शन के कभी भी रचे गए सबसे स्पष्ट और सबसे सर्वांग-सम्पूर्ण सारांशों में से एक है। सम्पूर्ण मानव जाति के लिए इसका स्थायी मूल्य है।”
गीता ने सारी दुनिया को प्रभावित किया। इसका प्रभाव चीन और जापान तक पड़ा। ‘जर्मन धर्म’ के अधिकृत भाष्यकार जे.डब्लू. होअर ने गीता का महत्वपूर्ण उल्लेख किया। होअर ने लिखा, “यह सब कालों में सब प्रकार के धार्मिक जीवन के लिए प्रामाणिक है। इसमें इण्डोजर्मन धार्मिक इतिहास के महत्वपूर्ण दौर का प्रामाणिक निरूपण है।” डाॅ. राधाकृष्णन के अनुसार “बौद्ध धर्म की महायान शाखा के दो प्रमुख ग्रंथों ‘महान श्रद्धोपत्ति’ और ‘सद्धर्म पुण्डरीक’ पर गीता का प्रभाव है।” होपकिन्स का मत है कि “अब कृष्ण प्रधान रूप मिलता है पर इसके पहले वह विष्णु प्रधान कविता थी। कोई निस्सम्प्रदाय रचना शायद विलम्ब से लिखी गई कोई उपनिषद।” आधुनिक तरूणाई को वैज्ञानिक विवेक चाहिए, ईश्वर की भी जिज्ञासा चाहिए। उन्हें सार, संसार और असार को समझने वाली बुद्धि चाहिए। गीता में सारी विचारधाराएं हैं। यहां प्राचीन वैदिक अनुभूतियां हैं। वेदान्त दर्शन है। लोकायत दर्शन भी है। प्रकृतिवादी सांख्य है। व्यवस्थित योग दर्शन है। उपनिषदों का सार है। प्रेम से लबालब भक्ति है। सांसारिक ऐश्वर्य है। आधिभौतिक रहस्यों के प्रति जिज्ञासा भी है।

(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

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