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मीडियाकर्मियों का ‘वार ऑवर’ लोकतंत्र के लिए घातक

आशा त्रिपाठी
आशा त्रिपाठी

पत्रकारिता को अघोषित रूप से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। आजकल इसकी जो दशा दिख रही है, वह इस बड़े लोकतांत्रिक देश के लिए न सिर्फ शर्मनाक, बल्कि घातक है। पत्रकारिता की परिकल्पना में नीर्भीक व निष्पक्ष जैसे विशेषणों के प्रयोग होते हैं, लेकिन इस तरह के विशेषण अब पता नहीं क्यों बेमानी लगने लगे हैं। मीडिया आम जनता की आवाज होती है न कि शासन,  सत्ता और प्रभावशाली नेताओं-अफसरों की। मौजूदा हालात से शर्मिंदगी हो रही है कि ये सब क्या और क्यों हो रहा है। सवाल है कि आखिर पत्रकारों की क्या मजबूरी है जो शासकों के पक्ष-विपक्ष के रूप में धड़ों में बंटते दिख रहे हैं। पक्ष-विपक्ष में बंटने के बजाय यदि इमानदारी से पत्रकार अपना काम करते तो शायद वह देश के लिए ज्यादा बेहतर होता। सही को सही और गलत को गलत कहने के बजाय आजकल सही को गलत और गलत को सही कहने की होड़ मची है। इस तरह के हालात के लिए देश के बड़े व चर्चित मीडियाकर्मी ही जिम्मेदार हैं। निश्चित रूप से बड़े पत्रकारों को मर्यादा में रहकर पेशे की संस्कृति को बचाए-बनाए रखने लिए काम करना चाहिए ताकि उनकी शैली नई पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बन सके। देश के बड़े पत्रकार यदि अपनी सीमा का उल्लंघन करेंगे तो यह तय है कि देश की जनता व भावी पीढ़ी उन्हें माफ नहीं करेगी। पत्रकारिता जगत में इन दिनों एनडीटीवी की कंसल्टिंग एडिटर पत्रकार बरखा दत्ता व टाइम्सं नाऊ के एडिटर-इन-चीफ अरनब गोस्वामी के बीच चल रहा ‘शब्द युद्ध’ छाया हुआ है। स्वाभाविक रूप से पत्रकारों का यह ‘वार ऑवर’ आहत कर रहा है।

Arnab Goswamiगौरतलब है कि टाइम्स नाऊ के एडिटर-इन-चीफ अरनब गोस्वामी ने पिछले दिनों अपने शो ‘न्यूज ऑवर’ में कश्मीर मुद्दे पर एक चर्चा रखी। इस दौरान जीडी बक्शी‘ ने मीडिया पर सवाल उठाते हुए कहा कि क्यों कुछ अखबारों ने बुरहान वानी की लाश की फोटो छापी? बक्शी ने कहा कि यह इन्फॉर्मेशन वॉरफेयर (सूचना के जरिए जंग) का युग है। कुछ मीडिया वाले कश्मीरियों को भड़का रहे हैं। इस पर अरनब ने सहमति जताई। हालांकि कार्यक्रम की शुरुआत में ही अरनब ने कहा था कि जब लोग खुलेआम भारत का विरोध, पाकिस्ताक व आतंकियों का समर्थन करते हैं तो ऐसे लोगों से कैसा बर्ताव करना चाहिए? ऐसे लोग स्यूडो लिबरल्स (छद्म उदारवादी) हैं। इनका ट्रायल होना चाहिए। मीडिया में कुछ खास लोग वानी के लिए हमदर्दी दिखाते हैं। यह वही ग्रुप है जो अफजल की फांसी को साजिश बताता है। कार्यक्रम के अगले दिन एनडीटीवी की वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त ने फेसबुक पोस्ट के जरिए अरनब के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। बरखा ने लिखा कि टाइम्स नाऊ मीडिया पर अंकुश लगाने, जर्नलिस्ट्स पर केस चलाने व उन्हें सजा देने की बात कहता है? क्या यह शख्स जर्नलिस्टि है? मैं उनकी ही तरह इस इंडस्ट्री का हिस्सा होने पर शर्मिंदा हूं। वे पाकपरस्त कबूतरों की बात करते हैं, पर कश्मीर में गठबंधन को लेकर हुए समझौते का जिक्र नहीं करते। वे मोदी की पाकिस्तान से नजदीकी पर चुप हैं, मुझे भी आपत्ति नहीं है। आपत्तिजनक ये है कि अरनब देशभक्ति का आकलन इन विचारों से करते हैं तो वे सरकार पर चुप क्यों हैं? 

बरखा के बाद जनसत्ता के पूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी ने भी टाइम्स नाऊ के एंकर अरनब पर निशाना साधते हुए कहा कि उनके शो ‘न्यूज आवर’ में बोलने के अधिकार की हत्या होती है। अरनब की पत्रकारिता को सार्थक पत्रकारिता कही जाएगी? थानवी ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट के सहारे कहा कि मुझे लगता है अरनब ने सम्वाद में मानवीय गरिमा, शिष्टता और पारस्परिक सम्मान को चौपट किया है। हम बोलने के जिस अधिकार की बात करते हैं, उसका वध ‘न्यूज़ आवर’ में दिख जाएगा। एक शोर पैदा करने की हवस में अरनब किसी ‘मेहमान’ को चुन कर थानेदार की तरह हड़काते हैं। इससे एक हंगामे का दृश्य बनता है, जो भीड़ को खींचता है। मेरा सोचना है कि सांप्रदायिकता, छद्म राष्ट्रवाद, कश्मीर और पाकिस्तान जैसे नाज़ुक मसलों पर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया लोगों में दुविधा, द्वेष, अलगाव, रंजिश और घृणा पैदा कर सकता है। बरखा द्वारा अरनब पर किए गए हमलों के बाबत वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार राजीव रंजन तिवारी लिखते हैं कि बरखा ने अरनब के बारे में जो कुछ भी कहा है, वह अक्षरशः सत्य प्रतीत हो रहा है। वजह स्पष्ट है, पीएम मोदी के चुनाव जीतने से पहले से लेकर अबतक अरनब की भूमिका कठघरे में ही दिखती रही है। कोई एक मौका नहीं है, जिसका उदाहरण दिया जाए। राजीव रंजन तिवारी कहते हैं कि जहां तक अरनब के पक्ष में अंधभक्तों और अनुपम खेर के आने का सवाल है तो यह स्पष्ट कर दूं कि लोग अब चाटूकारिता को समझने लगे हैं। अंधभक्तों व अनुपम के कुछ कहने या बोलने से बरखा की आवाज दबने वाली नहीं है।

इसी क्रम में एनडीटीवी के वरिष्ठं पत्रकार रवीश कुमार ने अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ पर ‘सांप्रदायिकता का नया नाम है राष्ट्रवाद’ शीर्षक से एक लेख में लिखा है कि आप जो टीवी पर एंकरों के मार्फ़त उस अज्ञात व्यक्ति की महत्वकांक्षा के लिए रचे जा रहे तमाशे को पत्रकारिता समझ रहे हैं वो कुछ और हैं। आपको रोज़ खींच-खींच कर राष्ट्रवाद के नाम पर अपने पाले में रखा जा रहा है ताकि आप इस नाम से सवाल ही न करें। दाल की कीमत या महंगी फीस की चर्चा न करें। इसीलिए मीडिया में राष्ट्रवाद के खेमे बनाए जा रहे हैं। एंकर सरकार से कह रहा है कि वो पत्रकारों पर देशद्रोह का मुक़दमा चलाये। जिस दिन पत्रकार सरकार की तरफ हो गया, समझ लीजिए कि वो सरकार जनता के ख़िलाफ़ है। पत्रकार जब पत्रकारों पर निशाना साधने लगे तो वो किसी भी सरकार के लिए स्वर्णिम पल होता है। बुनियादी सवाल उठने बंद हो जाते हैं। जब भविष्य निधि फंड के मामले में चैनलों ने ग़रीब महिला मज़दूरों का साथ नहीं दिया तो वो बंगलुरू की सड़कों पर उतर आईं। कपड़ा मज़दूरों ने सरकार को दुरुस्त कर दिया। जेएनयू मामले में यही लोग राष्ट्रवाद की आड़ लेकर लोगों का ध्यान भटका रहे थे। उसमें फ़ेल हो गए। अब कश्मीर के बहाने यह फिर लांच हो रहा है। जबकि सीएम महबूबा मुफ़्ती ने कहा है कि बुरहान वानी को छोड़ दिया जाता, अगर सेना को पता होता कि वह बुरहान है। बीजेपी की सहयोगी महबूबा ने बुरहान को आतंकी भी नहीं कहा। महबूबा ने तो सेना से एक बड़ी कामयाबी का श्रेय भी ले लिया कि उसने अनजाने में मार दिया। अब तो सेना की शान में भी गुस्ताख़ी हो गई। क्या महबूबा को गिरफ़्तार कर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया जाए?  फिर क्यों पत्रकारों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा चलाने की बात हो रही है? जिस सरकार के दम पर वो कूद रहे हैं क्या वो सरकार महबूबा को बर्खास्त करेगी? क्या सरकार महबूबा से बयान वापस करवाएगी? माना जा रहा है कि रवीश कुमार का इशारा अरनब की ओर ही है।

इसी सिलसिले में 29 जुलाई को एनडीटीवी की वेबसाइट पर बरखा ने लिखा कि अरनब उन्हें डरा नहीं पाएंगे। अपनी फेसबुक पोस्ट का जिक्र करते हुए कहा कि कई लोगों ने इस पर सवाल उठाए। कई लोगों ने समर्थन दिया। बरखा ने लिखा कि ईमानदारी और आजादी से रिपोर्ट करना हमारा संवैधानिक अधिकार है। इस दौरान यह भी ध्यान रखना होता है कि न तो हम भारतीय सेना के दुश्मन समझे जाएं और न आतंक के समर्थक। इसी मुद्दे पर इंडिया टुडे के कंसल्टिंग एडिटर राजदीप सरदेसाई ने ‘डेली ओ’ पर लिखा कि एक वेबसाइट ने मुझसे सोशल मीडिया और टीवी पर चल रही अरनब-बरखा के बीच बयानबाजी को लेकर सवाल पूछा। यह सवाल मेरे लिए मुश्किल था क्योंकि मैं अपनी बात मजबूती से रखता हूं। फिर भी चुप रहा। वजह ये हो सकता है कि मैं खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में देखना चाहता हूं, जो झगड़ों से दूर रहता है। लेकिन मैं अमेरिकी राष्ट्रापति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल के उस भाषण से प्रभावित था, जिसमें उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति की दौड़ में शामिल रिपब्लिक पार्टी के प्रतिद्वंद्वी का नाम लिए बगैर कहा था कि समाज में विद्वेष भरा जा रहा है। मिशेल अमेरिका की बात कर रही थीं लेकिन उनकी बातें भारत के बारे में रखकर भी सोचा जा सकता है। राजदीप ने कहा कि जब 2014 में अपनी किताब ‘द इलेक्शन दैट चैंज इंडिया’ लिखी तो शीर्षक को लेकर सवाल पूछे गए कि क्या  कोई एक चुनाव प्राचीन सभ्यंता वाले देश को बदल सकता है? दो साल बाद जवाब मिलने लगा है। खैर, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ती कि कौन सही और कौन गलत है। चिंता मर्यादित पत्रकारिता की है, जो पत्रकारों के झगड़े में कलंकित होता दिख रहा है। बड़ें पत्रकारों को तुरंत इस तरह के झगड़े बंद करने चाहिए।

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