Political News - राजनीतिउत्तर प्रदेशदस्तक-विशेष

यूपी में तुष्टिकरण की सियासत ने फिर पकड़ी रफ्तार

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा और नूरपुर विधान सभा सीट पर गठबंधन प्रत्याशी की जीत ने बीजेपी विरोधियों के हौसलों को पंख लगा दिए हैं। बीजेपी को पानी पी-पीकर कोसा जा रहा है। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह कहते हैं भाजपा ने किसानों को छला। भाईचारा खत्म किया। लोगों को आपस में लड़वाया। जनता अब भाजपा की हकीकत समझ चुकी है। वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव कहते हैं कि यह सरकार के अहंकार की हार है, मंहगाई बढ़ रही है। जनता ने सरकार के खिलाफ मतदान किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी पीछे नहीं रहे। उनका कहना था हार-जीत से सभी सबक लें। मैं मेहनत व समर्पण के लिये कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आभार जताता हूं। नतीजे आने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती की तरफ से जरूर कोई त्वरित टिप्पणी नहीं आई। उक्त पार्टियों के तमाम ‘लम्बरदारों’ के अलावा इन पार्टियों के अन्य छोटे-बड़े नेताओं की जुबानी ‘तोपें’ भी बीजेपी का ‘सीना’ छलनी करती रहीं। गैर तो गैर थे, अपनों ने भी खूब भड़ास निकाली। हरदोई के गोपामऊ विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक श्याम प्रकाश ने कैराना और नूरपुर में बीजेपी की हार पर संगठन और सरकार दोनों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया। श्याम ने सीएम योगी को असहाय बताया। हां, केन्द्रीय गृहमंत्री ने राजनाथ सिंह ने जरूर सधा हुआ बयान दिया, उनका कहना था,‘लम्बी छलांग लगाने के लिये आपको दो कदम पीछे हटना पड़ता है। हम निश्चित तौर पर भविष्य में लंबी छलांग लगायेंगे। उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष डॉ. महेन्द्र पांडेय के लिये भी यह हार किसी सदमे से कम नहीं थी। उनकी अध्यक्षता पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं, लेकिन पांडेय जी को लगता है कि जातिवाद व सिद्धांतहीन राजनीति विकास कार्यों पर भारी पड़ी।विरोधियों ने अपने हिसाब से यह भी बताया कि बीजेपी क्यों हारी। उनका कहना था गन्ना किसानों की नाराजगी, दलितों पर बढ़ते अत्याचार, मंहगाई, साम्प्रदायिकता जैसी तमाम राष्ट्रविरोधी विचारधारा के चलते ही बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। बीजेपी से जाट-दलित-पिछड़ों सबने मुंह मोड़ लिया। मगर यह सिक्के का एक पहलू है। बीजेपी विरोधी खेमा जिस जीत को योगी और मोदी सरकार के खिलाफ जनादेश बता रहा है। दरअसल उसकी बड़ी वजह कैराना और नूरपुर का जातीय गणित है। यहां 30 से 40 प्रतिशत आबादी मुस्लिमों की है, जो हमेशा बीजेपी के खिलाफ खुलकर मतदान करते हैं। आप अगर सौ हिन्दुओं से बात करेंगे तो इनकी विचारधारा कांग्रेस पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल जैसे तमाम दलों के बीच बंटी हुई नजर आयेगी, लेकिन जब 100 मुस्लिमों से बात की जाती है तो सब के सब भले ही समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल जैसे तमाम दलों के बीच बंटे नजर आते हों, लेकिन यह लोग बीजेपी प्रत्याशी के खिलाफ दृढ़तापूर्वक खड़े नजर आते हैं। इसीलिये तो सपा प्रमुख अखिलेश यादव जैसे नेता बीजेपी की तरफ इशारा करते हुए यह कहने में तो नहीं हिचकिचाते हैं कि कैराना में देश बांटने वाले हारे, मगर फतवा राजनीति की बात आती है तो उनकी जुबान सिल जाती है। कैराना चुनाव के समय मुस्लिम धार्मिक गुरू द्वारा मुसलमानों से बीजेपी के खिलाफ मतदान करने का आह्वान एक संज्ञेय अपराध होना चाहिए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस पर मीडिया से लेकर बीजेपी विरोधी नेता तक चुप्पी साधे रहते हैं। वह जिन्ना की तस्वीर लगे रहने की वकालत करते हैं? अल्पसंख्यकों को भयभीत बताते हैं? मगर पश्चिमी बंगाल में जब हिन्दुओं पर अत्याचार होता हो तो यह लोग उस तरफ से अपनी आंखे फेर लेते हैं। लव जेहाद की तरफ से आंखें मूंदकर बैठे रहते हैं? बढ़ती जनसंख्या हिन्दुस्तान के लिये एक अभिशाप बन गया है, इससे विकास की योजनाएं भी प्रभावित हो रही हैं, लेकिन कोई नेता नहीं बोलता, क्योंकि उसे लगता है कि इससे उसका मुस्लिम वोट बैंक बिखर जायेगा। यह सब इसलिये होता है ताकि मुस्लिमों का थोक में वोट मिल सके। आखिर थोक में 20-25 वोट किसी के खाते में चला जाये तो किसे फायदा नहीं होगा। आधी लड़ाई तो बीजेपी इसी के चलते हार जाती है।
ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों वोटों को भुनाने की कोशिश करने वालों को बीजेपी जबाव नहीं देती है, वह भी हिन्दू वोटरों को अपने पक्ष में लामबंद करने से चूकती नहीं हैं। इसी के बल पर 2014 में मोदी को और 2017 में योगी को फतह मिली थी, लेकिन यह बात बीजेपी विरोधी वोट के सौदागरों को रास नहीं आई, इसीलिये तो दलित उत्पीड़न की छोटी से छोटी घटना को विकराल रूप दे दिया जाता है। कभी आरक्षण तो कभी दलित उत्पीड़न के नाम पर हिन्दू वोटों में बंटवारा किया जाता है।
कैराना को ही ले लीजिये। यहां हुए उप-चुनाव में भाजपा की हार में किसानों को गन्ना भुगतान नहीं मिलना बड़ा फैक्टर माना जा रहा है, लेकिन यदि शामली-सहारनपुर में गन्ना भुगतान के आंकड़ों पर गौर करें तो चौंकाने वाली सच्चाई सामने आयेगी। जिन शुगर मिल क्षेत्रों में गन्ने का भुगतान ज्यादा रहा, वहां भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। शामली जिले में गन्ना भुगतान की स्थिति खराब थी, लेकिन यहां भाजपा को अच्छा-खासा वोट मिला। गन्ना भुगतान का आक्रोश कम करने को योगी सरकार ने जितने जतन किए, उसका लाभ उसे नहीं मिला। इससे साफ है कि भले ही जिन्ना पर गन्ना भारी होने का शोर मचाया जा रहा हो, लेकिन गन्ने से ज्यादा मुस्लिम वोटों के धु्रवीकरण ने उपचुनाव को प्रभावित किया। गठबंधन के जातिगत आंकड़ों में भाजपा बुरी तरह फंस गई।
कैराना उप-चुनाव में गन्ने पर घिरी भाजपा ने हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण करने के लिये जिन्ना, दंगा और पलायन का दांव चला, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। गन्ना भुगतान के आंकड़ों पर यदि नजर डाली जाए तो भाजपा को उन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ जहां भुगतान की स्थिति बेहतर रही। सहारनपुर जनपद के गंगोह व नकुड़ विधानसभा में तीन शुगर मिल हैं। यहां किसानों के गन्ना बकाये का लगभग 70 प्रतिशत तक भुगतान हो चुका है, लेकिन गंगोह में रालोद को जहां 108411 वोट मिले वहीं, भाजपा को मात्र 96141 मिले। इसी तरह नकुड़ में रालोद को 114341 और भाजपा को 86224 मिले। यह आयुष मंत्री धर्म सिंह सैनी का विधानसभा क्षेत्र भी है। भाजपा प्रत्याशी मृगांका सिंह की हार में आए अंतर के लिए इन दोनों विधानसभा की अहम भूमिका रही थी। कैराना विधानसभा में ऊन शुगर मिल द्वारा 50 फीसद गन्ना भुगतान के बावजूद भाजपा 14 हजार से ज्यादा वोट से पिछड़ गई। रालोद को जहां 88539 मिले, वहीं भाजपा 73334 वोट तक सिमट गई। शामली का आंकड़ा बिल्कुल अलग रहा। यहां शामली शुगर मिल ने मात्र 45 फीसदी गन्ने की कीमत का भुगतान किया, लेकिन यहां भाजपा को मामूली बढ़त मिली। रालोद को जहां 77159 मिले, वहीं भाजपा के खाते में 77571 वोट आए। थानाभवन में 53 फीसदी भुगतान के बाद भी भाजपा को यहां पिछड़ना पड़ा। यहां रालोद को 88539 वोट प्राप्त हुए और भाजपा को महज 73334 वोट से संतोष करना पड़ा। कहने का तात्पर्य यह है कि भाजपा के खिलाफ महागठबंधन को मुस्लिम, दलित व जाट समीकरण ने ज्यादा प्रभाव डाला। गन्ना नारे तक ही सीमित रहा।
उपचुनाव नतीजों के परिणाम के आधार पर विपक्षी दल जनता को यह संदेश देने में और अधिक समर्थ दिख रहे हैं कि वे सब मिलकर 2019 में भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकते हैं, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि जनता इस संदेश से प्रभावित ही हो और एक साल बाद होने वाले आम चुनाव में ठीक वैसे ही मतदान करे जैसे उसने बीते दिनों किए।
बहरहाल, बीजेपी के लिये जो थोड़ा ठीकठाक रहा उस पर नजर दौड़ाई जाये तो गोरखपुर-फूलपुर से पार्टी ने इतना सबक जरूर लिया कि कैराना-नूरपुर के चुनाव में उसने पूरी ताकत झोंकी। इसका असर यह रहा कि संयुक्त विपक्ष और काफी कम मतदान के बाद भी पार्टी के वोट शेयर में बहुत गिरावट नहीं आई। कैराना में 2014 में भाजपा को 50.54 प्रतिशत वोट मिले थे। उपचुनाव में संयुक्त विपक्ष के बाद भी पार्टी को 46.5 प्रतिशत वोट मिले। करीब 18 प्रतिशत कम मतदान के बाद भी 4 प्रतिशत वोटों का घटना 2019 के लिए धुंधली उम्मीद भी है। वहीं, नूरपुर में पार्टी को 2017 के मुकाबले 10 हजार वोट अधिक मिले। फिर भी आगे की सियासत के लिये भाजपा को यह ध्यान रखना होगा कि हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण करने के चक्कर में वह मुसलमानों को एकजुट होने का मौका नहीं दे। कैराना और नूरपुर में बीजेपी को इसी गलती के चक्कर में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। हिन्दुओं की जगह मुस्लिम वोटों का धु्रवीकरण हो गया तो एक मौलाना के फतवे ने इसमें तड़का लगा दिया।

Related Articles

Back to top button