दस्तक-विशेषस्तम्भ

महिला लेखन की चुनौतियां

8 मार्च अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

सुषम बेदी

लेखन तो किसी के लिए भी चुनौती ही होता है चाहे वह पुरुष हो या नारी। नारी की चूंकि पारंपारिक भूमिका एक लेखक होने की नहीं रही है, इसलिए ऐसा कर्म न तो उससे अपेक्षित होता है, न ही घरवालों के लिए उसके इस कर्म की कोई अहमियत होती है। उससे तो अपेक्षित होता है कि घर को सजा-बनाकर रखे, बच्चों की ठीक से देखभाल करें, पति-भाई, पिता और बच्चों को ठीक से पकाकर खिलाये-पिलाये, उनकी जरूरतों का ख्याल रखे इत्यादि। अगर इससे बढ़कर कुछ और अपेक्षाएं हुईं तो यही कि वह खुद भी सजबन कर पुरुष को मुग्ध करे। महिलाओं की हमारे समाज में यही भूमिका रही है। यह भी सच है कि आज महिलाओं की सृजनात्मक प्रतिभा नगाड़े पीट-पीटकर ढिंढोरा दे रही है कि न केवल उनका लेखन पुरुष लेखकों से किसी भी हालत में कमतर नहीं, बहुत से क्षेत्रों में वह उनसे आगे भी बढ़ गयी है और बढ़ती ही जा रही है। इसीलिए अब उनकी चुनौतियों के सवाल भी खड़े हुए हैं।
अगर हम कुछ नयी पीढ़ी के विरले माता-पिता, भाई या पतियों को भूल जायें जिन्होंने अपने बच्चों या पत्नियों या बहनों को लिखने को प्रेरित किया हो और लिखने का माहौल और समय दिया हो वरना जो भी महिलाएं लेखन के क्षेत्र में उतरी हैं उनके लिए आंतरिक और बाहरी दोनों स्तर पर ही कठिन संघर्ष करना बड़ा स्वाभाविक रहा है। पहला तो हमारे घर वालों का यह रवैया कि लिखकर क्या होगा, कोई ढंग का काम करो। यानि कि खाना बनाना ज्यादा प्रोडक्टिव काम है बजाय कि आप अपना लिखने में वक्त जाया करें। ऐसी अड़चनें पुरुष के जीवन में भी होती हैं पर चूंकि पुरुष को बाह्य जगत सौंपा गया है, सो कोई देखने नहीं जाता कि वह क्या कर रहा है। उसकी समस्या पैसा कमाना है। जो न कर पाना उनकी असफलता का घोषणापत्र है। पर महिला पैसा कमाये या न उसे बच्चे भी पालने हैं, घर भी संभालना है और घर की जिम्मेवारियां 99 प्रतिशत औरत के ही कंधों पर होती है और यह संघर्ष खासकर तब तक चलता रहता है जब तक कि वह लेखिका सम्मानित-प्रतिष्ठित लेखिका नहीं बन पाती। ज्यादातर लेखिकाओं को साहित्यिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा मिलने के बाद तो घरवाले लिहाज करना शुरू कर देते हैं। पर घर और लेखन का तालमेल तो लगातार बिठाना ही पड़ता है।
मैं जब तक भारत में रही लिखना हमेशा बैक बर्नर पर यानि पीछे के चूल्हे पर रहा। हमेशा पहले यह काम, फिर वह काम। फिर लिखना जिसका समय मिलते-मिलते दिन थका देता। कालेज के दिनों में तो पढ़ने की खूब छूट थी, सो जो भी कुछ कहानी-कविता वगैरह लिखी वह अक्सर आधी रात को कालेज के होमवर्क से निबटकर या निबटने से पहले। बात शादी के बाद की होती है जब एक पूरी उम्र जिम्मेदारियों की टोकरी सर पर उठाकर चलना होता है।
अचानक दो घरों से सम्बंध वक्त को चिंदी-चिंदी बिखेर देता है और अगर नौकरी भी कर रहे हैं तो बस समय आपका साथ छोड़ ही देता है। ऐसे में लिखना चाहकर भी सूझता ही नहीं। एक तो लेखन यूं ही चलते-फिरते होता नहीं। उसके लिए ढेर सारा समय चाहिए होता है और जब तक मेरे पास काफी सारे घंटे एक साथ खाली नहीं होते, मैं कुछ शुरू ही नहीं कर पाती। भारत में तो शादी के बाद वक्त मिला ही नहीं।
विदेश जाकर वक्त मिला तो बच्चे छोटे थे। बस वही कुछ छुटपुट लेख और कहानियां। लगकर लेखन नहीं हुआ। पर भीतर की बेचैनी तो हमेशा बनी रही। बस वह बेचैनी एकाध कहानी लिखवा जाती थी।
अमेरिका जाने के बाद भी कई साल तक लेखन नहीं हुआ। घर के काम, बच्चों की देखभाल और सरकारी अफसर पति के साथ शामों के लिए भी कुछ न कुछ बंधा ही होता। यहां भी जो कहानियां लिखी वे तब लिखी जाती जब राहुल टूर पर होते और मैं बच्चों के सोने के बाद कलम लेकर बैठ जाती। 1985 में मैंने कोलंबिया में पढ़ाना शुरू किया। उसी दिसंबर की छुट्टियों में पहले उपन्यास हवन की शुरुआत हुई। पर यह उपन्यास घर में कभी नहीं लिखा गया। मैं लाइब्रेरी जाती और वही लिखती।
लेखन बड़ा एकाकी कर्म है और इसके लिए महिलाओं को समय और स्थान-स्पेस उपलब्ध नहीं होता। हम हमेशा घिरे रहते हैं, घरवालों से, मित्रों से, घर के अंदर काम करने वाले नौकरों-चाकरों से या घरवालों के मिलने वालों से। यह भी एक समस्या मेरे साथ रही कि न केवल लिखने के लिए मुझे अकेली जगह चाहिए होती, मुझे हमेशा अपना लिखा दिखाने में बहुत शर्म आती थी। यहां तक कि किसी को पता ही न चले कि मैं लिखती हूं, यानि कि अपने आत्म, अपने भीतर को कागज पर उड़ेलती हूं। जैसे कि यह कोई कुकर्म हो। मुझे याद है कि दसवीं कक्षा में जब मैं नावेल लिख रही थी तो छुप-छुप के स्कूल की आधी छुट्टी में लिखती कि कोई मुझे लिखता देख न ले। जब हम अपने आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति करते हैं, जो कि लेखन की पहली शर्त है, तो लड़की को इसमें भी खतरा महसूस होता है जिसका सामना करना भी महिला लेखक के लिए चुनौती बन जाता है। मेरे लिए तो वह दसवीं कक्षा में लिखी गयी नावेल ऐसी छुपाने की चीज बन गयी थी कि एक बार हिम्मत करके अपनी सखी को पढ़ने को दिया तो वापिस ही लेने की कोशिश नहीं कि घर में सब लोग देख लेंगे कि मैंने क्या लिखा है। यह बात मैंने अपने लेखक बन जाने के बाद हाल ही में उजागर की वर्ना किसी को कभी बताती नहीं थी कि दसवीं कक्षा में मैंने उपन्यास लिखा था।
आजतक यह काम मैं घर में कोने में छुपकर ही करती हूं। पर मेरे पति को मालूम है और वे मुझे पूरा स्पेस देते हैं, डिस्टर्ब नहीं करते। पर यह तो मेरी अपनी ही समस्या थी कि कोई घर पर रहता तो मैं लिख ही नहीं पाती। बच्चे बड़े होने के बाद भी मुझे पूरा वक्त देते रहे।
यूं भी उनकी अपनी एक दुनिया बन जाती है तो वे कोई मांग ही नहीं करते। अब तो घर खाली ज्यादा मिलता है, पति काम पर और बच्चे अपने-अपने घरों में।
जब मैं लिख रही होती हूं तो मुझसे दूसरी अपेक्षाएं उतनी नहीं की जातीं। पर जो कुछ भी घर के लिए मुझे करना होता है, उसे पूरा करना मेरी अपनी ही मजबूरी बन जाती है। शायद यही भीतर की मजबूरी कि जो घर वालों को हमसे अपेक्षित है, वह उनका अधिकार है और अगर हम उसे करने में कोताही बरतेंगे तो एक मां, पत्नी या बेटी की सही भूमिका नहीं निभा रहे होंगे, हम सब महिलाओं से जो कुछ भी करवा लेता है।
हमारा लेखन तब कहीं छिप कर कोने में बैठा रहता है जब फुरसत मिलेगी तो हो ही जायेगा। तब औरों का वक्त क्यों उनसे छीना जाये। यानि कि एक मनोवैज्ञानिक मजबूरी से औरत आसानी से मुक्त नहीं हो पाती। क्या करे जो भूमिका सदियों से निभाती चली आ रही है उससे एक ही सदी में छुट्टी कैसे मिलेगी?
इसी से मैं यह मानती हूं कि महिलाएं अपनी लेखकीय संभावनाओं को पूरी तरह तभी संपन्न कर सकती हैं जबकि वे अपने लिए उस स्पेस व समय की मांग करें जो उनको चाहिए, जो उनके लेखन के लिए जरूरी है और तब यह समय और स्थान फैलता जायेगा खुदबखुद। और वह भी जंगली पौधे की तरह पनपती जायेगी। 

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