दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

मन के तल पर होता है दुख और सुख का अनुभव

हृदयनारायण दीक्षित : मन शक्तिशाली है। दुख और सुख का अनुभव मन के तल पर होता है। मन हमारे अनुसार नहीं चलता। मन मनमानी करता है। योग ध्यान की सभी क्रियाएं मन के आसपास ही चलती हैं। मन को संकल्प का केन्द्र भी जाना गया है लेकिन किसी एक विषय पर न रूकना उसकी प्रवृत्ति है। ऋग्वेद में मन को यहां वहां भागने वाला बताया गया है। यहां सीधे मन से ही स्तुति की गई है कि आकाश आदि क्षेत्रों में भागे भागे न फिरो। यहीं आओ, यही तुम्हारी प्राप्तियां हैं। ऋग्वेद में मन की दिव्यता मनीषा है। जो मन को एक ही श्रेय पर लगाते हैं, वे मनीषी हैं। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र में 6 मंत्र? हैं। सभी मंत्रों के अंत में एक ही वाक्यबंध है “वह हमारा मन शिव संकल्प से आपूरित हो – तन्मे मनः शिव संकल्पम् अस्तु। श्वेताश्वतर उपनिषद् के दूसरे अध्याय का पहला मंत्र सविता देवता की स्तुति है। सविता प्रत्यक्ष सूर्य हैं। यह मंत्र इस तरह है “युंजानः प्रथमं मनस्तत्वाय सविता धियः – सविता देव प्रथम हमारे मन और बुद्धि को अपने से जोड़े।” गीता प्रेस के अनुवाद में “सविता का अर्थ सबको उत्पन्न करने वाला परमात्मा” बताया गया है। सूर्य जगत् का प्राण है भी। ऋग्वेद में “आदित्यों ह वै प्राणो” कहा गया है। हमारे मन और बुद्धि का सविता से जुड़ना आनंदवर्द्धन है। उपनिषदों में ज्ञान दर्शन की प्राप्ति के लिए मनुष्य शरीर की व्यर्थता का सिद्धांत नहीं है। शरीर ज्ञान प्राप्ति और मुक्ति का साधन है। कठोपनिषद् का शांति पाठ ध्यान देने योग्य है “मेरे सभी अंग, वाक्-वाणी, प्राण आंख और कान परिपुष्ट हों।” यहां वाक् शक्ति प्राण शक्ति, देखने व सुनने की शक्त् िके साथ सभी अंगों के स्वस्थ रहने की प्रार्थना है। ओ3म् साधना में भी शरीर की महत्ता है। श्वेताश्वतर उपनिषद् प्राचीन उपनिषद्ों के बाद की है। इस उपनिषद् में परमतत्व को सबके भीतर बताते हैं – आत्म संस्थम्। (1.12) कहते हैं कि इसे ही जानना चाहिए – एतत् ज्ञेयं। यह जानने योग्य है – वेदितव्यं। इसे जानकर सब कुछ जान लिया जाता है।” (वही) आगे उसे जानने का उपाय बताते हैं “काष्ठ या लकड़ी में भीतर स्थित अग्नि नहीं दिखाई पड़ती। दिखाई न देने के कारण अग्नि को झूठ नहीं कहा जाता है। अरणियों या काष्ठ लकड़ियों के संघर्षण से अग्नि प्रकट होती है। देखी जाती है। इसी तरह ओम् को साधन रूप में ग्रहण करने पर शरीर में ही परम तत्व का साक्षात्कार संभव है।” (वही 13) यहां ओम् साधन है। परमतत्व साध्य है। अन्य उपनिषदों में ओम् ही सब कुछ है। परम तत्व, परमात्मा, ईश्वर या ब्रह्म विश्व जिज्ञासा है लेकिन भारतीय दर्शन चिंतन की आधारभूत और प्रियतम समस्या है।

वैदिक ऋषि वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले जिज्ञासु दार्शनिक थे। वे भारत के बाहर के पंथों की तरह ईश्वर को को सीधे स्वीकार नहीं कराते। सीधे स्वीकार करने की जबर्दस्ती भी नहीं करते। वे उसे परम तत्व(।इेवसनजम) ज्ञेय, वेदितव्य – जानने योग्य, समझने योग्य बताते हैं। जान पड़ता है कि वे स्वयं तमाम प्रयोगों, तर्क संशय के दुर्गम रास्तों व अनुभूति के तमाम तलों से गुजरे हैं। इसी उपनिषद् के आगे के मंत्र में लकड़ियों के रगड़ने से उत्पन्न अग्नि का उदाहरण देते हैं। संभवतः यज्ञ आदि कार्यो में अग्नि प्रज्जवलन का उपाय ‘अरणि मंथन’ था। ऋग्वेद में अरणियों लकड़ी के डंठल को अग्नि की माताएं कहा गया है। अग्नि स्वयं वैदिक पूर्वजों के माता पिता बताए गए हैं। अरणियां उनकी भी माताएं हैं। अरणि मंथन का सोचा समझा यह प्रतीक ऋग्वेद से श्वेताश्वतर उपनिषद तक जस का तस चला आया है। उपनिषद् में आगे कहते हैं, “अपनी देह को नीचे की अरणि – लकड़ी बनाएं – स्व देहं अरणिम। प्रणव (ओम्) को ऊपर की अरणि बनाएं। ध्यान लगाकर दोनों का मंथन करें। संघर्षण से छुपी अग्नि के प्रकट होने की तरह देवतत्व प्रत्यक्ष करें।” (वही 14) मूल मंत्र में ‘देवं’ शब्द है। गीता प्रेस के अनुवाद में ‘देवम्’ को ‘परमदेव परमश्ेवर’ बताया गया है। ओम् की महत्ता दोनो प्रतीकों में एक जैसी है। मृत्यु सुनिश्चित है। ऋग्वेद के अनुसार ‘हम सब मृत्युबंधु हैं। क्षरणशील हैं। निस्संदेह व्यक्त हैं, व्यक्ति हैं लेकिन एक दिन मृत्यु अवश्यम्भावी है। ऋग्वेद (10.13.1) व यजुर्वेद (11.5) में एक साथ आए एक मंत्र में हम सब अमृतपुत्र हैं। यही मंत्र ज्यों का त्यों श्वेताश्वतर उपनिषद् (2.5) में भी दोहराया गया है। स्तुति में परमसत्ता में मानव बुद्धि लगाने की प्रार्थना है। मेरी स्तुतियां जगत्व्यापी हों। सभी ‘अमृत पुत्र’ इसे सुनें।” ‘अमृत पुत्र’ महत्वपूर्ण सम्बोधन है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी वैदिक साहित्य के इसी सम्बोधन का प्रयोग किया है। हम भारत के लोग जागृत आत्मबोध में अमृतवंशी हैं और सामान्य संसारी ज्ञान में मृत्युबंधु। मृत्यु पुत्र होने के कारण अमृतत्व हमारी सबकी संभावना है। यहां कोई आरक्षण नहीं है। योग ध्यान अनुभूति पर राष्ट्रीयता के बंधन नहीं हैं। स्वयं को अमृत पुत्र जानना समझना सबके लिए खुला अवसर है। श्वेताश्वतर के अगले मंत्र 6 में अमृत्व बोध का प्रत्यक्ष उपाय बताते हैं, “अग्नि की प्राप्ति अरणि मंथन से है। शरीर को नीचे और ओ3म् को ऊपर की अरणि बनाकर मथते हैं। तब सोम आनंद प्रकट होता है।” सोम आनंद का पर्याय है ही। यह मंत्र भी ऋग्वेद और यजुर्वेद में पहले से ही है। आगे सामान्य योग विधियों की चर्चा है।

ओ3म् योग की मुख्य भूमि है। सृष्टि के गोचर प्रपंच न्यारे हैं। विराट विश्व की गतिविधि के सम्बंध में कोई सुनिश्चित निष्कर्ष निकालना अभी संभव नहीं हो सका है। प्रकृति में कार्यकारण सिद्धांत चलता है। बावजूद इसके प्रत्येक वस्तु के होने या न होने का सिद्धांत अभी सुनिश्चित नहीं कर सके हैं। बेशक दार्शनिक यथार्थवाद में प्रकृति की सुंदर व्याख्या है। लेकिन संपूर्ण जानने की इच्छा तृप्त नहीं होती। भाववादी आस्तिकता का अपना दृष्टिकोण है। वे भाव अभिभूत होकर पूरे प्रपंच को ईश्वर की लीला कहते हैं। अनेक लोग इस लीला या आश्चर्यजनक गतिविधि का रहस्य जानने के प्रयास करते हैं। लेकिन इसकी थाह नहीं पाते। कभी कभी लगता है कि कवि ठीक ही गाते हैं। कहि न जाय/ का कहिए/ देखत अतिरचना विचित्र यह/समुझि मनै मन रहिए। ऋग्वेद से लेकर शंकराचार्य, नागार्जुन तक भारतीय चिंतन की शोध दृष्टि एक जैसी है। चिंतन और प्रतीकों में भिन्नता है। ओम ऐसा ही प्रतीक है। श्वेताश्वतर उपनिषद् की शुरूवात ही “हरिः ओ3म्” से होती है। अन्य उपनिषदों में ओ3म् के तत्वदर्शन और उपासना की मीमांसा है फिर ओ3म् का प्रतिपादन है लेकिन श्वताश्वतर की अन्तर्वस्तु में ओ3म् बाद में भी है और प्रारम्भ में भी है। इस उपनिषद् में परमसत्ता के आनंददायी शब्द संकेत हैं। एक मंत्र (अध्याय 6.19) बड़ा प्यारा है “निष्कलं निष्क्रियं, शांत्म निरवद्यं निरंजनम् – वह कलारहित, क्रिया रहित, शांत दोष रहित, निर्मल है। वह अमृत सेतु है।” ओ3म् इसी की लब्धि का उपाय है। साधन है। पदार्थ न होने के कारण वह अव्यक्त है। साध्य से एकीभूत होने के कारण वह साधन के साथ साध्य भी है। हमारी काया के अणु परमाणु का स्पंदन भी है। यहां अंतर्यात्रा की ही आवश्यकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं)

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