दस्तक-विशेषसाहित्य

जंगली घास का फूल: लालमुनि चौबे

संस्मरण

डॉ. प्रदीप सिंह

भारत में कोई जगह। दरवाजे पर दस्तक। कोई चौबे जी आए हैं। दरवाजा खोला। दो लोग। एक पुलिस सा आदमी। दूसरा शख्स – वाकई चौबे जी सा। छरहरा शरीर। खादी का झकझक सफेद धोती कुर्ता। करीने से छँटी खिचड़ी दाढ़ी। वही शैतानी से भारी गोल-गोल घूमती आँखें ।
पर चौबे जी, आप तो मर गये थे न! मैं तय नहीं कर पाता कि ये शख्स वाकई चौबे जी हैं या नहीं। देखने से तो लगते वही हैं।
अच्छा, बताइए मेरे बाबूजी का नाम? मैंने परीक्षा ली। कग्गन जी (उनका नाम ददन जी था) । यह तो सही है…….. और फिर चौबे जी एक बार एक लुप्त ।
लालमुनि चौबे मेरे जीवन में आए उन दो तीन लोगों में से हैं जो सस्ते और आम अच्छे बुरे की पकड़ के बहुत बाहर हैं और इसलिए बहुत खास हैं। लालमुनि चौबे जी (जी शब्द अच्छा नहीं है और स्वर्गीय तो और भी बुरा है) के बारे में लिख रहा हूं। आज अकेला हूँ। सुबह रोज की तरह चुप बैठा था। थोड़ा ही समय है, थोड़ी देर में अस्पताल जाना है। बैठा न गया। चौबे जी हुंडेरने लग गए। हुंडेर तो वे महीने भर से रहे थे, पर आज बहुत तंग किया। उठा दिया ।
पिछले दिनों बनारस गया तो मालूम हुआ चौबे जी चले गए। जैसा कि हमेशा से होता आया है, मेरी बात न होने पाई। वे हाल तक सांसद थे, व्यस्त रहते थे, कभी यहाँ कभी वहाँ और मैं एक दो दिन के लिए ही भभुआ जा पाता था। फिर नेताओं से मिलने में जो एक संकोच मेरे अंदर रहता है, वह एक अलग बाधा। अब जब वे चले गए हैं, उनकी तस्वीर और साफ हो आई है। चौबेजी से परिचय तो बचपन से था। हमारे पड़ोसी थे, उनके पिताजी के बनाए उनके मकान में रह कर ही बाबू जी ने हमारा मकान बनवाया था। चौबेजी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र नेता थे। बाद में सारा जीवन भले ही जनसंघी और भाजपाई राजनीति की हो, पर उस समय उनके सारे दोस्त समाजवादी थे । देवव्रत मजूमदार, रामबचन पांडेय, मार्कंडेय सिंह आदि- आदि। बोलने और शायद सोचने का भी वही स्टाइल, वही तेवर और इस बात के कारण मुझे लगता है संघ वालों में हमेशा हल्की सी शंका उनके बारे में बनी रही । संघ के नियम कानून में बँधने वालों में से वे नहीं थे। कभी तारीफ के पुल बांधते थे तो कभी गालियां निकालते थे। कभी हाफ पैंट नहीं पहनी उन्होंने, न कभी शाखा गए। पर और लोगों की तरह पार्टी छोड़ने का दाग उनपर कभी नहीं लगा, सवाल ही नहीं उठता था।

लालमुनि चौबे : 06/09/1942 – 25/03/2016

चौबे जी जब 1969 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एक जुझारू छात्र नेता की छवि लिए हुए घर लौटे, तो जनसंघ के टिकट पर चौनपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ाने का काम मूलतरू मेरे बाबूजी ने ही किया था। उस जमाने में जनसंघ जैसी पार्टियों को तो चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार ही नहीं मिलते थे। हारना निश्चित और घर का आटा गीला सो अलग। कांग्रेस को हराना असंभव सी बात थी। चौबे जी लड़े और हार गए । फिर लड़े 1972 में और जीत गए और उसके बाद जीतने का क्रम शुरू हुआ। 1977 में बिहार के शिक्षा मंत्री रहे। फिर एक बार विधान सभा का चुनाव हारे, तो लोकसभा का चुनाव बक्सर से लड़े और कई बार लगातार वहाँ से सांसद रहे। बस एक बार लोक सभा का चुनाव बहुत थोडे अंतर से हारे और पिछली बार भाजपाइयों ने अपना घटियापन दिखाते हुए उनका टिकट काट दिया। वही घटियापन जो उन्होंने जसवंत सिंह के साथ दिखाया था । चौबे जी और मामूली नेताओं की तरह कभी अपने क्षेत्र -वेत्र के चक्कर में नहीं पड़े और फिर भी लगातार जीतते ही रहे। जनसंघ, भाजपा के होते हुए भी पठानों का वोट उन्हीं को पड़ता था। एकबार उनके क्षेत्र के किसी आदमी ने उनके घर आकर किसी व्यक्तिगत काम के लिए उन्हें तंग कर दिया। चौबे जी पिनक गए। बोले हम तोहार खेत जोतब? जा, मत दीहा हमके वोट ।
जब स्वास्थ्य मंत्री थे तो अपने स्वभाव के मुताबिक बिहार के डाक्टरों से रार ठान लिया। पटना में उस जमाने में डाक्टरों का माफिया था। मंत्रियों को बनाना बिगाड़ना उनके लिए खेल था और चौबे जी तो बस चौबे जी, भिड़ गए । बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया। डाक्टरों की लम्बी हड़ताल हुई। देसी- विदेशी टाँके वाली बात, जो स्पष्टत: अतिरंजित थी, चौबे जी ही कह सकते थे। जिन्हें पता न हो, उनको बता दूँ कि चौबे जी ने एक भाषण में कह दिया कि डाक्टर लोग पहले पेट खोल देते हैं, फिर मरीज के परिवार वालों से पूछते हैं – देसी टाँका लगाएं या विदेशी। देसी पाँच सौ में, पर टाँका खुल जाने का खतरा। विदेशी हजार में, पर पक्का और टिकाऊ ।
चौबे जी नेता थे, नेता परेता न थे। चौबे जी में मेरी दिलचस्पी सिर्फ नेतागिरी के कारण नहीं वरन पारिवारिक सम्बंध, पड़ोसी होने के नाते, और राजनीति में रुचि के कारण थी। चौबे जी को जानता तो मैं बचपन से था पर ठीक से जान- पहचान 1975 में हुई। तब मेरी उम्र कोई उन्नीस वर्ष थी। चौबे जी तैंतीस के आस- पास रहे होंगे। पर इतनी उम्र में ही चौबे जी की बहुत ख्याति थी। बिहार में जनसंघ के प्रमुख विधायकों में से थे । 1974 के जयप्रकाश जी के आन्दोलन में चौबे जी भी बहुत सक्रिय थे। 1975 में आपातकाल लगा। थोड़े दिन भूमिगत रहे, इस गाँव उस गाँव छिपते रहे, फिर धर लिए गए। बनारस केन्द्रीय कारागार में मीसा (मेंटेनेन्स आफ इन्टर्नल सिक्योरिटी एक्ट) में बन्द कर दिए गए।
आपातकाल के दौरान मैं भी अपने दो अन्य साथियों के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला संकाय में सत्याग्रह कर अपनी गिरफ्तारी दे चुका था। हम तीनों डी आई आर (डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स) के तहत बनारस जिला जेल में रख दिए गए थे। मेरे दो साथी कुछ दिनों के बाद जमानत पर छोड़ दिए गए पर मेरी जब जमानत हुई, तो रिहाई के पहले ही सरकार ने मेरे ऊपर मीसा ठोंका और कुछ दिनों बाद मेरा तबादला बनारस केन्द्रीय कारागार में हो गया और फिर वहाँ मोरारजी भाई के शपथग्रहण तक केन्द्रीय कारागार मेरा आवास रहा।
चौबे जी से यहीं मेरी मुलाकात हुई। जिन लोगों ने वह दौर नहीं देखा है, बल्कि जो लोग बंद नहीं रहे, उनके लिए कारागार के वातावरण को ठीक से समझना बहुत मुश्किल है। मेरी कोशिशें बहुत कमजोर साबित होंगी। पहली बात तो यह कि हम कब तक बंद रहेंगे, यह अनुमान का ही विषय हो सकता था। यह दीगर बात है कि उन्नीस महीने में ही आपातकाल हट गया, पर उन दिनों किसे पता था कि हम साल भर बंद रहेंगे या दस साल। सरकार को हमें या किसी अदालत को हमे बंद करने की या हमारे बंद रहने की अवधि बताने की कोई मजबूरी तो थी नहीं, कोई झंझट भी नहीं था। अब आप बंद हैं तो चुपचाप बंद रहिए। दूसरी बात यह कि आप पचासों लोगों के साथ चौबीसों घंटे एक छोटे से क्षेत्र ( बैरक और बाहर शौचालय आदि और थोड़ी सी खुली जगह) में रहने के लिए बाध्य हैं। इतनी निकटता से इतने दिन लगातार तो पति और पत्नी भी साथ नहीं रहते। तो तय है कि इस निकटता के कारण आपकी पोल तो खुल ही जायेगी,आप छिपा नहीं पाएँगे। इतने छोटे से क्षेत्र में थोड़े से लोगों के साथ इतने दिनों तक लगातार रहने के कई अच्छे-बुरे नतीजे निकल सकते हैं। आप बंद होने की विवशता और बाहर की दुनिया से कट जाने के कारण विक्षिप्त हो सकते हैं। आप लोगों से घनघोर दोस्ती या दुश्मनी पाल सकते हैं और आप यदि मानसिक तौर पर बंद होने की चिन्ताओं से बेखबर हैं तो अंतहीन छुट्टी के अंतहीन मजे ले सकते हैं। ऐसी छुट्टी जो बिरले ही किसी को नसीब हो। किसी घड़ी का कोई आतंक नहीं। समय जिसने दुनिया को गुलाम बनाया है, आपके चरणों में लोट रहा है।
वे मेरे और चौबे जी जैसे लोगों के लिए स्वर्ग के दिन थे। कारावास के नहीं, मुक्ति के दिन। बैरक में तरह -तरह के जंतु थे। सीधे सरल किशोर, घुने हुए खुर्राट। अट्ठारह से अस्सी तक। कई गलती से फँस गए, बहुतेरे कांग्रेस विरोध के अपने पापों का फल भोग रहे थे। कई आदर्शवादी तो कई घुटे हुए यथार्थवादी। चाय की दुकान में काम करने वाले लड़के (जिसको पुलिस वाले ने चाय का पैसा माँगने के जुर्म में मीसा में फँसाया) से लेकर छात्र नेता, विधायक, सांसद, आदि-आदि। ऐसे जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि देश का प्रधानमंत्री कौन है से लेकर धुरंधर राजनेता तक। संघ से लेकर जमायते इस्लामी तक। बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से लेकर उस समय अलीगढ़ विश्विद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष और आज के मशहूर समाजवादी नेता आजम खां तक। कई घबराए, कई मस्त।
चौबे जी का ढूहा (सही शब्द भूल गया है) ठीक मेरे बगल में था। बीच में थोड़ी सी जगह थी। ढूहा बीच में जमीन से उठा हुआ चारपाई या चौकी के आकार का एक स्थान होता था जो हर कैदी को मिलता था जिस पर वह बिस्तर बिछा सकता था । चौबे जी लिहाड़ी लेने के बहुत शौकीन थे। मेरे जैसे लुहेड़े उनकी इन हरकतों में उनके दूत का काम करते थे। मसलन, बैरक में घुसते ही बाईं तरफ बिल्कुल दरवाजे के पास जनसंघ के मिर्जापुर के एक उदीयमान युवा विधायक का ढूहा था। वे उस समय उत्तर प्रदेश जनसंघ विधायक दल के मुख्य सचेतक थे। नाम लेना उचित नहीं है। बस मान लीजिए – रामलाल जी। तो रामलाल जी रात बिरात-जब सारे लोग सो रहे होते थे – एक ब एक ऊँची आवाज में गहरी साँस छोड़ते हुए रेघा कर गाते हुए बोलते – कहाँ फँसायो नाथ, नाथ मोहें बेग छोड़ाओ। रामलाल जी ने जेल से छूटने के लिए बड़ी कोशिशें कीं, लोग कहते हैं कि शायद माफी माँगने को भी तैयार थे पर जब उनकी पत्नी उनसे मिलने आतीं तो वे उनको उनकी कायरता के लिए डाँट पिलातीं। चौबे जी ने धीरे से किसी से कहा कि रमुआ की बीवी का किसी से अफेयर चल रहा है और वह नहीं चाहती है कि रमुआ छूटे। यह 1975 या 1976 की बात है। मैंने एक गाना निकाल दिया – नाहीं छोड़ी, नाहीं छोड़ी रे, सन बयासी तक नाहीं छोड़ी रे! रामलाल जी ने एक दिन मुझसे बहुत कातर स्वर में कहा – प्रदीप जी, आप ऐसा क्यों कहते हैं, दिल को बहुत चोट पहुँचती है।
चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोक दल के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई वरिष्ठ नेता बंद थे। सांसद, राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य। अब इनमें से कई शायद इस दुनिया में नहीं हैं। चलिए नाम ले ही लेता हूँ, बाबू सिंह (शायद यही नाम है, सरल, उदार हृदय, बुलंद, सफेद मूँछों वाले पहलवान देहयष्टि के स्वामी, ग्रामीण जाट विधायक), चौधरी चन्द्रपाल सिंह (हमारी बैरक संसद के सभापति), कुँवर महमूद अली (बाद में जनता सरकार के समय लोकसभा या राज्य सभा में उपनेता और फिर मध्य प्रदेश के राज्यपाल)। अच्छे दिलदार लोग पर टूटने को बेताब। चौबे जी ने जेलर की मदद से बाहर से लोक दल के राष्ट्रीय स्तर के किसी नेता के नाम से कुँवर महमूद अली या चौधरी चन्द्रपाल सिंह के नाम से जेल में एक पत्र भिजवाया । पत्र का आशय यह था कि चौधरी साहब (जो तब तक छूट गए थे) की इंदिरा जी से बात हो गई है और यह तय हुआ है कि लोकदल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के जो सदस्य बंद हैं उनको रिहा कर दिया जाय। फिर क्या, कुँवर साहब और चौधरी साहब (चन्द्रपाल सिंह) बोरिया बिस्तर बाँधकर बाहर जाने के लिए तैयार। सुबह- सुबह जेलर से पूछते- रिहाई का फरमान आया कि नहीं? लड़कों में से किसी ने चौधरी साहब को कहा कि यह तो झूठी अफवाह है तो चौधरी साहब बिगड़ गए और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जाट स्टाइल में बहुत डाँटा – क्यों नहीं छोड़ेगी? हमारा अचार लगाएगी?
जैसा मैंने पहले कहा, जब जेल पहुँचे, चौबे जी की उम्र तैंतीस के आसपास थी। छरहरा दुबला-पतला बदन, टँटी हुई दाढ़ी, गोल- गोल चमकती हुई, सामने वाले को खंगालती हुई शरारती आँखें। खादी का सफेद धोती कुर्ता, या फिर धोती और बंडी। जाड़ों के दिन थे – तो अक्सर सिर पर बंदर टोपी। लरजता हुआ आत्मविश्वास। उनसे बहुत बहस मत करिए, बात सुनिए। हिंदी साहित्य हो या पत्रकारिता, राजनीति हो या खगोल शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र हो या भौतिकी। चौबे जी की पहुँच हर जगह थी। पूरे आत्मविश्वास के साथ और जोर से अपनी बात कहते थे। ऐसे कि आप उनसे असहमत कैसे होंगे जब वे इतने आत्मविश्वास से बोल रहे हैं। अक्सर लोग कहते थे – चौबे जी ने फलाँ की बोलती बंद कर दी या फिर चौबैया ओके धो देहलस।
मसलन एक बार चौबे जी ने दावा किया कि अणु जो है उसके केन्द्र में इलेक्ट्रॉन है और परिधि पर प्रोटॉन चक्कर लगाता है। मैं वहीं था, भौतिक शास्त्र के एक अध्यापक भी वहीं थे। अब चौबे जी की बात कौन काटे? पर अंत में रहा नहीं गया। मास्टर साहब ने या मैंने (अब याद नहीं है किसने) उन्हें टोका कि चौबे जी आप उलटी बात बोल रहे हैं। चौबे जी ने तुरंत डाँटा – आप लोगों को नहीं मालूम है, नारलीकर (काशी हिंदू विवि से पढ़े हुए प्रसिद्घ वैज्ञानिक) से खुद मेरी बात हुई है। वैसे ही चौबे जी भंटा (बैगन) के बहुत खिलाफ थे। कहते थे, भंटा खाने से हाइड्रोसील होता है। एक बार र्केसर के बारे में बोलने लग गए। बोले – कैंसर बुरी बीमारी है, केकड़े की तरह कचर देता है। पानारायण सिंह ( भभुआ के एक संभ्रांत व्यक्ति – अंग्रेजों के जमाने के कलक्टर साहब) को हो गया था। देखते -देखते उनका पैर तरबूज की तरह फट गया ।
चाहे प्रेमचंद हों या रेणु, मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय। चौबे जी हर एक पर धाराप्रवाह बोल सकते थे। बहुत से पत्रकारों, साहित्यकारों से उनकी मित्रता थी। रेणु से तो जयप्रकाश जी के आन्दोलन के चलते उनकी अच्छी जान – पहचान थी। चौबे जी का दरबार लगता था और फिर गाँव- जवार में लठैती के किस्सों से लेकर माक्र्सवाद तक घंटों चर्चाएं होती थीं। उस माहौल के रूप रंग रस का बखान मेरे बस में नहीं है। जाड़ों में ये बैठकें अक्सर अलाव पर होती थीं। चौबे जी भोर में उठने वालों में से थे। सारी बैरक में सबसे पहले उठने वाले। रात को बैरक में ताला लग जाता था। मुँह सबेरे कोई पक्का आकर खोलता था। सारे पक्के चौबेजी के चेले थे। जिन्हें न मालूम हों, उनको बता दूँ पक्का भी एक कैदी होता है, अक्सर उम्र कैद वाला विश्वासपात्र कैदी जो एक तरह से जेल के कर्मचारी की तरह होता है। उसे तनख्वाह भी मिलती थी- पाँच रुपया माह। वह दूसरे कैदियों पर नजर रखता है, कानून व्यवस्था ठीक रखने में मदद करता है, पगली घंटी-वंटी बजे तो सबसे पहले हल्ला बोलता है।
जाड़े के दिनों में भी भोर में बैरक का दरवाजा खुलते ही चौबे जी जल्दी-जल्दी दो लोटा पानी डाल कर नहा लेते थे। ठंड से डरते थे, बस जल्दी जल्दी नहा लेते थे। नहा कर खद्दर की सफेद धोती पहन कर उसी को ऊपर भी लपेट लेते थे। और उसके बाद बुलंद आवाज में रामचरितमानस का सस्वर पाठ करते थे। उन्हें रामायण कंठस्थ थी, पुस्तक से पढ़ने की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ गला, ओजस्वी भावपूर्ण स्वर। अलाव लगा लेते थे और अकेले बैठ जाते थे और फिर धीरे – धीरे उनके चेले-चपाटी बारी – बारी से आँखें मलते अपने-अपने ढूहों से उठ कर बाहर आते उनके इर्द गिर्द अलाव पर बैठते फिर चाय और घंटों बैठकी। अब कैसे बताऊँ उस माहौल के बारे में! उनके चेले चपाटी संघी भी थे, समाजवादी भी, हिन्दू भी, मुसलमान भी। पढ़े -लिखे विद्वान, राजनेता और साधारण गँवई लड़के भी।
चौबे जी की रुचियों का दायरा विस्तृत था। लिहाड़ी लेने से लेकर दर्शन शास्त्र, संगीत, धर्म, अध्यात्म, राजनीति, विज्ञान तक फैला हुआ। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास वाणभट्ट की आत्मकथा का जैसा विश्लेषण उन्होंने किया उसे सुनकर बड़े बड़े आलोचक गश खा जाएँ। पुनर्नवा को वे अधिक ऊँचे दर्जे का उपन्यास मानते थे। खास बात यह है कि मुझे आज तक यकीन नहीं है कि ये दोनों उपन्यास उन्होंने ठीक से पढ़े थे और फिर रेणु और प्रेमचंद के साहित्य की तुलनाओं पर लम्बा व्याख्यान । पाक शास्त्र में उनकी खास रुचि थी। खाना बनाने, खाने और खिलाने के बड़े शौकीन थे। ब्राह्मण होते हुए भी मांसाहार में उनकी रुचि थी। बहुत शौक से मुर्गे का मांस पकाते थे। जब पकाते थे, तो पूरा चार्ज ले लेते थे। जेल में हफ्ते या पखवाड़े में एक बार बी वर्ग के राजनैतिक कैदियों को मांसाहार का राशन मिलता था। अधिकांश लोग तो शाकाहारी थे । हम पाँच सात ही मांसाहारी थे, इसलिए हमारा मेस अलग था। चौबे जी इस मेस के स्वस्थापित अध्यक्ष थे। उनके अलावा जहाँ तक मुझे याद है आजम खां (अरे वही जिन्हें आप सब जानते हैं), कन्हैया जी, मैं, और मेरे जैसे कुछ लड़के लफाड़ी और एक दो जेल के पक्के ( पहले बताया है – पक्का क्या होता है)। शाम को यह धंधा होता। घंटों यह मामला चलता । मुर्गा बनाने की तमाम तकनीकों और उसकी कला के विभिन्न आयामों पर चौबे जी व्याख्यान देते और चेले भक्ति भाव से सारा ज्ञान सोख लेते। चौबे जी खुद बहुत खाते वाते नहीं थे, पर औरों को उनका बनाया व्यंजन शौक से खाते देख मन ही मन प्रसन्न बहुत होते थे ।
मिठाई, लस्सी और भांग उन्हें बहुत प्रिय थे। भांग कभी-कभी मिलती तो उस दिन उत्सव का माहौल बन जाता। भांग या भांग की ठंढई बनाना कोई छोटी बात न थी। यह पूरा उपक्रम एक बारीक कला की मानिंद था। हुनर और समय माँगता था। यह प्रक्रिया देर रात तक घंटों चलती, फिर भोजन होता, गप्प होती और हम सब लोग एक अद्भुत स्वर्ग लोक में तैरते हुए खरामा -खरामा अपने अपने शयन कक्षों (ढूहों) की तरफ प्रस्थान करते। कई बुजुर्ग हमारी हरकतों के बारे में (शायद रश्क करते हुए) खुसुर -फुसुर करते थे। ऐसा व्यवहार कोई राजनीतिक नेता करे, यह उनके कायदे कानून के बाहर की बात थी ।
चौबे जी रात को ज्यादा सोते नहीं थे । चाहे जितनी रात तक लिहाड़ी हो या गंभीर बहस हो, सुबह चार बजे बिना नागा उठ जाना, जल्दी-जल्दी दो लोटा पानी देह पर डाल कर नहाने का काम पूरा कर लेना और फिर रामचरितमानस का सस्वर पाठ – इसमें कभी व्यतिरेक नहीं हुआ । चौबे जी के कई चेले थे। चेलों में आपस में प्रतिस्पर्धा का भाव रहता था। नई उम्र के अठारह बीस साल के लड़के लफाड़ी, पचीस तीस के वकील वगैरह। उनके सबसे खास चेले कन्हैया जी थे। उनके लिए चेला शब्द उपयुक्त तो नहीं है, पर और कोई शब्द मेरे पास इस समय है नहीं। कन्हैया जी और चौबे जी का संबंध हनुमान जी और राम के संबंध जैसा था। कन्हैया जी मुझ से उम्र में कुछ बड़े थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कानून के विद्यार्थी थे। सरल और बहुत मृदु। हम पाँच सात लोगों की माँ थे। कन्हैया जी, आज खाने में देर क्यों हो रही है कन्हैया जी, मेरा तौलिया कहाँ गया कन्हैया जी, आपने मुझे सुबह उठाया क्यों नहीं कन्हैया जी आपने तो आज हद कर दी, साबुन कहाँ है, बताइए हम कैसे नहाएं? और कन्हैया जी फिर प्रेम से अपनी सफाई देते वैसे ही जैसे कोई माँ बच्चे को पुचकारते हुए देती है। वही कन्हैया जी सोलह सत्रह महीने चौबे जी के अभिन्न अंग थे ।
चौबे जी के बहुत सारे शौक थे। गाना गवाना, लड़ाई लगवाना, लिहाड़ी लेना, खाना खिलाना आदि। भांग के बारे में पहले लिख चुका हूं।
कुछ और भी शौक थे। मसलन खैनी (सुरती) का शौक। राजा आदमी थे, खुद खैनी कम ही बनाते थे। उनके साथ जो भक्त टाइप के लुहेड़े रहते थे, उन्हीं में से किसी से बनवाते थे और ऐसा करते हुए जो असीम आनन्द का भाव उस लुहेड़े के मुँह पर उतरता था, उसका वर्णन कोई कालिदास ही कर सकता है। मेरे जैसे ऐरे गैरे नत्थू खैरे की औकात नहीं। जब मैं उन्हें लुहेड़े या भक्त कह कर संबोधित करता हूँ तो डरता हूँ, हर बात में राजनीति और घटियापन खोजने वाले लोग बात का रस लेने की बजाय अर्थ का अनर्थ न कर दें। आजकल तो मुँह खोलना मुश्किल हो गया है, कौवा कान ले गया वाला जमाना है। ये लुहेड़े लुहेड़े क्या थे, संत थे। उदार हृदय। अपनी परवाह नहीं। भक्ति और श्रद्घा का भाव। निर्दोष और निष्कलुष। हँसते हुए संत।
दूसरा शौक था दोपहर में सोने का। अब रात को तो ठीक से सोने को मिलता नहीं था, दोपहर में भरपाई कर लते थे। बस थोड़ी देर। भोजन के बाद। गर्मियों में तो वे दिन में कमर के ऊपर कुछ पहनते नहीं थे सिवा जनेऊ के। धोती को ही लपेट लेते थे। अक्सर अपने ढूहे पर पेट के बल लेटते थे और जितनी देर लेटते थे क्या मजाल कि अगल बगल के ढूहों से कोई आवाज हो। होली के आस -पास का कोई दिन था। चालीस वर्ष बीत गए पर वह दृश्य अभी भी एकदम स्पष्ट मेरी आँखों के सामने है। चौबे जी ने बड़े शौक से खुद सुबह सुबह गुलाबजामुन बनाए। उनके दिल में भय रहा होगा कि लड़के लफाड़ी उनके इतनी मेहनत से बनाए कीमती गुलाबजामुनों पर हाथ न साफ कर दें। दोपहर तक तो उनकी नजर मिट्टी के उस मटके पर लगातार बनी हुई थी जिसमें उन्होंने गुलाबजामुन रखे थे पर जब दोपहर में लेटने का समय हुआ तो लगता है उनको चिंता हुई। अब वे गुलाबजामुन चौबे जी खुद तो क्या खाते, शौक से अपने मन के हिसाब से बाँटते। जैसा जिसका शऊर, उसको उतने गुलाबजामुन। चौबे जी पेट के बल अपने ढूहे पर लेटे खर्राटे ले रहे थे। मैं बगल के ढूहे पर था। मैंने देखा गुलाबजामुनों से भरा मटका चौबे जी के ढूहे के नीचे एक रस्सी से बंधा रखा था। रस्सी का दूसरा छोर चौबे जी ने अपने बाएँ घुटने के नीचे टखने से बाँध रखा था ताकि कोई हलचल हो तो उन्हें तुरंत पता चल जाय।
चौबे जी तारीफ और मजम्मत दोनों में कंजूसी करने के पक्ष में नहीं थे। बैलेंस बिठाने वाला मिजाज न था। उस जमाने में शायद ज्यादा आसान भी था। पोलिटिकल करेक्टनेस के मुहावरे का चलन न था। किसी की तारीफ करेंगे तो उसे सातवें आसमान पर बिठा देंगे। अगले दिन मिजाज बिगड़ा तो धड़ाम से धरती पर पटक देंगे। उन्होंने स्थानीय जनसंघ या भाजपा राजनीति की खास परवाह कभी नहीं की। क्षेत्र वेत्र की सुध न ली। इसके बावजूद उनके रुतबे मे कमी नहीं आई। टिकट मिलता रहा। अक्सर जीतते रहे। उनके तार सीधे अटल-आडवाणी से जुड़े थे। इसी खूबी या कमजोरी के कारण उनसे चिढ़ने वालों की कमी नहीं थी।
इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा के साथ धीरे धीरे राजनीतिक कैदियों को छोड़ना शुरु किया। पर इमरजेंसी नहीं हटाई, क्या पता फिर काम आ जाए। वह तो चुनाव हारने के बाद मजबूरी में उठानी पड़ी। चौबे जी मुझसे पहले ही छूट गए। मेरे जैसे दो कौड़ी वालों की सुध कौन लेता ? मैं तो मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद रिहा हुआ। मतलब यह कि यदि इंदिरा गांधी चुनाव जीत जातीं तो हो सकता था इमरजेंसी बदस्तूर जारी रहती और मेरे जैसे लोग आज भी इंदिरा, राजीव, सोनिया, बाबा, बेबी, रबर की कैद में होते। आप इस बात पर हंसेंगे, मुझे संघी पागल कहेंगे। मैं भी हँसता हूँ। संघी पागल तो जमाने से हूं। खैर, अब लौटता हूँ, चौबेजी पर। मैं तो अंदर था, पर जैसा कि बाद में मुझे लोगों ने बताया चौबे जी ने हर सभा में मेरा आसमान की उंचाइयों तक गुणगान किया। मुझे करीब- करीब शहीद भगत सिंह के बराबर खड़ा कर दिया। कोई जगह नहीं थी जहाँ बुलंद आवाज में उन्होंने मेरे बलिदान के गीत नहीं गाए और यही नहीं जैसे कालिदास के मेघदूतम् में यक्ष ने मेघ के पूर्वजों का प्रशस्ति गान किया था, उसी तर्ज पर मेरे परिवार और पूर्वजों की शौर्यगाथा के पुल बाँधे। चौबे जी बहुत अच्छे और जोशीले वक्ता थे। भाषा पर अधिकार था, समां बाँध देते थे।
जेल से टूटने के बाद चौबे जी ने दूसरी शादी की। कई बच्चे बच्चियाँ थे। गली मुहल्ले में कूदते खेलते थे। हमारे पड़ोसी थे। उनमें से कुछ तो हमारे घर में भी धमाचौकड़ी करते थे। मेरी माई को बच्चों से बहुत प्रेम था। चौबे जी के परिवार के रहन सहन का स्तर वही रहा जो बिहार, उत्तर प्रदेश के किसी कस्बे में मध्य या निम्न मध्य वर्ग के परिवार का रहता होगा। चौबे जी व्यस्त आदमी थे और दूसरी दुनिया के वासी थे। घर परिवार को जिस तरह लोग देखते हैं, वे देख न पाए। शायद उनके बस की बात न थी। चौबे जी मंत्री, सांसद जीवन भर रहे और उनकी पत्नी घर के सारे काम वैसे ही करती रहीं जैसे हमारे जमाने की हमारे गाँवों, कस्बों की स्त्रियाँ करती रही हैं। झाड़ू पोंछा से लेकर गोबर पाथने तक। चौबे जी पंचतारा होटल में भी वैसे ही सहज भाव से रहते थे, जैसे गाँव की खटिया पर। गरीबी अमीरी के चक्कर से बाहर थे। उसकी चेतना ही नहीं थी। एक आध बार शायद किसी विदेश यात्रा में गए थे। उन बातों में कोई दिलचस्पी ही नहीं थी। पैसे से उन्हें कोई दुश्मनी नहीं थी। मिल गया तो चलो खर्च करो। नहीं मिला तो खटिए पर मस्त रहो। जो लोग दिनरात ईमानदारी का ढिंढोरा पीटते हैं, उन्हें यह बात वैसे ही समझ नहीं आएगी जैसे एयर पोर्ट पर बड़ों को छोटे बच्चों का वीसा, पासपोर्ट की परवाह न करना समझ में नहीं आता। चौबे जी ईमानदारी बेईमानी के बाहर थे। निरूस्संग, निहंग, अघोर। आप कह सकते हैं उन्होंने पारिवारिक कर्तव्य नहीं निभाया। आपकी बात सही भी हो सकती है पर यह बताइए कि वे औरों की तरह कर्तव्य वर्तव्य से ही जूझते रहते तो फिर वे कैसे चौबे जी होते और आज मैं उनके बारे में क्यों लिख रहा होता ?
चौबे जी कोई संत महात्मा नहीं थे। संत महात्मा तो बहुत हैं और कितने बोरिंग हैं। चौबे जी किसी सजे सँवरे बाग के पौधे न थे, जंगली घास थे। घास और घास के फूल और काँटे। लोग कहते हैं, उनके गाँव में उनकी अंत्येष्टि में भारी भीड़ जुटी। आपको क्या लगता है वह ईमानदारी बेईमानी वाली भीड़ थी? ईमानदारी बेईमानी क्षुद्र बातें हैं।
लोगों के जाने के बाद उनके प्रति श्रद्घांजलि, आत्मा को शांति मिले वगैरह वगैरह बातें कहने की पुरानी रस्म है। मुझसे ऐसी रस्में नहीं निभाई जातीं। खास पर उसके लिए जिसके साथ मेरी जिंदगी का एक हिस्सा चला गया हो पर भींगने पर तो बस नहीं है न। जाना तो सबको है, उसका कोई गिला नहीं। बस, बात न होने पाई।
यही मलाल सालता है। 
(लेखक ब्रिटेन के प्रवासी वरिष्ठ कंसल्टेंट गैस्ट्रोएनटरलजिस्ट के पद पर कार्यरत।)

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