अद्धयात्मसाहित्यस्तम्भ

‘भारत पर आर्यों का आक्रमण महाझूठ’


भारतीय समाज हजारों वर्ष पहले से तर्कशील रहा है। दुनिया के अन्य आस्तिक समुदायों में ईश्वर अतक्र्य आस्था है लेकिन भारत में ईश्वर पर भी तर्क प्रतितर्क होते रहते हैं। भारत में सनातन काल से ही वाणी स्वतंत्रता है। सभी दिशाओं से प्राप्त विचारों का यहां स्वागत रहा है। वैदिक वांग्मय हजारों श्लोकों से भरापूरा है। ऋग्वेद सहित चार वैदिक संहिताएं हैं, फिर ब्राह्मण ग्रंथ और उपनिषद्। ऋषि कथनों में वैचारिक विविधिता है। लेकिन आर्यों के विदेशी होने की बात कहीं नहीं है। यहां विपुल पुराण साहित्य है। महाभारत, रामायण हैं। इसमें भी आर्य आक्रमण नहीं है। भारत के गांव-गांव संत, कवि, गवैय्ये और नाट्य मण्डलियां रही हैं। उनमें भी आर्यों के विदेशी हमलावर होने की बात नहीं है। तो भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समर्थक कुछेक विद्वानों ने पूर्वज आर्यों को विदेशी ठहराया। राष्ट्रीय स्वाभिमान की पिटाई हुई।
असत्य की उम्र नहीं होती। लेकिन प्रायोजित झूठ की बात दूसरी है। यह प्रायोजकों के बुद्धि कौशल से चर्चा में बना रहता है। भारत पर आर्यों का आक्रमण महाझूठ है। इसका दुष्प्रचार जारी है। आर्य हम सबके पूर्वज हैं। वे वैदिक संस्कृति, सभ्यता और दर्शन के जन्मदाता है। ऋग्वेद के द्रष्टा रचयिता हैं बावजूद इसके उन्हें विदेशी हमलावर बताया पढ़ाया जाता है। डाॅ. अम्बेडकर ने ‘हू वेयर शूद्राज’ लिखकर आर्यों के विदेशी होने का सिद्धांत गलत ठहराया। माक्र्सवादी चिन्तक डाॅ. रामविलास शर्मा ने भी दुनिया की तमाम सभ्यताओं और भाषा विज्ञान के हवाले आर्य आक्रमण को झूठ बताया। लेकिन आर्य आक्रमण का महाझूठ अब भी जारी है। 2018 में राखीगढ़ी-हरियाणा और ग्राम सिनौली जिला बागपत उत्तर प्रदेश से शुभ सूचनाएं आई। सिनौली में 2018 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने खोदाई में ईसा पूर्व 2000-1800 के समय का ताम्र मोतियों से सज्जित रथ, कटार और तलवार के साथ आभूषण भी मिले थे। वहीं राखीगढ़ी में 5000 वर्ष पुराने नरकंकाल के डीएनए परीक्षण (2018) ने चैकाया है। दोनों सूचनाओं ने भारतीय सभ्यता की प्राचीनता और निरंतरता को सही ठहराया था।
दोनों अध्ययनों ने प्राचीन ऋग्वैदिक सभ्यता को देशी पाया है। अध्ययन में शव संस्कार की पद्धति ऋग्वैदिक काल से मिलती जुलती है। कंकाल परीक्षण में उच्चतर स्वास्थ्य पाया गया है। ज्ञान तंत्र भी वैदिक काल का है। बर्तन और ईटों का उपयोग भी वैदिक सभ्यता की निरंतरता बताता है। आर्यों पर हड़प्पा सभ्यता नष्ट करने के आरोप हैं। हड़प्पा को प्राचीन और ऋग्वैदिक सभ्यता को परवर्ती सिद्ध करने की कसरत भी है। हड़प्पा का हृ्ास काल लगभग 1750 ई. पूर्व है। ऋग्वैदिक सभ्यता इससे बहुत प्राचीन है। भारतरत्न पीवी काणे ने ‘धर्मशास्त्र के इतिहास’ में वैदिक संहिताओं का काल 4000-1000 ई. पूर्व तक बताया है। अथर्ववेद और तैत्तिरीय संहिता 4 हजार ई. पूर्व के आसपास हो सकते हैं। भारत के लोग उस समय भी रथारूढ़ थे। रथ का उपयोग ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन है। घोड़े उन्हें खींचते थे। घोड़े विदेशी नहीं भारतीय आर्य संपदा थे। मैक्डनल और कीथ ने ‘वैदिक इंडेक्स’ (खण्ड 1) में लिखा है, “सिंधु और सरस्वती तट के घोड़े, मूल्यवान थे।” रथ की प्राप्ति वैदिक सभ्यता की जीवमान गवाही है।
ऋग्वेद में घोड़े के तमाम मंत्र हैं। ऋषि इन्द्र से घोड़ा मांगते हैं। (ऋ. 4.57.1) एक अन्य मंत्र (8.78.9) में वह घोड़े के साथ जौ भी मांगते हैं। घोड़ा समृद्धि और गति का प्र्रतीक है। रथ निजी यात्रा के उपकरण थे और युद्ध के भी। घोड़ा और रथ भारत के मन की सुंदर अभिलाषा हैं। उपनिषदों में भी व्यक्ति रथी है। दर्शन बोध में इन्द्रियां घोड़े हैं और मन लगाम। सूर्य भी रथ पर चलते हैं। उसे 7 घोड़े खींचते हैं। काल भी रथ पर चलते हैं। अथर्ववेद के कालसूक्त में “ज्ञानी ही कालरथ पर बैठ सकते हैं।” रथ और घोड़ा बड़ा आकर्षण हैं। रथ सुमेरी सभ्यता में भी थे पर उनके पहियों में आरे नहीं थे। भारतीय रथों में आरे थे। बागपत में मिला 2 हजार साल पुराना रथ भारत के वैदिक सभ्यता का मुख्य साक्ष्य है। रामकथा में श्रीराम के पास रथ नहीं था। रावण रथी विरथ रघुवीरा। विभीषण दुखी थे। उन्होंने श्रीराम से ही प्रश्न पूछा, रथ आदि उपकरणों के अभाव में आप बलवान रथी रावण को कैसे जीतेंगे? श्रीराम ने विजयरथ का रूपक बताया “शौर्य और धैर्य इस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील का ध्वज और दम विवेक के घोड़े। संयम नियम वाला सारथि। श्रीराम ने कहा कि ऐसा रथ विजय दिलाता है। महाभारत के नायक अर्जुन के पास दिव्य रथ था और सारथि थे निष्काम दार्शनिक श्रीकृष्ण। रामकथा में रथ की कथा दूसरी भी है। दशरथ युद्ध में थे, रथ फंस गया। कैकेई ने सहायता की, उसे वरदान मिले। मैं दशरथ नाम पर ध्यान देता हूं। संभवतः उनके पास 10 सुंदर रथ रहे होंगे इसीलिए वे दशरथ कहे गए। भारत के मुठ्ठी भर स्वयंभू विद्वान ही आर्यों को विदेशी बताते रहे हैं। 1922 तक सिंधु सभ्यता की जानकारी नहीं थी। विलियम जोन्स ने ‘रायल सोसाईटी आॅफ बंगाल’ (1786 ई.) में संस्कृत को ग्रीक और लैटिन से भी समृद्ध भाषा बताया था। लेकिन संस्कृत को किसी अन्य भाषा का विकास। सर्वाधिक विकसित संस्कृत भाषा सामने थी। ऋग्वेद भी प्रत्यक्ष था। संस्कृत ही मूलभाषा थी। लेकिन संस्कृत को मूल भाषा मानने से यूरोपीय नस्लवाद को कष्ट होता इसलिए कल्पित भाषा का नाम इंडो यूरोपियन चल निकला। इन्डोयूरोपीय भाषा बोलने वाले जनसमूह और भाषा के मूल स्थान की समस्या पेचीदी थी और है। वे सिद्ध करना चाहते थे कि किसी अज्ञात क्षेत्र के निवासी आर्यों ने ईरान होते हुए भारत पर आक्रमण किया। कथित इन्डो यूरोपीय भाषा के आधार पर इन्डो यूरोपीय नस्ल की कल्पना की गई। इसी फर्जीवाड़े का शिकार बने भारतीय आर्य।
1922 की हड़प्पा खोदाई में एक नगर मिला। सिंधु सभ्यता का पता चला। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और चान्हुदारों से प्राप्त सामग्री पर सिंधु सभ्यता का विवेचन हुआ। भारतीय सभ्यता का विकास सिंधु, सरस्वती और गंगा आदि नदियों के तट पर हुआ है। इन नदियों के स्तुतिगान ऋग्वेद में भी है। मार्शल ने भी सभ्यता के विवेचन में इन्हीं नदियों के नाम लिए हैं। इस सभ्यता के अवशेष रोपण और अफगानिस्तान व पंजाब तक मिले हैं और बिहार-बक्सर की गंगा घाटी तथा बंगाल, गुजरात के लोथल व राजस्थान के काली बंगन में भी। उत्खननों के अनुसार मेरठ, अम्बाला-रोपड़, सूरत तक इस सभ्यता का विस्तार था। हड़प्पा सभ्यता का हृास लगभग 1750 ई. पूर्व है। तब सरस्वती जलहीन है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में सरसस्वती उफना रही हैं। स्पष्ट है कि ऋग्वेद की रचना सरस्वती के सूखने के पहले हुई। ऋग्वेद में सरस्वती को ‘नदीतमा अम्बितमा’ कहा गया है।
वैदिक सभ्यता का जन्म और विकास 1750 ई.पू. से बहुत प्राचीन है। लेकिन 1926 में रामचन्द्र प्रसाद ने मोहनजोदड़ो से प्राप्त तथ्यों व कंकालों के बहाने आर्यो पर सभ्यता विनाश का आरोप लगाया। 1926 का साल स्वाधीनता संग्राम का तनाव समय है। यूरोपीय विद्वान सिद्ध करना चाहते थे कि अंग्रेज विदेशी तो आर्य भी विदेशी। ब्रिटिश पुरातत्वविद् ह्वीलर ने भी इसी झूठ को प्रचारित किया। लेकिन वे हमले का कोई प्रमाण नहीं दे सके। डाॅ. अम्बेडकर ने सीधा प्रश्न उठाया था कि आर्य विदेशी हैं तो ऋग्वेद में नदियों को माता क्यों कहते हैं? बागपत व सिनौली के अध्ययन वैदिक सभ्यता के ही साक्ष्य हैं। भारत का मन सांस्कृतिक उत्तराधिकार को लेकर सजग नहीं है। वैदिक सभ्यता की निरंतरता में हड़प्पा और हड़प्पा की निरंतरता में चन्द्रगुप्त मौर्य। कौटिल्य अपने लेखन में वैदिक परंपरा का उल्लेख करते हैं। हम राष्ट्रीय एकीकरण के प्रथम शासक चन्द्रगुप्त मौर्य व उनके प्रधानमंत्री कौटिल्य को याद भी नहीं करते। हम अशोक, पतंजलि, वाल्मीकि और व्यास को भी नहीं याद करते हैं। यहां इतिहास बोध की ही समस्या है।

 

 

 

 

 

 

हृदयनारायण दीक्षित
(रविवार पर विशेष)

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