ज्ञान भंडार

परदे के पार

‘साइकिल’के मुख्यालय पर लगी ‘दंगल’
बड़ा दिन यानि क्रिसमस के मौके पर मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहे जाने वाले बॉलीवुड के एक हीरो की फिल्म रिलीज हुई। फिल्म का नाम था ‘दंगल’। इस फिल्म के रिलीज होते ही उप्र में इसे मनोरंजन कर से मुक्त कर दिए जाने की घोषणा हो गयी। यह फिल्म मल्टीप्लेक्स के साथ-साथ सिंगल स्क्रीन वाले सिनेमाघरों में भी लगी, लेकिन इसी के साथ ही इस फिल्म का टाइटिल सूबे में सत्तारूढ़ पार्टी के अंदरखाने में चरितार्थ होता दिखा। साइकिल वाली पार्टी में ‘दंगल’ पार्टी में वर्चस्व और टिकट बंटवारे में को लेकर अब चरम पर पहुंच चुका है। या यूं कहें कि अब आर-पार का समय भी आ गया है। कारण यह है कि साइकिल वाली पार्टी की छवि में जो सुधार हुआ है उसके पीछे सरकार के मुखिया का ही चेहरा है। यही वजह है कि सरकार के मुखिया अब यह चाहते हैं टिकट बंटवारे में उनका खास दखल हो, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। उन्होंने जो सूची और अपनी आपत्ति पार्टी मुखिया को दी उसे दरकिनार कर नए सिरे से उम्मीदवारों का एलान हो गया। जाहिर है सरकार के मुखिया की अनदेखी हुई और ‘चाचा’ और ‘अंकल’ बाजी मार ले गए।

नोटबंदी पर रामपुरी चाकू का खौफ
बीते दिनों देश में नोटबंदी करने का बड़ा फैसला हुआ। जाहिर है किसी को यह फैसला रास आया तो किसी को नहीं। यह फैसला रास आये इसलिए इसे देशभक्ति से भी जोड़ा गया लेकिन शुरुआती दिनों में तो यह झांसा चल गया लेकिन बाद में जब परेशानी बढ़ी तो आलोचनाओं का भी पहाड़ खड़ा हो गया। ऐसे में हमेशा मुल्क के ‘बादशाह’ पर हमेशा हमलावर रहने वाले रामपुरी खां साहब कहां चूकने वाले थे। उन्होंने हर मौके पर अपने व्यंग्य बाण चलाकर तंज करने से गुरेज नहीं किया। इसी दौरान एक रैली में बादशाह ने जो खुद को कभी मुल्क का चौकीदार तो कभी सेवक बताते नहीं थकते थे, खुद को झोला लेकर आया फकीर करार दिया। बस फिर क्या था, खां साहब को रामपुरी चाकू को धार देने का मौका मिल गया। बोले, जब यह फकीर जायेगा तो इसके झोले की तलाशी जरूर ली जायेगी। इसी बीच सूबे की सबसे बड़ी पंचायत का सत्र शुरू हो गया। ऐसे में खां साहब कोई मौका नहीं चूकना चाहते थे। उन्होंने पहले से ही अपने तंज भरे लफ्जों को जहर में भिगो दिया था। लेकिन भगवा दल वाले भी तैयार थे, सो उन्हें सदन में बोलने ही नहीं दिया।

किससे करें मन की बात
नोटबंदी करने वाली पार्टी के नेता इन दिनों हलकान हैं। पार्टी कह रही है कि लोगों को नोटबंदी के फायदे समझायें लेकिन चाहे विधायक हों, कार्यकर्ता हों या फिर पदाधिकारी, कोई भी इसकी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। कारण यह है कि ये सभी जमीनी सच्चाई से वाकिफ हैं। विधायक तो दबी जुबान में यह तक कह रहे हैं कि जब माननीय ही नहीं रहेंगे तो फिर क्या होगा। अभी अगर नोटबंदी के गुण दोष समझाने निकलें तो जूतों की बारिष होने की संभावना प्रबल है। हालांकि जमीनी सच्चाई पार्टी आलाकमान को भी पता है लेकिन बावजूद इसके उन्होंने सूबे के सबसे बड़े प्रदेश के सभी 73 सांसदों की बैठक बुलायी और ताकीद किया कि जनता की बीच जायें और नोटबंदी की अच्छाई लोगों को बतायें। आलाकमान के खौफ के आगे कोई भी सांसद नहीं बोला। लेकिन हिम्मत जुटाकर एक सांसद ने सिर्फ इतनी गुजारिश की कि जब वे नोटबंदी की गुणों का बखान करने जायें तो पहली बार आलाकमान उनके साथ हों। बाद में ऐसे ही पार्टी के नेताओं और पदाधिकारियों ने आपस में ही यह कहते दिखे कि अब बताओ हम अपने मन की बात किससे करें।

‘नोटबंदी’ किसी के लिए मौका तो किसी के लिए नुकसान
देश की हुकूमत ने 1000 और 500 के नोटबंद करने का अचानक ऐलान क्या कर दिया, पूरे देश में भूचाल आ गया। पहले तो किसी भी राजनीतिक दल ने खुलकर इसका विरोध नहीं किया क्योंकि उन्हें यह लग रहा था कि यदि विरोध किया तो कालाधन रखने वालों का समर्थक होने का ठप्पा लग जाएगा, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, इस निर्णय के खिलाफ स्वर भी मुखर होने लगे। यह तो दिखा ही कि इस फैसले से आम जनता खासी परेशान हुई। ऐसे में कुछ राजनीतिक दलों को यह एक बड़ा मुद्दा नजर आने लगा। लगा कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो जिनकी आंखों पर देशभक्ति की पट्टी बांध दी गयी है वे भी इस निर्णय के खिलाफ मुखर हो जाएंगे और तब इसका राजनीतिक फायदा लेने में आसानी होगी। इसी सोच के चलते सूबे की साइकिल वाली सरकार के मुखिया को भी अपनी वापसी अब आसान दिखने लगी। इसीलिए उन्होंने कई सरकारी और गैर सरकारी कार्यक्रमों में यह कहा भी कि यह हमारे लिए एक सुअवसर है। यदि सभी एकजुट हो जाएं और नोटबंदी से हैरान-परेशान लोगों को तैयार करें तो सत्ता में वापसी संभव है।

गले की फांस, कैसे करें विरोध
देश की सरकार कई दलों से मिलकर बनी है। हालांकि इस सरकार का नेतृत्व जिस भगवा पार्टी के हाथों में है वह खुद बहुमत में होने बावजूद पूर्व में किए गए गठबंधन का धर्म निभा रही है। केन्द्र की सरकार खुद को गठबंधन की ही सरकार बता रही है, लेकिन इस सरकार के मुखिया द्वारा अचानक नोटबंदी का फैसला लिए जाने के बाद गठबंधन में शामिल दल अब पशोपेश में हैं कि वह क्या करें। अभी तो सत्ता में हैं, लेकिन इस फैसले के कारण जो आर्थिक चोट पहुंची है उसका क्या करें। विरोध करें तो फंस जाएंगे। समर्थन करेंगे तो भविष्य की राजनीति अंधकारमय है। जाहिर है यह ऐसी गले की फांस है जो उगली जा रही है और न ही निगली। केवल सत्तापक्ष ही नहीं, विपक्ष भी इसी गुणा-भाग के चलते एकजुट नहीं हो पा रहा है, जबकि इस दिशा में कोशिशें जारी हैं। बात फिर वहीं आकर अटक जाती है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन। ऐसे में बंगाल की दीदी ने बड़ी हिम्मत दिखाई और खुलकर मोर्चा लिया, लेकिन उनका साथ देने का वादा कर कई दल मुकर गए। यूपी की बहनजी ने भी पांव आगे बढ़ाकर अनजाने डर से वापस खींच लिए।

कोई जप रहा नमो-नमो तो कोई कुछ और
यह सोशल मीडिया का ही करिश्मा था जिसने कि साल 2014 में इस व्यक्ति विशेष के पक्ष में बड़े पैमाने पर माहौल तैयार किया। इसके लिए बकायदा कभी न पीने वाले ‘पीके’ की मदद ली गयी। बात ‘क्लिक’ कर गई और चाय वाला सीएम से पीएम की कुर्सी तक पहुंच गया। 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान भी बड़ी-बड़ी बातें, वायदे और आश्वासन दिए गए, लेकिन फिलहाल आम लोगों को इसका अब भी इंतजार है। इस बीच देश की सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए बड़े नोट अचानक बंद कर दिए। जाहिर है कि इसकी प्रशंसा या आलोचना उसी सोशल मीडिया पर जरूर होनी थी, जहां से इस सरकार के पक्ष में माहौल बना था। सो, ऐसा हुआ भी, लेकिन शुरुआती दिनों में प्रशंसा करने वाले भी अन्तत: हांफते नजर आए और उन्होंने आलोचनाओं के कमेंट और ट्वीट पर ‘रीएक्ट’ करना कम कर दिया। जाहिर है कि जमीनी सच्चाई यानि ‘ग्राउण्ड रियलिटी’ जानने के बाद कई नमो भक्तों की निष्ठा भी डोल गयी। अब ऐसे भक्तों ने कमेंट करने से परहेज करना शुरू कर दिया है।

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