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‘प्रारम्भ से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त था भारत का समाज’

ज्ञान अतृप्ति का अपना आनंद है। उपनिषद् साहित्य में इसीलिए प्रश्न और प्रतिप्रश्न हैं। प्रश्नों की इसी परंपरा के कारण भारत में सृष्टि रहस्यों के प्रति गहन जिज्ञासा थी। जगत के तमाम रहस्य उत्तर वैदिक काल में ही खोज लिए गए थे। भारतीय चिंतन में कठोपनिषद् की प्रतिष्ठा है। इस कथा में जिज्ञासु युवा नचिकेता ने यम से अग्नि विद्या के रहस्य पूछे थे। यम ने उसे विस्तार से अग्नि विद्या सिखाई और कहा, “नचिकेता यह अग्नि विद्या सभी तरह के सुख देने वाली है। इस अग्नि विज्ञान को लोग तुम्हारे नाम से जानेंगे। अब तुम तीसरा वर मांगो।” (कठोपनिषद् 1.1.19) यम नचिकेता की कथा में नचिकेता को यम ने तीन वरदान देने की घोषणा की थी। नचिकेता ने सार्वभौम जिज्ञासा से जुड़ा अंतिम प्रश्न पूछा “मृत मनुष्य के विषय में संशय है। कुछ लोग कहते हैं कि मरने के बाद मनुष्य का आत्म तत्व बचा रहता है लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि कुछ भी शेष नहीं बचता। आपका इसी विषय पर उपदेश चाहिए। मैं यही जानना चाहता हूं। यह मेरा तीसरा वर है।” (वही 20) गीता प्रेस गोरखपुर के भाष्य में पाद टिप्पणी है, “यह प्रश्न आत्मज्ञान विषयक है न कि आत्मा के अस्तित्व में संदेह विषयक।” तर्क है कि नचिकेता ने अग्नि विद्या को स्वर्ग सुखदाता कहा है। स्वर्ग को मानने वाले नचिकेता के मन में आत्मा को लेकर कोई संदेह नहीं है। इसीलिए उसने कुछ लोगों के दो मत बताए हैं। अपना नहीं।
आत्म तत्व की जिज्ञासा पुरानी है। प्राचीन भारतीय दर्शन में अनेक विचार रहे हैं। आत्मा के अस्तित्व पर मत भिन्नता स्वाभाविक ही थी। नचिकेता के मन में भी आत्मा को लेकर संदेह होना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। उसका प्रश्न सीधा है। यम के उत्तर में भी तत्कालीन समाज की वैचारिक विविधता की खूबसूरत झांकी है, “इस विषय में पहले देवताओं में भी संदेह रहा है। यह अणु जैसा सूक्ष्म विषय है। आसानी से समझ में आने वाला नहीं है। इसलिए तुम कोई दूसरा वर मांग लो या दूसरा प्रश्न पूछ लो। मुझ पर दबाव न डालो। इस वर को मुझे लौटा दो (वही 21) यहां देवताओं में भी संशय की बात दिलचस्प है। आत्मा के अस्तित्व सम्बंधी प्रश्न पर देवता भी एक मत नहीं रहे। बहुत संभव है कि देवता शब्द उच्चस्तरीय ज्ञानियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। तब ज्ञानी भी आत्मा के सम्बंध में एकमत नहीं थे। वैदिक समाज के विद्वानों में भी आत्मा के अस्तित्व पर विचार भिन्नता थी। इसका अर्थ साफ है कि आत्मा परमात्मा जैसे आस्तिकता वाले प्रश्नों पर भी भारत में खुली बहसे थीं। एक परिपूर्ण आध्यात्मिक लोकतंत्र भी था। अंधविश्वासों से टकराने का वातावरण था। इसी प्रकृति के कारण भारत का समाज प्रारम्भ से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त था।
कठोपनिषद् की इस कथा में रोचकता है। यम आत्मा के जानकार हैं। लेकिन वे नचिकेता के प्रश्न को टालने का प्रयास करते हैं। सो क्यों? संभवतः वे उसे शिुश जानकर इस सूक्ष्म तत्व की समझ का अधिकारी नहीं मानते। लेकिन यह बात सच नहीं जान पड़ती। वे इस प्रश्न के पहले उसे अग्नि विज्ञान बता चुके हैं। जान पड़ता है कि आत्मा जैसे गूढ़ रहस्य पर वे विस्तार से बोलने बताने के लिए अनिच्छुक रहे हों। नचिकेता ने उनके टालमटोल को साग्रह काटा “आपने बताया है कि इस विषय पर देवों ने भी विचार किया था। यह आसानी से समझ में आने वाला नहीं है – न च सुविज्ञेयम। लेकिन इस विषय का आप जैसा अधिकृत दूसरा वक्ता भी नहीं है। इसलिए यह विषय महत्वपूर्ण है। आप यही बताइए।” (वही 22) यहां नचिकेता आग्रही प्रश्नकर्ता हैं और समूचे व्यक्तित्व से जिज्ञासु। यमराज उसे कुछ भी देने को तैयार हैं लेकिन वह अपनी जिज्ञासा पर अटल और अडिग। उसका संकल्प सर्वोपरि है। विकल्प पर विचार का कोई प्रश्न नहीं। भारतीय तत्वज्ञान का विकास ऐसे ही हठयोग से हुआ था लेकिन हम सब विकल्पों में जीते हैं।
ज्ञान का विकल्प नहीं होता। आत्मज्ञान का तो कतई नहीं। जीवन के प्रवाह का प्रश्न अद्वितीय है। हमारे इस संसार में होने और न होने की कोई नियमावली तो होनी ही चाहिए। प्रकृति अराजक नहीं है। हमारा होना और न होना भी किन्हीं सुसंगत नियमों में ही होना चाहिए। प्रकृति शून्य से नहीं उगती। कभी भी शून्य नहीं होती। प्रलय में भी नहीं। मनुष्य प्रकृति का भाग है। वह प्रकृति से उगा है तो मृत्यु उसे पूरा का पूरा कैसे नष्ट कर सकती है? जीवन के प्रवाह में मृत्यु अर्द्धविराम ही हो सकती है। पूर्ण विराम नहीं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि ऐसा कोई भी समय नहीं था, जब हम या तुम नहीं थे। लेकिन अर्जुन तू यह बात नहीं जानता। मैं यह बात जानता हूं। अर्जुन और श्रीकृष्ण की प्रश्नोत्तर जोड़ी विश्व दर्शन के इतिहास में अजर-अमर है। वैसे ही नचिकेता और यम की प्रश्नोत्तर जोड़ी और भी ज्यादा मननीय है। गीता में अर्जुन के तमाम प्रश्न और श्रीकृष्ण के उत्तर व कठोपनिषद् के प्रश्नोत्तर एक जैसे हैं। अंतर दोनों प्रश्नकर्त्ताओं की मानसिक दशा का है। अर्जुन विषादग्रस्त है। नचिकेता जिज्ञासु है, तरूण मन है। इसलिए नचिकेता अपने प्रश्न पर अटल है। अर्जुन को विषाद से उबरने का ज्ञान मिलता है और नचिकेता को आनंद प्राप्ति का बोध। यद्यपि अंततः दोनों एक हैं।
कर्त्तापन भोक्तापन ही व्यावहारिक संसार है। भारतीय चिन्तन में कर्त्तापन की सोच को दुखदायी बताया गया है। कर्त्तापन के साथ भोक्तापन भी जुड़ा हुआ है। यहां आत्मज्ञान को ही दोनो से मुक्ति का संधान जाना गया है। नचिकेता की मूल जिज्ञासा यही थी लेकिन यम उसे सांसारिक सुख देने का प्रस्ताव करते हैं। सांसारिक सुख हेय नहीं प्रेय है। मुक्ति या मोक्ष की इच्छा भी सांसारिक सुखों की सघनता और व्यर्थता में पैदा होती है। योग, ध्यान और तप आदि की क्रियाएं भी इसी संसार में घटित होती हैं किसी अन्य लोक में नहीं। इसलिए संसार भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यम ने नचिकेता से कहा, “सैकड़ो वर्ष की आयु वाले पुत्र पौत्रों में आनंद मनाओ। पशुधन सुवर्ण, हाथी और अश्व प्राप्त करो। विशाल आयतन वाली भूमि प्राप्त करो। तुम स्वयं इच्छानुसार दीर्घायु प्राप्त करो। चिरंजीवी बनो और तद्नुसार धन प्राप्ति करो। इस पृथ्वी के सम्राट बनो। मैं तुमको उत्तम भोगों को प्राप्त करने वाला बना देता हूँ।” (वही 23 व 24) संसार कर्म क्षेत्र है। यहां भोग है। प्रत्यक्षतया भोग के सुख हैं लेकिन साथ में दुख भी है। सम्राट होना बड़ा सुख है लेकिन उसके अपने तनाव भी हैं। बुढ़ापा और मृत्यु के दुख हैं ही। बुद्ध दर्शन के अनुसार जीवन दुखमय है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप में संसार आनंद भोग का क्षेत्र है।
संसार दुखमय ही नहीं है। सुख और दुख मानसिक स्थितियां है। बुढ़ापे को दुख कहा गया है और मृत्यु को भी। बुढ़ापा हमारी वृद्धि का चरम है। वृद्धि दुख कैसे है? तरूणाई कच्चा फल है। खट्टा ज्यादा मीठा कम। बुढ़ापा पका फल है। रस गंध से परिपूर्ण। डाल से अलग होकर सबको रस देने में ही उसकी संपूर्णता है। आनंद के तमाम स्रोत हैं। उपनिषद् के ऋषियों के अनुसार ब्रह्म प्राप्ति का आनंद सर्वोत्तम है, यह ब्रह्मानंद है। ब्रह्म का मुख्य काम सृजन है। प्रतिपल सृजन। मनुष्य भी प्रतिपल सृजनरत होकर आनंदित क्यों नहीं हो सकता। यम नचिकेता को सांसारिक सुखों की नई सूची देते हैं, “संसार में दुर्लभ सारी कामनाएं पूरी करो। रथ, वाद्य, संगीत आदि के सुख लो। मृत्यु के बाद क्या होता है? इसकी चिन्ता न करो, न पूछो।” (वही 25) तब एक दार्शनिक धारा संसार को अनित्य बताती थी और स्वर्ग मोक्ष आदि की बात करती थी। एक धारा इसी संसार को सत्य बताती थी। यम इसी धारा की बात कर रहे थे। नचिकेता ने कहा, “ये सब क्षणिक अल्पकालिक सुख हैं। ये सुख मनुष्य का तेज क्षीण करते हैं। दीर्घायु भी हमेशा नहीं रहती। यह नृत्यु गीत आदि के सुख मुझे नहीं चाहिए।” (वही 26) नचिकेता ने कहा “मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं होता। हमे आप मिले हैं। धन भी पा लेंगे। आपकी इच्छानुसार हम जीवन भी पाएंगे। इसलिए आप मुझे वही बताएं जो मैंने पूछा है। यह मनुष्य जीर्ण होकर मरता ही है। मरणशीलता का तत्व जानने वाला कोई भी व्यक्ति आप जैसे अमर का साथ पाकर भी अल्पकालिक या दीर्घकाल तक जीवित रहकर आमोद प्रमोद से क्यों प्रेम रखेगा? इसलिए मुझे वही आश्चर्यजनक तत्व बताइए कि मरने के बाद जीव का क्या होता है?” (वही 27, 28 व 29) तत्वज्ञान के प्रति ऐसी दृढ़निष्ठा ने ही नचिकेता को इतिहास और पुराकथाओं में अजर-अमर बनाया है।

(रविवार पर विशेष)

  • हृदयनारायण दीक्षित

(आलेख में व्यक्त किये गये विचार लेखक के निजी विचार हैं, इससे सम्पादक/प्रकाशक का सहमति होना आवश्यक नहीं है।)

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