दस्तक-विशेष

बिन पानी सब सून

jitendra shukla
जितेन्द्र शुक्ला


‘‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।

पानी गयो न ऊबरे मोती, मानुष, चून।।’’
यह पंक्तियां मध्यकालीन सामंतवादी संस्कृति के कवि अब्दुर्रहीम खानखाना यानि रहीम के लिखे अनगिनत दोहों में से एक है। इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है। पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है। रहीम कह रहे हैं कि मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होनी चाहिए। पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है जिसके बिना मोती का कोई मूल्य नहीं। पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी (विनम्रता) रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्य ह्रास होता है। खैर यह बात तो हुई पानी के उपमाओं की। अब चर्चा कुछ वास्तविक पानी के अभाव में उत्पन्न हुए संकट की।
वर्तमान में भारत के कई इलाके सूखे की चपेट में हैं जिससे फसल ही नहीं जान-माल का भी नुकसान हो रहा है। हालांकि बारिश पर तो प्रकृति का ही बस है लेकिन जानकारों के अनुसार जलवायु परिवर्तन भी इसका एक अहम कारण बनता जा रहा है। देश के दस राज्यों के 246 जिले पिछले साल से ही सूखे की चपेट में हैं, जिनमें महाराष्ट्र के 21 जिलों के 15,747 गांव शामिल हैं। लेकिन इस साल महाराष्ट्र में सूखे का कहर कुछ ज्यादा है। राज्य 1972 के बाद सबसे भीषण सूखे की चपेट में है और यहां के 43 हजार गांवों में से 27,723 गांव सूखाग्रस्त घोषित किए जा चुके हैं। तालाब, नदियां, नाले, कुएं सभी से पानी गायब हो गया है। राज्य में सिंचाई के पानी की किल्लत तो पहले से थी, अब पीने का पानी भी मोहाल होता जा रहा है। कई जगहों पर पानी के लिए कतार एक किलोमीटर से भी लंबी हो गई है। सूखा प्रभावित महाराष्ट्र के 11 बड़े सिंचाई बांधों में से सात का जल भंडार खत्म हो चुका है। एक सरकारी आंकड़े से इस बात का खुलासा हुआ है। जल संसाधन विभाग की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार, सूखा प्रभावित मराठवाड़ा क्षेत्र में 814 बड़ी, मध्यम और छोटी सिंचाई परियोजनाओं में केवल तीन प्रतिशत जल भंडार उपलब्ध है।
मराठवाड़ा के सात बड़े सिंचाई बांधों में जल भंडार पूरी तरह खत्म हो चुका है। इसमें जायकावाड़ी, पूर्ण सिद्धेश्वर, मजलगांव, मांजरा, निचले तेरना, मन्नार और सिना कोलेगांव शामिल है और यह औरंगाबाद, परभनी, बीड़, नांदेड़ और उस्मानाबाद जिलों में स्थित हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, इन बांधों के अलावा, इस क्षेत्र में स्थित पूर्णा यलदारी बांध में दो प्रतिशत, उपरी पेनगंगा में 10 प्रतिशत, विष्णुपुरी में सात प्रतिशत और निचले दुधना में 18 प्रतिशत जल भंडार मौजूद है। मराठवाड़ा में 75 छोटे सिंचाई बांधों में केवल चार प्रतिशत जल भंडार मौजूद है जबकि 728 अति छोटे बांधों में तीन प्रतिशत के करीब जल भंडार मौजूद है। स्थिति यह है कि राज्य में सूखे के संकट से निपटने के लिए जल संसाधन विभाग को पूरे महाराष्ट्र में 4,356 पीने के पानी के टैंकर भेजने पड़े हैं। दूसरी तरफ, पंजाब और हरियाणा के बीच जल बँटवारे को लेकर लड़ाई चल रही है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक भारत के 91 फीसदी जलाशयों में पिछले 10 वर्ष में सबसे कम पानी है। इनमें महज 29 फीसदी पानी बचा है। वहीं वाटर एड संस्था का कहना है कि भारत में करीब 85 फीसदी पेयजल जिन स्रोतों से मिलता है, उनका जलस्तर लगातार गिर रहा है।
lead_1केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में आंकड़े पेश करते हुए खुद स्वीकार किया कि देश की एक चौथाई आबादी सूखे की मार ङोल रही है। देश के 10 सूखा प्रभावित राज्यों के आंकड़े पेश करते हुए बताया कि इन राज्यों में कुल 254 जिले सूखा प्रभावित हैं, जिनमें 33 करोड़ से ज्यादा लोग रहते हैं। कोर्ट में राज्यों की ओर से केंद्र को भेजा गया ब्योरा पेश किया। इसमें बताया गया है कि उत्तर प्रदेश में 75 में से 50, कर्नाटक में 30 में से 27, छत्तीसगढ़ में 27 में से 25, मध्य प्रदेश में 51 में से 46, महाराष्ट्र में 36 में से 21, ओडिशा में 30 में से 27, आंध्र प्रदेश में 13 में से 10, तेलंगाना में 10 में से सात, झारखंड में 24 में से 22 और राजस्थान में 33 में से 19 जिले सूखे से प्रभावित हैं। उप्र के सूखा प्रभावित 50 जिलों में संत रविदास नगर, सोनभद्र, सुलतानपुर, मिर्जापुर, बलिया, सिद्धार्थ नगर, शाहजहांपुर, बांदा, प्रतापगढ़, चंदौली, इटावा, बस्ती, बागपत, जौनपुर, फैजाबाद, गोंडा, कन्नौज, बाराबंकी, संत कबीर नगर, झांसी, जालौन, गोरखपुर, हाथरस, एटा, इलाहाबाद, गाजियाबाद, फर्रुखाबाद, मऊ, उन्नाव, रामपुर, हमीरपुर, ललितपुर, चित्रकूट, कानपुर नगर, लखनऊ, देवरिया, मैनपुरी, महाराजगंज, आगरा, औरैया, पीलीभीत, अमेठी, महोबा, रायबरेली, कुशीनगर, कानपुर देहात, कौशाम्बी, फतेहपुर, अंबेडकर नगर और बलरामपुर शामिल हैं।
जाहिर है कि जब देश की 25 फीसदी आबादी सूखा प्रभावित है तो जल संकट होना लाजिमी है। जल संकट कहीं गंभीर रूप में है तो कहीं अति गंभीर। बढ़ते तापमान और सूखे का कारण तो विद्वान एक झटके में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को ठहरा देते हैं लेकिन इस स्थिति में लाने के लिए मनुष्य ही तो जिम्मेदार है। रही बात जल संकट की, हिन्दुस्तान जैसे देश में जहां नदियों को मां का तथा जल को देवता का दर्जा दिया गया है वहां जिस तरह से जल की बर्बादी हो रही है उससे तो यह दिन देखना ही था। करीब दो दशक पहले से यह बात कही जा रही है कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। लेकिन इसके प्रति चेता कोई नहीं। हर साल गर्मियों के मौसम में देश के विभिन्न इलाकों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मचने लगती है। यह स्थिति पैदा होते ही सरकारी तंत्र हरकत में आता है और इसके निदान के लिए बैठकों का दौर शुरू होता है। योजनायें बनती हैं और तब तक बारिश का मौसम आ जाता है और हर तरफ हरा-हरा दिखने लगता है।
उसके बाद सारा विचार मंथन और योजनायें ठण्डे बस्ते में चली जाती हैं। 1970 में वॉटरशेड योजनाएं बनीं। इस दशक में भारत सरकार ने कम से कम पांच ऐसी योजनाएं शुरू की जो मूल रूप से सिंचाई और कृषि पर सम्पूर्ण ध्यान देने के लिए बनाई गई थी। इनमें से 1973 में पहली बार बड़े पैमाने के सूखे से निपटने के लिए एक ऐसा मिशन शुरू किया गया जिसमें न सिर्फ बारिश के पानी को बचाने पर जोर दिया गया बल्कि ग्राउंडवॉटर के संरंक्षण के लिए भी काम शुरू हुआ। इसके बाद भारत सरकार कपार्ट योजना को 1986 में शुरू किया, जब ऐसा लगा कि ग्रामीण विकास की योजनाओं में पानी के संरक्षण जैसी मूलभूत बातों को ज्यादा तरजीह नहीं मिल पा रही है।
कपार्ट के तहत गैर सरकारी संगठनों के जरिए लागू कराई जा रही हर स्कीम को राज्य सरकार और जिला प्रशासन के जरिए लागू कराया जाने लगा। ये वो योजना थी जिसमें पहली बार रूफ टॉप रेन वॉटर हारवेस्टिंग यानि छत के जरिए बारिश के पानी को इकठ्ठा करने के तरीकों पर काम शुरू हुआ। यह योजनायें बनीं तो लेकिन इनका क्रियान्वयन उचित तरीके से नहीं हुआ। कुछ एक वर्षों को छोड़ दें तो भारत में अमूमन सामान्य वर्षा होती रही है तब भी केवल पीने के पानी काअभाव ही नहीं है। सिंचाई के लिए भी पानी की कमी है। दरअसल बारिश का अधिकांश जल व्यर्थ चला जाता है, क्योंकि वर्षा जल संरक्षण की दिशा में न तो ठोस काम हुआ है और न ही उसके प्रति अपेक्षित जागरूकता पैदा हो सकी है। वहीं भारत में पानी जब सुलभ होता है तो कोई उसकी कीमत नहीं समझता और मनमाने तरीके से उसे बहाता है।
धरती पर 1.4 अरब घन किलोमीटर पानी पाया जाता है, लेकिन इसका एक फीसद से भी कम हिस्सा मनुष्य के उपभोग लायक है। इस पानी का 70 फीसद खेती-बाड़ी में खर्च होता है। महानगरों से शुरू हुई पानी की किल्लत आज गांवों, खेत-खलिहानों तक को अपनी चपेट में ले चुकी है। ऐसा हो भी क्यों न जब तालाब पटते जा रहे हैं, वन क्षेत्र सिकुड़ रहा है और नदी-नाले हमारी उपयोगितावादी जीवन शैली के शिकार बनते जा रहे हैं। स्थानीय पारिस्थितिक दशाओं की उपेक्षा करके हमने ऐसी फसलों की खेती शुरू की, जो अकाल को न्योता देती हैं। सबसे बढ़ कर हमने पानी को एक ऐसा स्रोत मान लिया है, जिसकी चिंता करना हमारा नहीं, सरकार का काम है। स्पष्ट है कि जल संकट से तभी मुक्ति मिलेगी, जब हम पानी के वास्तविक मोल को पहचाने और खेती-किसानी से लेकर खान-पान तक में पानी बचाने वाली तकनीक को अपनाएं और कुदरत के साथ सह अस्तित्व बनाए रखें। लेकिन इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को प्रकृति और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ बंद करना होगा।
सूखा और सियासत साथ-साथ
यह भी एक कटु सत्य है कि उप्र के बुन्देलखण्ड और मराठवाड़ा में सूखे की स्थिति कमोवेश एक जैसी है। एक आंकड़े के मुताबिक बीते साल बुंदेलखंड के 415 किसानों ने आत्महत्या की। वहीं सियासी दलों के लिए सूखा भी एक मुद्दा है एक-दूसरे की टांग खींचने का। उप्र के 50 जिले सूखे से प्रभावित हैं। पिछले साल भी सूबे में मानसून ने धोखा किया था। इन 50 जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में 9.88 करोड़ लोग रहते हैं। लेकिन सूखा प्रभावित जिलों में किसानों को राहत देने को लेकर राज्य और केंद्र सरकार के बीच राजनीति का दौर जारी है। सूखाग्रस्त घोषित जिलों के किसानों को मुआवजा बांटने के लिए राज्य सरकार ने केंद्र को 2057 करोड़ रुपये का ‘मैमोरैंडम’ भेजा था लेकिन केंद्र सरकार ने केवल 1304.52 करोड़ रुपये ही मंजूर किए। लेकिन बाद में केंद्र ने राज्य सरकार को 934.32 करोड़ रुपये की रकम ही भेजी। लेकिन वहीं सूखा प्रभावित बुंदेलखंड की जनता को राहत देने के लिए अखिलेश यादव सरकार ने वहां खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत पात्र परिवारों को चार महीने तक मुफ्त अनाज बांटने का निर्णय किया है। पात्र परिवारों को मई से मुफ्त में अनाज मिलने लगेगा। यह व्यवस्था अगस्त तक लागू रहेगी। बुंदेलखंड में खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत पात्र परिवारों को चार महीने तक मुफ्त अनाज मिलेगा। खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत प्रत्येक पात्र परिवार के हर सदस्य के लिए हर महीने पांच किलो अनाज दिये जाने की व्यवस्था है। योजना के तहत पात्र परिवारों को दो रुपये किलो की दर से गेहूं और तीन रुपये किलो के हिसाब से चावल दिया जाता है। खाद्य आयुक्त अजय चौहान ने बताया कि बुंदेलखंड के सातों जिलों में मुफ्त खाद्यान्न वितरण में सरकार पर हर महीने 12 करोड़ रुपये से अधिक का व्ययभार आएगा।
2050 तक विदेशों से खरीदना पड़ेगा पानी
भारत में इस समय सूखे के चलते बुरे हालात हैं। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड की मानें तो हालात नहीं बदले तो 2050 तक भारत को पानी विदेशों से खरीदना पड़ेगा। आंकड़े बताते हैं कि 2050 तक हर आदमी के लिए 3,120 लीटर प्रति दिन पानी ही बचेगा। 2001 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में रोज इस्तेमाल में आने वाले पर कैपिटा ग्राउंड वाटर एवेलेबिलिटी 1951 के मुकाबले 35 फीसद तक गिरी है। 1951 में औसत 14,180 लीटर प्रति दिन पर कैपिटा ग्राउंड वाटर उपलब्ध था जो 2001 में घटकर 5,120 लीटर प्रति दिन रह गया। 1951 के मुकाबले 1991 में ग्राउंड वाटर की उपलब्धता आधी रह गई। 2025 तक प्रति व्यक्ति ग्राउंड वाटर एवेलेबिलिटी 1951 के मुकाबले 25 प्रतिशत ही रह जाएगी। वहीं सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, 2050 तक यह उपलब्धता सिर्फ 22 प्रतिशत ही बचेगी। इसके पीछे कारण यह बताया गया है कि बारिश के पानी को तालाब, झीलों और कुओं में जमा न करने की लापरवाही और घटती हरियाली भी ग्राउंड वाटर के तेजी से घटने की वजह है। हालांकि बोर्ड ने ग्राउंड वाटर को आर्टिफिशयली रिचार्ज करने के लिए एक मास्टर प्लान तैयार किया है। इसके मुताबिक, तेजी से हो रहे विकास और भूजल के इस्तेमाल ने शहरी क्षेत्रों में जीवन स्तर को काफी बेहतर किया है।
लेकिन ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए भूजल ही उनकी घरेलू जरूरतों का इकलौता माध्यम है। शहरी इलाकों में पानी की 50 फीसदी जरूरत ग्राउंड वाटर से पूरी होती है। जबकि देश में 50 प्रतिशत सिंचाई भूजल से ही होती है। स्थिति यह है कि साल 2000 के आंकड़ों को देखें तो हर शख्स को दो हजार क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष पानी मिलता था। 2016 में ये आंकड़ा घटकर 1500 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष पर आ गया है। जाहिर है कि 15 साल बाद और बुरे हालात होंगे। एक आदमी को महज 1100 क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष पानी में गुजारा करना होगा।

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