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प्रियंका करिश्माई होंगी !

के. विक्रम राव

अपने सारे जीवन में प्रियंका केवल दर्शक दीर्घा से ही संसद की कार्यवाही देखती रहीं| इतना ही अनुभव है| काबीना मंत्रियों का टेलीफोन पर मार्गदर्शन करती रहीं| भाई (अमेठी) और माँ (रायबरेली) के लोकसभायी क्षेत्रों में क्रियाशील रहीं| मगर 2014 में राहुल गांधी चुनाव के दिन घबराकर अमेठी आये क्योंकि अभिनेत्री और नौसिखिया स्मृति ईरानी ने उनके गढ़ ध्वस्त कर दिये थे| पुराने विजय के अन्तर इस बार तीन लाख वोटों से गिरकर, एक लाख तक आ गये थे| स्थानीय वोटर कहते भी हैं कि प्रियंका पांच सालों में एक बार पधारती हैं| अमेठी तो दो साल से फटकी भी नहीं| वे याद कराते हैं कि इसी टालूपन के कारण 2009 में प्रदेश में जो 21 लोकसभायी कांग्रेस ने जीते थे जो 2014 में महज दो रह गये| उनके भाई और माताश्री वाले ही| विधायक संख्या भी एक अंक अर्थात् सात ही रह गयी| पार्टी कंकाल सी दिखने लगी| अतः प्रियंका को संजीवनी लानी होगी| पार्टी के अग्रणी मानते हैं कि प्रियंका का करिश्मायी प्रचार यूपी की तरुणायी के लिये चुम्बक होगी| यदि ऐसा नहीं हुआ तो ? मोदी पर ईवीएम वाले प्रधानमंत्री का लांछन फिर लगेग| मगर करिश्मा की धवलता बनी रहेगी?

 

स्तम्भ : पिछले दिनों जब “राष्ट्रीय बालिका दिवस” देश मना रहा था तो उसी दिन राहुल गांधी ने अपनी अनुजा प्रियंका को पार्टी महासचिव नामित कर दिया| नरेंद्र मोदी को यह सकून हुआ होगा कि “बेटी बढ़ाओ” का तीसरा सूत्र सोनिया गांधी ने प्रतिपादित कर दिया| साढ़े चार वर्षों से प्रधान मंत्री “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” की सूक्ति प्रचारित कर रहे थे| तनिक इस सुधरी सोच पर गौर कर लें| पुत्ररत होना सदैव मातृस्वभाव है| यही मूलभूत कारण है कि उनके पुत्र को “पप्पू” से “बाबा” बनाने में दो दशक लगे| अब तो राहुल अधेड़ हो गए| क्योंकि पचास की दहलीज पर हैं| उम्र का यही तकाजा भी होता है प्रौढ़ता आने पर| मगर प्रियंका भिन्न हैं| वे तनमन से, देखने में प्रमदा और सुनने में तरुणी लगती हैं| अब सवा सौ साल से ऊपर चल रही कांग्रेस पार्टी का भी इतिहास देख लें| अमृतसर (1919) से अमेठी (आज) तक के कालखंड में नेहरु घराने का नाता बाप-बेटा, बाप-बेटी, माँ-बेटा, फिर बहू-पोता की जुगलबंदी द्वारा होता रहा| मगर भाई-बहन युग्म का संयोग दशकों बाद सर्जा है| बात 1937 की है जब संयुक्त प्रान्त में विधान सभा के निर्वाचन में राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार बनी थी| गोविन्द वल्लभपन्त प्रधान मंत्री (तब यही मुख्यमंत्री कहलाता था) थे| कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अनुजा विजयलक्ष्मी नेहरू-पंडित को काबीना मंत्री नियुक्त कराया था| स्वास्थ्य विभाग मिला था| तभी से डॉक्टरों के स्थानान्तरण की रेट निर्धारित कर दी गई थी| सीखचों के पीछे से तब सत्ता पर आये देशभक्त कांग्रेसियों ने खादी के स्थान पर उत्कोच-प्रणाली को लघु उद्योग बना दिया था| बापू व्यथित हो गए थे| बोफोर्स की आधारशिला तभी पड़ी थी| फ़िलहाल चंद पत्रकार साथी सोनिया-राहुल-प्रियंका गाँधी के प्रसंग पर अपनी फितरत दर्शाने में बाज नहीं आये|

उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ा महागठबंधन के जवाब में इस कांग्रेसी कदम का नाम रक्षागठबंधन रख दिया| उधर, वैयाकारिणी सहाफियों ने अर्धविराम का स्थानान्तरण कर वाक्य विन्यास बदल दिया| मोदी के “बेटी बचाओ” वाले नारे के बीच अर्धविराम लगा दिया अर्थात् सूत्र अब गुहार बन गया कि “बेटी, बचाओ” तो प्रियंका को पहरेदारी का रोल मिला| जिस धुंआधार तरीके से कांग्रेस अध्यक्ष के निर्णय का प्रचार-प्रसार हुआ, बड़ा वॉलीबुड टाइप था| मानो वाड्रा की नामजदगी नहीं उसी नामराशि की चोपड़ा की फिल्म छविघरों में लग गयी हो| अर्थात् नेता और अभिनेता में फर्क धुंधला पड़ गया है| नेहरू वंश की पांचवी पीढ़ी का शुभलाभ और चुनावी बीजगणित का विश्लेषण भी जरा कर लें| प्रियंका के पुरबिया अंचल सँभालने से दोआब में कितनी सियासी बाढ़ आयेगी? यहां पर यह स्पष्ट करना होगा कि प्रियंका ढाई दशकों से कांग्रेस और राष्ट्र की राजनीति में सक्रिय रही हैं, पार्श्वभूमि में सही| गत 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा निर्वाचन में जब राहुल गांधी और अखिलेश यादव का संवाद टूट गया था तो प्रियंका ने ही डिम्पल यादव से बात कर दोनों पुरुषों को बड़े हित हेतु छोटे स्वार्थ तजने पर विवश किया था| हालांकि फिर भी पंजा और साईकिल ढीले ही रहे| योगी ने सभी को ठिकाने लगा दिया| यह सरासर राहुल गांधी की पराजय थी| अब तो लोकसभा निर्वाचन में कांग्रेस तो बहिष्कृत पार्टी सी हो गयी| बंगलूर में राहुल गांधी ने बाँहें उठाकर नरेंद्र मोदी का बाजा बजा दिया था| विजय रैली में खूब दहाड़े थे| छमाही भी नहीं हुई| आज राहुल न ममता के हैं और न बसपा के| अर्थात् त्रिकोणी मतदान में राहुल यदि अलग-थलग पड़ गये तो? बहन की मशक्कत कितनी कारगर रहेगी? सियासी बाजार में भी बात गर्म है कि प्रियंका का पदार्पण इसी निमित्त से कराया गया, क्योंकि पप्पू अभी पास नहीं हुआ|

सार्वजानिक तौर पर राहुल ने कहा कि नवनामित पार्टी महामंत्री उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की परम्परागत विचारधारा तथा चिंतन को फैलाएंगी| कभी कांग्रेसी की नीति और नियम थे कि खादी वस्त्र पहनेंगे| नशाबंदी लागू करना है, आम व्यवहार में शुचिता रखनी है| सादगी रहन-सहन का अनिवार्य आधार है| सर्वधर्म समभाव जीवन का सिद्धांत है| अहिंसा धर्म है| राहुल-कांग्रेसीजन इन सब को जानते ही नहीं| तो, प्रियंका किस विचारधारा को यू. पी. में प्रचारित करेंगी? इस बीच राहुल गांधी दत्तात्रेय गोत्र अपनाकर, पुष्कर तथा मानसरोवर यात्रा कर, बहुसंख्यकों को लुभा रहे हैं| विप्र खुश भी हो रहा है| मगर राहुल को भी परिधान से न सही, चिंतन से भगवा होना है, तो फिर वोटर पशोपेश में हैं कि कर और कमल में से वोट किसे दें? अन्तर कितना रखा राहुल ने? इस सिलसिले में प्रियंका वाड्रा का आकलन करना होगा कि वह कितनी आगे देखूँ रहीं होंगी? उसकी स्वीकार्यता कितनी व्यापक रहेगी| हालांकि लखनऊ में माल एवेन्यू- स्थित नेहरु भवन के कांग्रेस पार्टी कार्यालय की पहली मंजिल में वे विराजेंगी जिसमें उनकी दादी बैठा करती थीं| अर्थात् प्रदेश पार्टी अध्यक्ष राजबब्बर बेदखल हो जायेंगे| महामंत्री ही पार्टी मुखिया की बिगबॉस होंगी| सत्ता के समानांतर केंद्र हो जाएंगे।

प्रियंका कितनी कारगर होंगी इस पर कई कलम-बहादुर और टीवी-वादकजन बोलते नहीं अघा रहे हैं| कुछ ने उनमें दादी की परछायी और तेवर देखे| गनीमत है आत्मा नहीं देखी, पुनर्जन्म नहीं कह डाला| क्योंकि पोती को पितामही गोद में खिला चुकी हैं| फ़िलहाल “इंदिरा की वापसी” के पोस्टर लखनऊ में लगाये गये हैं| अब कद में वे अपनी माता, अग्रज, दादी आदि से लम्बी हैं (5 फिट 7 इंच)| तो काठी और दिमाग को उसी पैमाने से मापा जा रहा है| एक शीर्षक छपा था कि प्रियंका ने सियासत में छलांग लगायी, मानो कोई ओलम्पिक तैराकी की प्रतिस्पर्धा हो| प्रियंका के वाक्चातुर्य, संगठन क्षमता, राजनीतिक अनुभव तथा लुभाने के कौशल पर चर्चा के समय लखनऊ प्रेस क्लब में अपने को महारथी मानने वाले एक मीडिया साथी ने सटीक बात कही| विगत दो दशकों से (1999 से) प्रियंका सिर्फ माँ और भाई की निकटतम परामर्शदात्री रहीं| अतः कहावत के मुताबिक एक बंद मुट्ठी की भांति वे सवा लाख वाली तो हैं| अब तो वह पर्दा उठाकर मंच पर आ गयी हैं| अतः उन्हें सिद्ध करना होगा कि अभी भी वह सवा लाख की हैं|

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 

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