दस्तक-विशेष

मैं हिन्दू और तमस हमारा मूल

साक्षात्कार केन्द्रीय जनजातीय मंत्री : जुएल ओराम

मन में आकांक्षा सिर्फ इतनी थी कि कैसे अपने गांव को सभी सुविधाओं से संपन्न किया जाये। गांव के बाद उनकी यह सोच थी कि किस तरह आदिवासियों को मुख्यधारा में लाया जाये। इसके अलावा लालच देकर धर्मान्तरण कराना भी उन्हें खासा कचोटता था। यही वजह थी कि वह पहले भारत सरकार के एक निगम में नौकरी करते हुए अधिकारियों के चक्कर लगाते रहे लेकिन जब बात नहीं बनी तो राजनीति में आने की ठान ली। चूंकि बाल्यकाल से ही उनका विश्व हिन्दू परिषद की ओर झुकाव था, इसीलिए उन्होंने साल 1989 में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। इसके बाद उन्हें भाजपा के शीर्ष नेताओं अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, प्रमोद महाजन व सुषमा स्वराज जैसे नेताओं को देखने और मिलने का मौका मिला। मेहनत रंग लायी और जब जनप्रतिनिधि बनने का मौका मिला तो अपने क्षेत्र में उन्होंने रिकार्ड काम करके दिखाया। लेकिन फिर भी उन्हें और बहुत कुछ करने की इच्छा है। यह कोई और नहीं बल्कि केन्द्रीय जनजातीय मंत्री और अब भाजपा के कद्दावर नेताओं में शुमार होने वाले जुएल ओराम हैं। उनसे सम्पादक राम कुमार सिंह ने बातचीत की । प्रस्तुत है श्री ओराम से हुई बातचीत के प्रमुख अंश-

सबसे पहले तो आप अपने बारे में कुछ बताइये?
मैं उड़ीसा प्रान्त के एक छोटे से गांव का हूं। गांव मेरा कैसा रहा होगा, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मैं ही गांव का पहला वह बालक था, जिसने कि मैट्रिक पास किया था। पढ़ने-लिखने के बाद भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) में असिस्टेंट फोरमैन की नौकरी मिली। वेतन मिलने और बचत करने के बाद एक स्कूटर खरीदा लेकिन गांव तक पहुंचने का रास्ता इतना दुर्गम था कि स्कूटर से भी वहां नहीं जाया जा सकता था। इसी तरह टीवी तो खरीद लिया, लेकिन गांव में लाइट नहीं थी। स्पष्ट है कि मेरे गांव में मूलभूत सुविधायें तक नहीं थीं। इसे हासिल करने के लिए संबंधित अधिकारियों के बहुत चक्कर भी लगाये लेकिन बहुत सफलता नहीं मिली। जिसके बाद राजनीति में आने का मन बनाया और फिर उसके बाद 1989 में भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। उस समय मुम्बई में पार्टी का अधिवेशन था तब पहली बार भाजपा के बड़े नेताओं अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, प्रमोद महाजन व सुषमा स्वराज जैसे नेताओं को देखने और मिलने का मौका मिला।
पहला चुनाव आपने कब लड़ा?
1989 के चुनाव में पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हुआ लेकिन 1990 में पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा और विधायक बना। उसके बाद विधायक रहते हुए ही 1991 में लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन सफलता नहीं मिली। अब तक आठ चुनाव लड़ा जिसमें से छह जीता। दो बार विधायक और चार बार सांसद बना। 1999 में पहली बार केन्द्र में मंत्री बना।
विधायक या सांसद बनने के बाद अपने क्षेत्र के लिए क्या किया?
जिसके लिए एक आम नागरिक के नाते प्रयास करता था, जनप्रतिनिधि बनने के बाद उसी को प्राथमिकता दी। गांव में सड़क और बिजली की व्यवस्था की। मेरी एक आदत है जब भी मैं गांव या अपने क्षेत्र में जाता हूं तो सारी समस्यायें नोट करके लाता हूं और फिर देखता हूं कि किस समस्या का समाधान कैसे हो सकता है। पहले तो गांव में स्कूटर से ही घूमता था और कोशिश करता था कि रात वहीं बिताऊं लेकिन अब सुरक्षा कारणों से गेस्ट हाउस या होटल में ठहरना पड़ता है, लेकिन वहां भी हमेशा सूटकेस में हमारा लेटरपैड और स्टैंप हमारे साथ होता है। जन समस्याओं के बारे में जो भी हमसे मिलता है उसकी समस्या का निदान उसी समय करने का प्रयास करता हूं। कुल मिलाकर अपने क्षेत्र में जो भी काम किया वह ‘आल टाइम रिकार्ड’ है लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

आपको जीवन में सबसे ज्यादा किसने प्रभावित किया या फिर यूं कहें कि प्रेरणा स्त्रोत कौन था?
दरअसल, मैं हिन्दू विचारधारा वाला व्यक्ति हूं। उड़ीसा और हमारे क्षेत्र में प्रलोभन देकर धर्मान्तरण कराकर लोगों को क्रिश्चियन बनाया जाता था। इस बात की हमें अपार पीड़ा थी। प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण रोकने के लिए हमारा झुकाव विश्व हिन्दू परिषद की तरफ होता चला गया। और मैं विहिप की विचारधारा से विशेष तौर पर प्रभावित हुआ।
आदिवासियों का धर्मान्तरण एक विवादित मुद्दा रहा है, इस पर कुछ प्रकाश डालिए?
आदिवासी मूल रूप से हिन्दूवादी समाज है। पर कई बार लोगों को उनकी जीवनशैली और रहन-सहन से यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि वे हिन्दूवादी नहीं हैं। दरअसल, हमारा समाज तीन वर्गों में बंटा है। पहला सात्विक, दूसरा राजसी और तीसरा तामसिक। आप प्राय: देखते होंगे कि समाज के सभी वर्ग इन्हीं तीन विधाओं से अपनी जीवन शैली को संचालित करते हैं। आदिवासी समाज मूलरूप से तामसिक जीवन शैली पर निर्भर करता है। जंगल में रहना, जानवरों का शिकार करना, उनका मांस खाना, जंगली फलों के रस से बनी मदिरा वगैरह का सेवन करना उसके जीवन यापन का मुख्य जरिया रहा है। मूलत: तामसिक होने के नाते कई बार लोगों को भ्रम हो जाता है। किन्तु मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि आदिवासी पूरी तरह से हिन्दू समाज है। बस इसका मूल तामसिक है। मैं गर्व से कहता हूं कि मैं हिन्दू हूं और तमस हमारा मूल तत्व है।
उड़ीसा में पार्टी की स्थिति क्या है?
पार्टी की स्थिति दिन प्रति दिन उड़ीसा में अच्छी होती जा रही है। भाजपा 1997 में ही बहुत अच्छा प्रदर्शन करती लेकिन मेरे हिसाब से बीजू जनता दल (बीजद) से उस समय किया गया गठबंधन के फैसले से नुकसान हुआ। बीजद ने अपनी ताकत तो बढ़ा ली, लेकिन भाजपा को कमजोर कर दिया। लेकिन अब स्थितियां बदल रही हैं और जल्द ही उड़ीसा में भी कमल खिलेगा।

आपका मंत्रालय आदिवासी-जनजाति लोगों व समाज के लिए क्या किया?
आदिवासियों के जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए बहुत सारी योजनाएं चलायी गयीं हैं जिसके चलते उनके जीवन में काफी बदलाव आया भी है और यह प्रक्रिया निरन्तर जारी है। सबसे बड़ी बात यह थी कि जंगल में रहने वाले आदिवासियों को वन उपज की वाजिब कीमत मिले तो उनकी स्थितियों में काफी सुधार हो सकता है। वे पेड़ों से इमली, महुआ, हर्रा, आंवला, सालसिड आदि उपजाते हैं और उन्हें स्थानीय बाजार में बेचते हैं। इसी सोच के बाद हमने न्यूनतम मूल्य तय किया। इससे उन्हें अच्छी कीमत मिलने लगी है। अब ट्राईफेड इनकी मार्केटिंग में मदद करता है। इसके अलावा हमारा मंत्रालय तो बजट बनाता ही है, इसके अलावा अन्य बड़े मंत्रालयों के बजट में 15 फीसदी राशि आदिवासी इलाकों में खर्च किए जाने का प्रावधान तो था पर ऐसा होता नहीं था और यह धनराशि लैप्स हो जाती थी। अब इस पर जब प्रधानमंत्री ने कड़ाई की तो धन खर्च होना लगा है। इससे भी जनजाति के लोगों को जीवन स्तर सुधरेगा।

केन्द्र में आप मंत्री कब बने?
साल 1999 में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में जब केन्द्र में सरकार बनी तो उन्होंने पहली बार जनजातीय मामलों का अलग से मंत्रालय बनाया और मुझे इस मंत्रालय की जिम्मेदारी दी। इसके बाद अब जबकि एक बार फिर भाजपा की नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी तो फिर मुझे इसी मंत्रालय की जिम्मेदारी मिली।

आपके अपने मंत्रालय का कितना बजट है?
वर्तमान में मेरे मंत्रालय का बजट 4800 करोड़ का है। जब इस मंत्रालय का 1999 में गठन हुआ था तब बजट 900 करोड़ ही था।
क्या कुछ ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट्स खोले गए हैं?
जी हां, देशभर में 18 ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट खोले गए हैं। इन्हें आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने के लिए सरकार ने काम किया है। मंत्रालय की प्राथमिकता में विलुप्त हो रहे ट्राइबल को बचाने की है।
क्या राज्य सरकारें जनजातियों के लिए आप की ही सोच पर काम करती है?
देखिए, यह सही है कि हमारा मंत्रालय जनजातियों के हित में नीतियां बनाता है। जबकि उसका क्रियान्वयन राज्य सरकारें करती हैं। इसीलिए हर साल राज्यों के मंत्रियों व मंत्रियों के साथ बैठक होती है जिसमें जनजातियों के उत्थान के लिए विभिन्न मुद्दों पर चर्चा होती है।

किन राज्यों ने बेहतर काम किया है?
गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान राज्य की सरकारों ने बेहतर काम किया है।

क्या वनबंधु कल्याण योजना बंद की जा रही है?
जी हां, दरअसल नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आदिवासी समाज के सामाजिक उत्थान के लिए चलाई जा रही वन बंधु कल्याण योजना को राज्यों का सहयोग नहीं मिल रहा था, इसलिए इसे बंद करने का फैसला किया गया है। अब वन बंधु कल्याण योजना के तहत चली विभिन्न परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा लेकिन इसमें नये कार्यक्रम नहीं लिए जाएगें और धन का आवंटन नहीं होगा। वास्तव में वन बंधु कल्याण योजना का उद्देश्य संस्थागत तंत्र के माध्यम से संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल और एक समग्र दृष्टिकोण के जरिये आदिवासियों का व्यापक विकास है। देशभर में जनजातीय आबादी को जल, कृषि एवं सिंचाई, बिजली, शिक्षा, कौशल विकास, खेल एवं उनके सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण, आवास, आजीविका, स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सेवाओं एवं वस्तुओं को मुहैया कराने के लिए यह योजना एक संस्थागत तंत्र के रूप में काम करती है। वन बंधु योजना आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों में प्रायोगिक आधार पर शुरू की गई है। योजना के तहत प्रत्येक ब्लॉक में विभिन्न सुविधाओं का विकास करने के लिए 10 करोड़ रुपये देने की घोषणा की हुई है। इन ब्लॉकों का चयन संबंधित राज्यों की सिफारिशों और कम साक्षरता दर के आधार पर किया गया। यह योजना वनोपज पर आदिवासी समाज के अधिकार को स्वीकार करती है और उसके बेहतर मूल्य सुनिश्चित करती है।

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