दस्तक-विशेष

माया के जाल में राजनीतिक दल

gyanendra sharmaज्ञानेन्द्र शर्मा
राजनीतिक दलों द्वारा चंदा वसूली कोई नई बात नहीं है और यह पूरी दुनिया में होता है। अमेरिका में तो इसके लिए बाकायदा नियम कानून हैं और बडे़-बड़े लोग एलाइनिया उम्मीदवारों को चंदा देते हैं। इन दिनों वहां राष्ट्रपति के चुनाव के प्रचार में यह चर्चा में भी है। अपने देश में हाल में ये ज्यादा चर्चा में इसलिए रहा है कि राजनीतिक दलों द्वारा नकद चंदा लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है जिससे यह पता नहीं लगता कि इसमें कितना धन घूस की तरह दिया जा रहा है और जो धन दिया जा रहा है, उसका रंग कितना काला है।
यह बात सालों से उठ रही है कि राजनीतिक दलों की कार्यशैली और उनका अंदरखाना रहस्यों के कई पर्दे ओढ़े रहता है। उनके कामकाज में पारदर्शिता हो, कई बुद्धिजीवी और उनके संगठन इसकी मांग करते रहे हैं। उन्हें इसमें उस समय एक बड़ी सफलता मिल भी गई जब पिछले दिनों केन्द्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को पब्लिक अथारिटी यानी लोक प्राधिकारी घोषित करते हुए उनसे मांगी गई सूचनाएं देने को कहा। यह आदेश राष्ट्रीय दलों के बारे में दिया गया है लेकिन ये राजनीतिक दल सूचना आयोग का आदेश मानने को तैयार नहीं हैं। कायदे से सूचना आयोग द्वारा लोक प्राधिकारी घोषित कर दिए जाने के बाद इन दलों को अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए केन्द्रीय जन सूचना अधिकारी नियुक्त कर देने चाहिए थे लेकिन कांग्रेस ने तो आयोग के नोटिस का जवाब तक नहीं दिया। असल में ये राजनीतिक दल इस बात से डरे हुए हैं कि यदि वे सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत आ गए तो उन्हें अपनी कई अन्दरूनी बातों का खुलासा करना पड़ेगा। इनका तर्क यह है कि ऐसा होने से हमारे काम में बाधा पड़ेगी और हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होगा। बहरहाल मामला अब भी लम्बित है और एक और नोटिस कांग्रेस को दी गई है। दिलचस्पी का विषय यह होगा कि यदि कांग्रेस अब भी नोटिस का जवाब नहीं देती तो सूचना आयोग क्या कर पाता है। राजनीतिक दलों को सबसे बड़ा डर तो उस चंदे के ब्यौरे के खुलासे का है जो वे साल दर साल और खासकर चुनाव के समय वसूल करते हैं। चंदे की गुपचुप वसूली असली मुद्दा है। एशोसिएशन फॉर डिमोक्रैटिक रिफाम्र्स यानी ए0डी0आर0 चुनावों और राजनीतिक दलों के कामकाज से जुड़े मसलों पर पैनी नजर रखने वाली सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रभावी संस्था है। उसने अभी कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट जारी की है जो राजनीतिक दलों की चंदा वसूली के अंदर झांकने की कोशिश करती है। उसके अनुसार 2004 और 2015 के बीच हुए 71 विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने जो चंदा प्राप्त किया, उसमें से 63 प्रतिशत नकद के रूप में लिया गया। 21 अरब 7 करोड़ 80 लाख रुपए की राशि विभिन्न दलों ने नकद राशि के रूप में प्राप्त की, जबकि चैक से 12 अरब 44 करोड़ 86 लाख की धनराशि प्राप्त की जो कुल का 37 प्रतिशत है। कहने का मतलब यह कि इन 12 वर्षों में राजनीतिक दलों ने प्रति सौ रुपए पर 63 रुपए नकद लिया और 37 रुपया चैक से। इसी तरह से राजनीतिक दलों ने 2004, 2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों के समय कुल 23 अरब 55 करोड़ 35 लाख रुपया चंदे के रूप में इकट्ठा किया जिसमें से 44 प्रतिशत यानी 10 अरब 39 करोड़ 6 लाख रुपए उन्होंने नकद राशि के रूप में प्राप्त किया जबकि लगभग 13 अरब चैक से प्राप्त किया। सबसे ज्यादा फंड 2012 के दौरान हुए 7 विधानसभा चुनावों में एकत्र किया गया। 13 राजनीतिक दलों ने घोषणा की कि उन्होंने इस अवधि में 695.28 करोड़ रुपया एकत्र किया जिसमें से 53 प्रतिशत यानी 370.45 करोड़ नकद के रूप में लिया जबकि शेष 47 प्रतिशत 324.83 करोड़ रुपया चेक से लिया।
voterएडीआर के विश्लेषण से यह भी पता लगता है कि 5 क्षेत्रीय दलों ने तीन लोकसभा चुनावों के दौरान 267.14 करोड़ की राशि एकत्र की। इनमें से आप ने 51.83 करोड़ की राशि प्राप्त की। वह केवल एक लोकसभा चुनाव लड़ी थी तो भी दूसरे नम्बर पर थी। आप ने जो चंदा एकत्र किया, वह सारे पॉच क्षेत्रीय दलों के कुल चंदे का 19 प्रतिशत था जबकि बाकी दलों ने तीन लोकसभा चुनाव लड़े थे। एक उल्लेखनीय बात यह थी कि समाजवादी पार्टी ने सबसे अधिक 90.09 करोड़ रुपया इन तीन लोकसभा चुनावों में खर्च किया था। उसने विधानसभा चुनावों में जो 96.54 करोड़ खर्च किया, वह अलग था। यह भी निष्कर्श निकला कि 20 राजनीतिक दल ऐसे थे जिन्होंने लोकसभा के तीन चुनाव की अवधि में एकत्र किए गए चंदे से अधिक राशि व्यय कर दी। इसी तरह विधानसभा चुनावों के दौरान 19 दलों ने वसूले गए चंदे से अधिक राशि चुनाव पर खर्च कर दी।
नकद चंदा वसूली पर चुनाव आयोग की नजर रही है, इसीलिए उसने यह तय कर दिया है कि जो भी नकद चंदा देगा, उसे आयकर में छूट नहीं मिलेगी। यह भी तय कर दिया गया है कि 20 हजार रुपए से अधिक का कोई भी खर्च नकद नहीं किया जाएगा। ये दिशा निर्देश एक अक्टूबर 2014 से लागू किए गए हैं। बहुत तो नहीं लेकिन इन दिशा निर्देशों का शुरुआती दौर में असर तो हुआ है। इनके जारी होने के बाद हरियाना, महाराष्ट्र, झारखण्ड, बिहार और दिल्ली में चुनाव हुए। इन चुनावों में 9 दलों ने 9.39 करोड़ रुपया नकद के रूप में वसूला और 2.30 करोड़ नकद व्यय किया। यह राशि अपेक्षाकृत कम थी इसलिए यह कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग ने जो नकेल कसी उसका असर हुआ।
लेकिन इसका असली असर तब होगा जब नकद सहित हर तरह के चंदे का सम्पूर्ण विवरण सार्वजनिक होने लगे। अब यह आवश्यक प्रतीत होता है कि राशि चाहे जितनी भी हो और वह चाहे जिस विधि से भी दी गई हो, उसका पूरा खुलासा चुनाव आयोग के समक्ष घोषित किया जाय और उसे आयोग की वेबसाइट पर टांगा जाय। इससे चुनावों में काले धन के प्रयोग पर बहुत हद तक नकेल कसी जा सकेगी। चुनाव सुधारों की वकालत करने वाले कहते हैं कि चुनाव में उम्मीदवारों के चुनाव खर्चे पर कड़ी निगरानी होनी चाहिए। एडीआर ने एकदम ठीक सिफारिश की है कि उम्मीदवारों के साथ ही राजनीतिक दलों के चुनावी खर्चों पर भी कड़ी नजर रखी जानी चाहिए। मसलन बड़े नेता जब चुनाव प्रचार में हवाई जहाज या हैलीकाप्टर से जाते हैं तो उनकी यात्रा के इस व्यय का हिसाब किस खाते में लिखा जाना चाहिए? चुनाव आयोग ने कुछ मामलों में इस व्यय को उम्मीदवार के चुनावी खर्च में शामिल किया है तथापि गौर करने की बात यह है कि तमाम तरह से पैसा जो उम्मीदवारों को अधिकृत और अनधिकृत रूप से पार्टियां बांटती है, उसका हिसाब कहां लिखा जाना चाहिए?
काले धन का प्रयोग ज्यादातर नकद के रूप में दिए गए चंदे के माध्यम से किया जाता है और खासकर सत्तारूढ़ दलों द्वारा इस माध्यम से वसूली जाने वाली राशि पर नियंत्रण किया जा सकेगा। अभी आम शिकायत यह रही है कि सत्तारूढ़ दल अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए चंदा वसूली करते हैं और यह ज्यादातर नकद के रूप में होती है। यह भी आम शिकायत रही है कि विभिन्न दल और खासतौर पर सत्तारूढ़ दल चुनाव में अंधाधुंध खर्चा करते हैं और चूंकि बहुत सारी राशि नकद के रूप में बांटी और खर्च की जाती है इसलिए चुनाव आयोग उस पर कुछ नहीं कर सकता। यहां चुनाव आयोग को उम्मीदवारों द्वारा व्यक्तिगत तौर पर खर्च की जाने वाली नकद राशि पर भी प्रभावी रोक लगानी होगी। अभी बहुतेरे उम्मीदवार अपनी जेब से भारी धन खर्च करते हैं। ये शिकायतें भी आम रही हैं कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए नकद पैसा भी खूब बांटा जाता है। अभी हाल में हुए विधानसभा चुनावों में 100 करोड़ रुपए से ज्यादा की धनराशि पकड़ी गई। अनुमान किया जाता है कि यह धन मतदाताओं में बांटा जाना था। सबसे अधिक 100 करोड तामिलनाडु में बरामद किया गया जिसमें से 45 करोड़ बाद में लौटा दिया गया, क्योंकि उससे चुनाव का कोई सम्बंध में नहीं पाया गया था। वैसे चुनाव आयोग इस सबको रोकने के उपाय करता है। उड़नदस्ते बनाए जाते हैं, सर्वीलांस टीमें तैनात होती हैं लेकिन चुनाव आयोग करे भी तो क्या करे? वह चुनावों में उस तबके का सामना करता है जो कानून तोड़ने में माहिर होता है, उसके पास कानून के कान मरोड़ने का महारत होता है, उसके पास सारे नियमों को ताक पर रखने लिए अपनी व्यक्तिगत सेना होती है। उसके पास धनबल तो होता ही है, बाहुबल, छलबल और प्रशासन बल भी होता है। कई जगहों पर पुलिस भी उसकी मदद में खड़ी होती है। निष्पक्ष चुनाव कराना अब कोई आसान बात नहीं रही।
चुनाव आयोग एक अरसे से सरकार को यह सुझाव देता रहा है कि सभी राजनीतिक दलों द्वारा अपने लेखों का पूरा हिसाब किताब रखना और चुनाव आयोग द्वारा नियुक्त एजेंसियों के द्वारा उसका ऑडिट कराना अनिवार्य किया जाय लेकिन सरकारें और तमाम राजनीतिक दल इसे मानने को तैयार नहीं हैं। वैसे चुनाव आयोग के कई और सुझाव सरकार के समक्ष सालों से लम्बित पड़े हैं। कई दलों की सरकारें आई-गईं लेकिन किसी ने इन पर फैसला नहीं लिया और न ही विभिन्न दलों के बीच आम सहमति बनाने के लिए कोई प्रयास किए। एक बड़ा मुद्दा यह रहा है कि उम्मीदवार चुनाव लड़ते समय अपने आपराधिक इतिहास और अपनी सम्पत्ति का जो विवरण दे, उसकी जांच-पड़ताल का अधिकार चुनाव आयोग को हो।
एक बहुत महत्वपूर्ण सुझाव यह भी दिया गया कि राजनीति का आपराधीकरण रोका जाय। अभी कोई भी व्यक्ति तब तक चुनाव लड़ने की पात्रता रखता है जब तक कि किसी अपराध में उसके खिलाफ अभियोग साबित न हो जाय और उसे सजा न दे दी जाय। बहुत से मुकदमे वर्षों तक लम्बित रहते हैं और इसलिए ऐसे तमाम लोग जिन पर हत्या, बलात्कार जैसे मुकदमे होते हैं, वे भी चुनाव लड़ने की पात्रता नहीं खोते। चुनाव आयोग सुझाव देता रहा है कि ऐसे उपाय हों कि जिन पर गंभीर मुकदमे हों, वे चुनाव न लड़ पाएं।
लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव चुनावों का चेहरा साफ-सुथरा नहीं बनने दे रहा। आखिर सभी राजनीतिक दलों के स्वार्थ इसी में छुपे हुए हैं कि हालात ऐसे के ऐसे ही बने रहें। आखिर सबको राजनीतिक फायदा जो लेना है। =

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