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पड़ोसियों को संभालना होगी प्रमुख चुनौती

पाकिस्तान पूरी तरह से अलग-थलग हो पाया या फिर चीन अपने सदाबहार दोस्त को लगातार मूल-धारा के राजनय में लाने के जो प्रयास कर रहा है, उसके कारण पाकिस्तान फिर-फिर भारत के खिलाफ ऐंठ कर खड़ा हो जाता है या अमेरिकी आर्थिक सहायता के बंद होने के बाद भी घुटनों के बल बैठता नहीं दिख पा रहा। इस वर्ष भारत की ‘यूएस सेंटर्ड’ कूटनीति पर ब्रेक लगता दिखा। इसका कारण शायद यह रहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति ने बराबरी की साझेदारी पर विराम लगा दिया और उनकी अनिश्चितता की विदेश नीति ने रणनीतिक साझेदारी पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया।

नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण के साथ ही ‘नेबर्स फस्र्ट’ की नीति की शुरुआत हुयी और इसके बाद क्रमश: ‘हेड-ऑन डिप्लोमैसी’, ‘हार्ट-टू-हार्ट डिप्लोमैसी’, ‘टच थेरेपी बेस्ड डिप्लोमैसी’, ‘डिजिटल डिप्लोमैसी’, ‘मैरीटाइम डिप्लोमैसी’, ‘एक्ट ईस्ट’, ‘फास्ट ट्रैक बेस्ड डिप्लोमैसी’….आदि से गुजरते हुए ‘इनफार्मल डिप्लोमैसी’ पर पहुंच गयी। अब सवाल यह उठता है कि क्या लोकप्रियता की विदेश नीति भारत को अनुकूल परिणाम भी दिला पायी? हां में उत्तर दिया तो जा सकता है लेकिन सम्पूर्ण सहमति के साथ नहीं। कारण यह कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनय की शुरुआत पड़ोसी प्रथम से की थी लेकिन पड़ोसी भारतीय परिधि से कई छिटकते, सकुचते या फिर विपरीत दिशा में मुड़ते दिखे। तब फिर आने वाले समय में भारत की विदेश नीति की प्रमुख चुनौती क्या यही होगी अथवा कोई और? भारत की कूटनीति में मुख्य आयामों में- पाकिस्तान को वैश्विक कूटनीति से अलग-थलग करना, चीन के साथ सम्बंधों को ‘फ्रेमनीज’ के दायरे से निकालकर ‘फ्रैंडशिप’ की परिधि में लाना, अमेरिका के साथ ‘कॉम्प्रीहेंसिव साझेदारी’ स्थापित करना, रूस के साथ सम्बंधों की ‘रिसेपिंग’ करना, मध्य-पूर्व के साथ ‘पुनर्संतुलन’ स्थापित करना, जापान के साथ आर्थिक और सामरिक साझेदारी का नया फलक तलाशना, खाड़ी देशों के साथ ‘परम्परा और मूल्यों’ की साझेदारी पर जोर देना, इजरायल के साथ सम्बंधों को टैबूज की श्रेणी से निकाल कर बाहर लाना और अनयोन्याश्रिता पर आधारित कूटनीतिक रिश्ते कायम करना और पड़ोसी देशों के साथ भ्रातृत्वपूर्ण समानता की साझेदारी स्थापित करना, आदि रहे। लेकिन क्या पाकिस्तान पूरी तरह से अलग-थलग हो पाया या फिर चीन अपने सदाबहार दोस्त को लगातार मूल-धारा के राजनय में लाने के जो प्रयास कर रहा है, उसके कारण पाकिस्तान फिर-फिर भारत के खिलाफ ऐंठ कर खड़ा हो जाता है या अमेरिकी आर्थिक सहायता के बंद होने के बाद भी घुटनों के बल बैठता नहीं दिख पा रहा। इस वर्ष भारत की ‘यूएस सेंटर्ड’ कूटनीति पर ब्रेक लगता दिखा। इसका कारण शायद यह रहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फस्र्ट’ की नीति ने बराबरी की साझेदारी पर विराम लगा दिया और उनकी अनिश्चितता की विदेश नीति ने रणनीतिक साझेदारी पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया।

भारत ने ईरान के साथ बेहतर तालमेल करने हुए चाबहार बंदरगाह को विकसित करने और उसे खोलने में सफलता अर्जित कर ली। ध्यान रहे कि चाबहार को सामान्य तौर पर भले ही कारोबार से जोड़कर देखा जा रहा हो लेकिन यह ‘नार्थ-साउथ अंतर्राष्ट्रीय गलियारे’ से जुड़कर भारत के लिए मध्य-एशिया में प्रवेश हेतु ‘प्रवेश द्वार’ साबित होगा। यह अफगानिस्तान से भारत की कनेक्टिविटी को बढ़ाएगा और पाकिस्तान को दरकिनार करने में सहायक होगा। यह ग्वादर का काउंटर करने में मदद करेगा। इस वर्ष भारत को सेशेल्स के साथ एसम्पशन आइलैंड (सेशेल्स) में नौसेनिक अड्डा निर्मित करने सम्बंधी समझौता करने में सफलता मिली। यद्यपि औपचारिक तौर पर भारत इसका केवल व्यवसायिक प्रयोग ही कर सकेगा लेकिन यदि वह इससे चाबहार को जोड़ ले जाता है तो स्वाभाविक रूप से चीन के ग्वादर-जिबूती लिंक को काउंटर करने में कुछ हद तक सफल हो सकता है। लेकिन अमेरिकी रवैया भारत-ईरान सम्बंधों में धीमापन ला सकता है।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि भारत और अमेरिका के बीच होने वाली ‘2 प्लस 2’ वार्ता दो बार टाली गयी। अब या तो इसकी वजह से भारत चीन और रूस की तरफ ‘अनौपचारिक कूटनीति’ के लिए बढ़ा या फिर अमेरिका ने भारत के इन कदमों को देखते हुए धीमी गति से निर्णय लेने की कोशिश की। बहरहाल सितम्बर महीने में भारत-अमेरिका ‘2 प्लस 2‘ वार्ता सम्पन्न हुयी और भारत ने उन चार फाउंडेशनल एग्रीमेंट्स में से एक पर हस्ताक्षर भी किए जिनके लिए अमेरिका बिल क्लिंटन के शासनकाल से भारत पर दबाव बना रहा है। ध्यान रहे कि अमेरिका भारत के साथ चार फाउंडेशनल एग्रीमेंट्स-ग्सोमिया, लिमोआ, कॉमकासा और बेका। हालांकि अमेरिका ‘2 प्लस 2’ वार्ता से पहले ही भारत को एसटीए-1 (कण्ट्रीज एनटाइटिल्ड टू स्टैज्टेजिक ट्रेड अथॉराइजेशन) की श्रेणी प्रदान कर चुका है जो पहली बार किसी गैर नाटो देश के रूप में भारत को दी गयी है, जो भारत की सफलता का प्रतीक है। इससे पहले वह भारत को 99 प्रतिशत डिफेंस टैक्नोलॉजी का प्रयोग करने की अनुमति दे चुका है और भारत को अपना ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ घोषित कर चुका है लेकिन रूस के साथ एस-400 सुपरसोनिक एयर डिफेंस सिस्टम सम्बंधी सौदे का वह विरोध करता रहा और जब यह सौदा हो गया तो सम्भवत: उसे अच्छा नहीं लगा। तो क्या आने वाले समय में अमेरिका पुन: पहले जैसा ही दिखेगा या फिर उसके राहें थोड़ी जुदा होंगी। चूंकि ट्रंप एक अनिश्चित प्रशासक, अनिश्चित राजनय के पोषक और अनिश्चित उत्तराधिकारी हैं इसलिए भविष्य के लिए कुछ भी कहना उचित प्रतीत नहीं होता लेकिन अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की पूरी तरह से वापसी के बाद स्थितियां बदलेंगी और अमेरिका का रुख भी।

भारत ने ईरान के साथ बेहतर तालमेल करते हुए चाबहार बंदरगाह को विकसित करने और उसे खोलने में सफलता अर्जित कर ली। ध्यान रहे कि चाबहार को सामान्य तौर पर भले ही कारोबार से जोड़कर देखा जा रहा हो लेकिन यह ‘नार्थ-साउथ अंतर्राष्ट्रीय गलियारे’ से जुड़कर भारत के लिए मध्य-एशिया में प्रवेश हेतु ‘प्रवेश द्वार’ साबित होगा। यह अफगानिस्तान से भारत की कनेक्टिविटी को बढ़ाएगा और पाकिस्तान को दरकिनार करने में सहायक होगा। यह ग्वादर का काउंटर करने में मदद करेगा। इस वर्ष भारत को सेशेल्स के साथ एसम्पशन आइलैंड (सेशेल्स) में नौसैनिक अड्डा निर्मित करने सम्बंधी समझौता करने में सफलता मिली। यद्यपि औपचारिक तौर पर भारत इसका केवल व्यवसायिक प्रयोग ही कर सकेगा लेकिन यदि वह इससे चाबहार को जोड़ ले जाता है तो स्वाभाविक रूप से चीन के ग्वादर-जिबूती लिंक को काउंटर करने में कुछ हद तक सफल हो सकता है। लेकिन अमेरिकी रवैया भारत-ईरान सम्बंधों में धीमापन ला सकता है। उल्लेखनीय है कि ट्रंप ने पहले ही ईरान के साथ सम्पन्न हुए नाभिकीय समझौते (5प्लस1) को एकपक्षीय ढंग से खारिज कर चुके हैं और ईरान से आर्थिक सम्बंध रखने वाले देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दे चुके हैं। इसी का परिणाम है कि भारतीय कम्पनियों ने ईरान से पहले के मुकाबले तेल आयात कम कर दिया है। यदि आयात कम हुआ या भारत ने अमेरिका दबाव में आगे बढ़ने का निर्णय लिया तो स्थितियां प्रतिकूल होंगी। हालांकि भारत की तरफ से इस सम्बंध में अभी तक को दृढ़ता का परिचय दिया गया है।

भारत ने ‘दक्षेस’ के विकल्प के रूप में ‘बिम्सटेक’ को विकसित कर लिया है और पाकिस्तान को इससे दूर रखने में सफल रहा है। यदि यह संगठन सफल होता है तो पाकिस्तान बंगाल की खाड़ी से सरोकार रखने वाले देशों में अलग-थलग पड़ जाएगा। लेकिन चिंता की बात यह है कि नेपाल और थाईलैण्ड का रुख हमारे सपनों पर ब्रेक लगाने वाला दिख रहा है क्योंकि बिम्सटेक बैठक के बाद नेपाल और थाईलैंड ने भारत के साथ संयुक्त सैन्य युद्धाभ्यास में भाग लेने से इंकार कर दिया था। इधर नेपाल ‘लाल झण्डे’ यानि चीन के प्रभाव में आ चुका है इसलिए वह भारत के साथ तो नहीं खड़ा होगा और डोकलाम घटना के बाद से चीन भूटान में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा है। यह भारत के लिए चुनौती ही है। हां श्रीलंका और मालदीव में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों में हमें आंशिक कूटनीतिक सफलता अवश्य मिली है

पाकिस्तान को अलग-थलग करने में उसे कुछ हद तक सफलता मिली और यूएन महासभा के अधिवेशन के दौरान ईरान मामले पर अमेरिका को झिड़कने का साहस सराहनीय रहा। लेकिन पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबंधों या आर्थिक मदद रोकने सम्बंधी अमेरिकी कार्यवाही भारतीय राजनय का प्रभाव न होकर डोनाल्ड ट्रंप की पाकिस्तान नीति का परिणाम है। यदि अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति यही रवैया रहा तो पाकिस्तान की रीढ़ टूटेगी। संभव है कि धन की कमी के कारण वह आतंकवादी संगठनों को पोषण नहीं दे पाएगा। यदि ऐसा हुआ तो आतंकी कमजोर पड़ेंगे और उनके भारत के खिलाफ लड़ने की क्षमता कमजोर पड़ेगी। पाकिस्तान और उसके इन आतंकी संगठनों का कमजोर पड़ना भारत के लिए बेहतर होगा क्योंकि इन दोनों की भारत के खिलाफ लड़ने के लिए अपेक्षित क्षमता घटेगी। एक बात और अच्छी हुयी कि भारत ने ‘दक्षेस’ के विकल्प के रूप में ‘बिम्सटेक’ को विकसित कर लिया है और पाकिस्तान को इससे दूर रखने में सफल रहा है। यदि यह संगठन सफल होता है तो पाकिस्तान बंगाल की खाड़ी से सरोकार रखने वाले देशों में अलग-थलग पड़ जाएगा। लेकिन चिंता की बात यह है कि नेपाल और थाईलैण्ड का रुख हमारे सपनों पर ब्रेक लगाने वाला दिख रहा है क्योंकि बिम्सटेक बैठक के बाद नेपाल और थाईलैंड ने भारत के साथ संयुक्त सैन्य युद्धाभ्यास में भाग लेने से इन्कार कर दिया था। इधर नेपाल ‘लाल झण्डे’ यानि चीन के प्रभाव में आ चुका है इसलिए वह भारत के साथ तो नहीं खड़ा होगा और डोकलाम घटना के बाद से चीन भूटान में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा है। यह भारत के लिए चुनौती ही है। हां श्रीलंका और मालदीव में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों में हमें आंशिक कूटनीतिक सफलता अवश्य मिली है लेकिन इसकी भी उत्तरजीविता संदिग्ध है क्योंकि चीन यहां भी आसानी से हार मानने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री की चीन की औपचारिक यात्रा ने इस बात का संकेत भी दिया कि भारत चीन का वरिष्ठ शक्ति के रूप में मान रहा है और वह उसके प्रति समझौतावादी रुख रखना चाहता है। ऐसे में चीन अपनी आक्रामकता को और धार देने की कोशिश कर सकता है। रूस के साथ संतुलन बनाए रखना भी एक चुनौती होगी क्योंकि मॉस्को और वाशिंगटन के बीच सम्बंधों में अनिश्चितता रहेगी और भारत नहीं चाहेगा कि दोनों में से कोई भी उसकी तरफ से मुंह फेरे।

  • रहीस सिंह

(लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं।)

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