संपादकीय

जुड़ने की कोशिश में बिखरता विपक्ष

मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। कुछ ऐसा ही हाल है विपक्षी एकता का। भाजपा विरोधी दलों को जोड़ने की जितनी कोशिश हो रही है उतना ही इस खेमे में बिखराव नजर आ रहा है। जिनके साथ मिलकर भाजपा और नरेंद्र मोदी से लड़ने की कोशिश हो रही है, वे सब अपनी लड़ाइयों में उलझे हैं। कांग्रेस हो, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड या तृणमूल कांग्रेस सबको एक अदद लाइफ जैकेट की जरूरत है। नीतीश कुमार के सामने अपने सिद्धांत पर टिके रहने की चुनौती है तो लालू प्रसाद यादव के सामने अपने कुनबे को राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखने की। तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने इतने मोर्चे खोल लिए हैं कि वह समझ नहीं पा रही हैं कि किस मोर्चे पर डटें। कांग्रेस पार्टी का तो सारा समय राहुल गांधी के ‘फाड़े’ को ‘रफू’ करने में ही निकल जाता है।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन से शुरू हुई विपक्षी एकता की कोशिश को उपराष्ट्रपति चुनाव आते आते बिहार के महागठबंधन की उलटी गिनती होते देखना पड़ रहा है। विपक्ष की जिस बैठक में गोपालकृष्ण गांधी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना गया उसमें जनता दल यूनाइटेड के शरद यादव शामिल हुए, लेकिन शरद यादव छुट्टा नेता हैं। न पार्टी उनकी बात की परवाह करती है और न ही वह पार्टी लाइन की। इसलिए उनका कहा उन्हीं तक रहता है। लालू प्रसाद यादव और उनका परिवार प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और सीबीआइ के फंदे में है। प्रवर्तन निदेशालय मनी लांड्रिंग के आरोप में लालू प्रसाद यादव उनकी पत्नी राबड़ी देवी, बेटे तेजस्वी यादव, बेटी मीसा भारती और दामाद शैलेश के खिलाफ किसी भी दिन चार्जशीट दाखिल कर सकता है। लगता है कि कांग्रेस का मन अभी संप्रग सरकार के कार्यकाल के घोटालों से हुए राजनीतिक नुकसान से भरा नहीं है। उसकी हालत फीनिक्स पक्षी जैसी हो गई है। यह पक्षी झुंड बनाकर एक दिन अचानक एक पहाड़ी पर जाते हैं और वहां से कूद कर आत्महत्या कर लेते हैं। कोई नहीं जानता कि वे ऐसा क्यों करते हैं? कांग्रेस के बारे में कोई नहीं जानता कि वह लालू यादव के साथ क्यों सती होना चाहती है। राहुल गांधी को पहले अखिलेश यादव का साथ पसंद था, लेकिन अब लालू का साथ पसंद आने लगा है। शायद यही परिवर्तन है जो वह पार्टी में लाना चाहते हैं। लालू यादव का वर्तमान और भविष्य जेल में या जेल जाने से बचने में लगने वाला है, यह जानते हुए भी कांग्रेस ने तय किया है कि वह लालू यादव के साथ खड़ी होगी। आखिर ऐसी कांग्रेस को कौन बचाएगा?

नीतीश कुमार की स्थिति भी कुछ कम विचित्र नहीं है। उन्होंने मोदी को शिकस्त देने के लिए लालू और कांग्रेस से हाथ मिलाया। मोदी को बिहार में शिकस्त देने के बाद जब गैर भाजपा दलों के बड़े वर्ग को उनमें 2019 का नेता नजर आने लगा तो उन्होंने कदम पीछे खींच लिए। बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी। उन्होंने कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के खिलाफ विपक्ष की अगुआई राहुल गांधी करें। अब इसकी तीन वजहें हो सकती हैं। एक उन्हें उम्मीद यह हो कि कांग्रेस और दूसरे दल राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता देखते हुए नीतीश कुमार से नेतृत्व संभालने का आग्रह करें। दूसरा, वह राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को सबके सामने एक्सपोज (जिसके लिए राहल खुद ही काफी हैं) करना चाहते हों। तीसरा, वह किसी और का रास्ता रोक रहे हों। राहुल गांधी हर थोड़े दिन पर ऐसा कुछ करते हैं कि खुद तो तमाशा बनते ही हैं, पार्टी को भी मुसीबत में डालते हैं। पता नहीं किसकी सलाह पर वह नानी के घर से लौटते ही भारत में चीन के राजदूत से मिलने चले गए और वह भी ऐसे तनाव के माहौल में। पहले इस मुलाकात को पार्टी ने फेक न्यूज बताया, फिर पता चला कि चीनी दूतावास ने मुलाकात की खबर वेबसाइट पर डाल दी है तो कांग्रेसी कहने लगे तो मिले तो क्या हो गया? यह हाल पांच दशक से ज्यादा समय तक केंद्र की सत्ता में रहने वाली पार्टी का है। ऐसी कांग्रेस का भविष्य वर्तमान से भी ज्यादा निराशाजनक नजर आता है। अगर नीतीश कुमार राहुल गांधी को मोदी के मुकाबले उतारना चाहते हैं तो यह मोहम्मद अली के सामने जॉनी वॉकर को उतारने जैसा है। 

कांग्रेस और राहुल गांधी को पता नहीं कब समझ में आएगा कि वह भले आदमी हैं, पर राजनीति के लिए नहीं बने हैं। रही बात ममता बनर्जी की तो बंगाल की यह अग्निकन्या अपनी ही लगाई आग में जल रही है। 2014 में लोकसभा की 36 सीटें जीतकर वह बंगाल से निकलकर दिल्ली आती हुई दिख रही थीं। तीन साल बाद ऐसा लग रहा है कि बंगाल से भी उनके पांव उखड़ रहे हैं। उनके अति मुस्लिम प्रेम और मोदी से घृणा ने उनकी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि जो उन्हें सच देखने ही नहीं देती। कभी उन्हें लगता है कि नोटबंदी उनके खिलाफ साजिश है तो कभी वह आरोप लगाती हैं कि मोदी सेना भेजकर उनकी सरकार को अपदस्थ करना चाहते हैं। जीएसटी पर तीन साल तक हर कदम पर समर्थन करने के बाद वह इसे देश के लिए बुरा बता रही हैं। कभी उन्हें नीतीश कुमार का साथ पसंद आता है तो कुछ दिन बाद उन्हें ही गद्दार बताती हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए वह अरविंद केजरीवाल पर मेहरबान थीं। पिछले काफी समय से उन्होंने केजरीवाल का नाम भी नहीं लिया। उन्होंने अभी तक बताया नहीं है कि क्या कांग्रेस की तरह वह भी मानती हैं कि लालू और उनके परिवार के खिलाफ कार्रवाई राजनीतिक बदले की कार्रवाई है?

इस समय सबकी नजर नीतीश कुमार पर है। नीतीश चतुर राजनेता हैं। वे ठंडा करके खाने में यकीन करते हैं। लालू और उनके बेटे के बारे में वह इसी नीति पर चल रहे हैं। बीते मंगलवार को उन्होंने अपने विधायकों सांसदों, और पदाधिकारियों की बैठक बुलाई तो लगा कि वह तेजस्वी के बारे में कोई फैसला ले लेंगे, लेकिन बैठक में इतना हुआ कि तेजस्वी अपने ऊपर लगे आरोपों की सफाई दें। सो अगले दिन तेजस्वी यादव ने आरोपों की सफाई आरोप लगाकर दे दी। अब गेंद फिर उनके पाले में आ गई है। राजद और लालू ने साफ कर दिया है कि तेजस्वी इस्तीफा नहीं देंगे। नीतीश की नजर इस पर होगी कि जब राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं और समर्थकों को अपना भविष्य असुरक्षित लगने लगेगा तो उनके सामने जदयू की शरण में आने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। नीतीश कुमार को यह भी लग सकता है कि लंगड़ा राष्ट्रीय जनता दल ताकतवर भाजपा से ज्यादा सुविधाजनक होगा। हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी लगती है, लेकिन इसकी संभावना/आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इसी संभावना/आशंका के आकलन के आधार पर नीतीश कुमार तय करेंगे कि उन्हें यथास्थिति मंजूर है या बदलाव? उनके इसी फैसले से विपक्ष की दिशा भी तय होगी।

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