दस्तक-विशेषसाहित्य

‘रेस्क्यू-ऑपरेशन’

-राम नगीना मौर्या

-सुबह बिस्तर छोड़ते के उपरान्त, अमूमन जैसी कि दिनचर्या है, दैनन्दिन की क्रिया-प्रक्रिया से पहले मेरी आदत है, कम-अज-कम दो गिलास गुनगुना पानी पीना। सो इसी क्रम में किचन में जाकर, सॉसपैन में अंदाजन दो गिलास पानी, हल्का गुनगुना होने के लिए गैस-चूल्हे पर चढ़ा दिया। पानी पीकर उसी सॉसपैन में चाय बनाने के लिए एक कप दूध और आवश्यकतानुसार पानी-चाय की पत्ती-अदरक-काली मिर्च आदि डालकर सॉसपैन को गैस-चूल्हे पर हल्की आंच कर रखते हुए ढक दिया। रात की बारिश के बाद, आसमान साफ हो गया था। सूरज की किरणें खिड़कियों से छनकर बरामदे में आ रहीं थी। हमेशा की तरह चाय की चुस्कियां भरते पोर्च में आकर फर्श पर पड़े अखबार के बिखरे पन्नों को समेटने लगा कि तभी अचानक मेरी नजर सामने लॉन की तरफ लगे नल की ओर गयी। फर्श पर काले-काले बड़े-बड़े धब्बों के बीच कुछ रेंगने-छटपटाने जैसी एक आकृति सी दिखी। कौतुहलवश नजदीक जाकर देखा तो…एक केंचुए को चारों ओर से ढेरों चीटियां घेरे, धमा-चौकड़ी मचाते, चहुंओर से उस पर पिली पड़ीं थीं।
वहां का हौलनाक मंजर? देखकर भीतर-ही-भीतर मेरा मन खौफ से भर उठा। किसी निरीह के दर्द, छटपटाहट भरे अनुभव का भान हुआ। पर, अगले ही पल केंचुए की छटपटाहट शान्त हो गयी। जिसे देखकर एकबारगी लगा…शायद, इन चींटियों के बींधने-काटने से मर गया हो? चलो छोड़ो… ये इन चीटियों के भोजन के ही काम आ जायेगा? सोचा ये भी कि… ‘अरे ये तो सिम्पली एक फूड-चेन है, हमारी प्रकृति का। ऐसे में, मुझे ज्यादा सोच-विचार करने की आवश्यकता भी क्या?’तो भी-फिर भी… उस केंचुए को लेकर कुछ विभ्रम, कुछ असमंजस की स्थिति तो थोड़ी देर तक मेरे मन-मस्तिष्क में बनी ही रही। फिर कुछ सोचा…‘चलो, इस केंचुए को उलट-पलट कर देखते ही हैं, क्या पता अभी जिन्दा हो?’
इसी निमित्त पास ही पड़ी एक सूखी डण्ठल से केंचुए को हल्के अभी छुआ भर ही होगा कि…‘‘त्राहिमाम हे भले-मानुष…’’ …मानों एस़ओ़एस़ का एक आत्र्तनाद सा गूंजा हो मेरे कानों में। एक झटके में अनेकों प्रसंग-कथाएं, मेरे मन-मस्तिष्क में आलोड़न-विलोड़न होने लगीं। प्रकारान्तर से ढेरों मर्मभेदी स्वर-लहरियां… स्मृति-पटल पर दस्तक देने लगीं। कानों में किसी मरणासन्न का कातर-स्वर प्रतिध्वनित हुआ। तुरन्त ये सुविचार कौंधा मेरे मन-मस्तिष्क में कि ‘मुझे इस केंचुए को उलट-पलट कर देखना ही चाहिए।’ यही सोचते, उसी डण्ठल से एक बार उसे फिर हल्के ढकेलते, देखना चाहा। केंचुए में एक बार फिर हल्की हलचल हुई।
अरे… ये तो अभी जिन्दा है? इसे इन चींटियों की मार से बचाना चाहिए? अन्तर्मन में परोपकार या शायद… करुणा-भाव ने करवट बदला। ध्यान दिया तो… बुरी तरह उन चींटियों से घिरे होने, बार-बार बेरहमीं से उनके बींधने-काटने-सताने से वो केंचुआ असहाय सा महसूस कर रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर पर उसमें हो रही हरकत, उसकी छटपटाहट, तिलमिलाहट, बेचैनी को नजदीक से साफ-साफ देखा…महसूस किया जा सकता था। सर्व-समावेशी नजरिये… ऐसी देश-काल-स्थिति- परिस्थिति पर गौर करते, अखबार बांचने, मॉर्निंग-वाक पर जाने का विचार तत्काल स्थगित किया। मानों याद आ गया हो जरूरी जीवन-बोध, कर्तव्य-बोध। सूखी डण्ठल से केंचुए को एक बार फिर हल्के छुआ। इस बार उसमें तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ऐसा लगा जैसे जान बचाने के उपक्रम में उसने इस बार अपनी पूरी ताकत झोंक दी हो। केंचुआ उस सूखी डण्ठल से लिपटने लगा।
केंचुए में अभी जान बाकी है। ये सोच उस केंचुए की जान बचाने की गरजवश मैंने तत्काल इधर-उधर नजर दौड़ाई। बाहर लॉन में ही बिना हैण्डल वाली बाल्टी पड़ी हुई थी, जो गत रात हुई बारिश की वजह से लबालब भर गयी थी। बाल्टी के बगल में ही गमलों में पानी देने वाला टूटा मग भी पड़ा था। परदु:खकातरतावश, नि:सहाय केंचुए की स्थिति-परिस्थिति को महसूस करते, बिना ज्यादा कुछ आगे-पीछे सोचे… मैंने फौरन ही बाल्टी से एक मग पानी निकाल कर घायल केंचुए पर डाल दिया। केंचुए पर पानी पड़ते, तत्क्षण ही सभी चींटियां तितर-बितर हो चहुंओर, मानों घबड़ाकर, सरपट भागने लगीं। इसी उपक्रम में मैंने केंचुए पर ताबड़तोड़ दो-तीन मग पानी और डाल दिया। अब वो केंचुआ निढाल पड़ा था, पर उसमें हल्की-फुल्की हरकत अभी भी हो रही थी। सभी चींटियां वहां से जा चुकी थीं। मन में सुबह-सुबह ही कुछ अच्छा कार्य करने का भाव उत्पन्न हुआ। मेरा काम अब खत्म हो चुका था।
बावजूद इस सुदीर्घ क्रिया-प्रक्रिया-प्रतिक्रिया के, मैं पूरी तरह मुतमैयन अभी भी नहीं हो पा रहा था। मन में अभी भी ये आशंका बनी हुई थी कि अगर इस केंचुए को यहां यूं अकेले छोड़ दिया गया तो, वो शिकारी चींटियां कहीं दुबारा न आ जायें? दुबारा न परेशान करने लगें इस निरीह केंचुए को? अबकी बार तो वो इसके चारों ओर सिर्फ धमा-चौकड़ी ही नहीं मचायेंगी, बल्कि इसे काटते-बींधते सतायेंगी ऐसे कि हो सकता है अबकी मार ही न डालें इसे जान से?
ये सोच कर कि देखूं? केंचुए पर मेरी किसी क्रिया की, अगली प्रतिक्रिया क्या होती है, उसी डण्ठल से एक बार फिर उसे लॉन की तरफ ढकेलने की कोशिश की। प्रतिक्रियास्वरूप वो केंचुआ भी तेजी से लॉन की ओर खिसकते, भागने लगा। मन को आह्लादित करती, केंचुए की दशा-दिशा देख, मन द्रवित हो उठा। ताबड़तोड़ तीन-चार मग पानी उस पर और डालते, मैंने उसे लॉन की तरफ जाने में मदद की। सकपकाया सा वो केंचुआ भी तेजी से अपनी जान बचाने के निमित्त गीली जमीन में घुसने…शायद लुकाने का प्रयास करने लगा। अब वहां चींटियों का नामोंनिशान नहीं था। सभी चीटिंयां तितर-बितर हो निकल गयीं थीं, अपने अगले मुकाम पर? शायद भोजन की तलाश में?
मेरी नजर पल-भर के लिए ही इधर-उधर हुई होगी कि वो केंचुआ भी अब लॉन में कहीं नहीं दिख रहा था। शायद वो भी घास में कहीं…लुकाने-छुपने में कामयाब हो गया था?
थोड़ा विषयान्तर करता चलूं। मैं इस बात से बेखबर नहीं था कि घर के अन्दर, सुबह-सुबह ही ड्राइंग-रूम में सोफे, खिड़कियां, दरवाजे के पर्दों की धूल झाड़ते…खिड़की के उस पार से, पत्नी जाने कब से मेरी इस पूरी कवायद पर नजर रखे…खुद में जाने क्या-कुछ बड़बड़ा रहीं थीं…?
‘‘झिंगाऽलाला-झिंगाऽलाला…हुर्र-हुर्र…’ जिस समय श्रीमती जी मुझ पर बड़बड़ा रहीं थीं, उसी समय ड्राइंग-रूम में रखे मेरे मोबॉयल का सिंग-टोन गूंजा, जिसे श्रीमती जी ने ही रिसीव किया। मैंने ध्यान दिया कि खिड़कियों और दरवाजों की धूल झाड़ते-झाड़ते ही श्रीमती जी ने अपनी बहुआयामी-बहुमुखी प्रतिभा का परिचय देते, हँसते-खिलखिलाते, फोनकत्र्ता से बातें करतीं रहींं। जितना कुछ भी मैं सुन पाया, उन बात-बतकहियों की बानगी, जेरे नजर है:-
‘हां… हलो कौन?’’अरे! दीदी, आप तो अपने भइय्या को जानती ही हैं कि कितने सनकी-झक्की टाइप के हैं…पता नहीं दिमाग में कब-क्या-कौन सा खब्त सवार हो जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता?’’अरे! जानती हैं, अभी परसों शाम को ऑफिस से निकले। स्कूटी स्टार्ट करने लगे। दस-पन्द्रह बार किक मारने के बाद भी जब स्कूटी स्टार्ट नहीं हुई तो देखा कि पेट्रोल वाली सूई जीरो पर अटकी हुई है? पेट्रोल खत्म है? फौरन मुझे फोन मिला दिया, कहने लगे…‘ये सब तुम्हारे ही कारण है। कल देर शाम को बाजार जाने की जिद न करती, तो इसमें आज ऑफिस आने-जाने भर का पेट्रोल था?’’
नहीं-नहीं! मैंने उन्हें ऑफिस जाने से पहले ही याद दिलाया था…‘स्कूटी में पेट्रोल कम है, रास्ते में पेट्रोल-पम्प पर भरवा लीजिएगा।’ जब शाम को इन्होंने मुझे बताया कि स्कूटी में पेट्रोल खत्म हो गया है, तो मैंने उन्हें फिर याद दिलाया कि, ‘मैंने तो आपको सुबह ही बोला था कि पेट्रोल भरवा लीजिएगा।’ उन्होंने हुंकारी भी भरी थी कि ‘हां, रास्ते में पड़ने वाले पेट्रोल-पम्प पर भरवा लूंगा।’ अब आप ही बताइये? स्कूटी वो चलाते हैं कि मैं? स्कूटी में पेट्रोल खत्म होने वाला है या अभी कितना है, इसकी जानकारी उन्हें होनी चाहिए कि मुझे? बताइये, मैंने कोई अजगुत बात तो कही नहीं? फिर, सरेख वो हुए कि मैं?’’वही तो! जब यही सब कहते, मैंने उन्हें झिड़कते याद दिलाया कि ‘अच्छा अब जो हुआ सो हुआ। अब आप अपनी स्कूटी, लेकर बाहर निकलिए। ऑफिस के मेन-गेट से बांयीं ओर थोड़ी दूर चल कर ही तो पेट्रोल-पम्प है। स्कूटी ढकेलते, खरामां-खरामां चले जाइये, पेट्रोल भरवा लीजिए।’ इस तरह डिटेल में समझाने पर उनके दिमाग में ये बातें आईं।’’
बात डिपेण्डेन्सी की नहीं होती दीदी…? ये तो सरासर लापरवाही हुई न? और सुनिए, परसों सुबह-सुबह ही अपने कम्प्यूटर पर कोई काम?…हां-हां, वही लिखने-विखने वाला ही काम…? कर रहे थे कि अचानक उनके कार्डलेस-माउस ने काम करना बन्द कर दिया। काफी देर तक माउस को ठोंका-पीटा-हिलाया-डुलाया, और दुलराया भी। देखा-जांचा-परखा, तो पता चला कि उसकी बैटरी काफी पुरानी हो गयी है, इसीलिए काम नहीं कर रहा। अब इसके लिए भी मुझे ही जिम्मेदार ठहराते, कहने लगे ‘तुम्हारा अपने बच्चों पर कोई नियन्त्रण नहीं है…? बच्चे दिन-भर कम्प्यूटर पर जाने कौन-कौन से अगड़म-बगड़म-सगड़म, गेम वगैरह खेलते रहते हैं, तुम उन्हें रोक भी नहीं सकती? कम्प्यूटर पर जब भी कोई जरूरी काम करने की सोचो, तो कुछ-न-कुछ गड़बड़ाया ही रहता है?’’
‘‘सही बात है! आखिर बच्चे, उनके भी तो हैं? वो ही क्यों नहीं मना करके देख लेते अपने लाडलों को? क्या पता उनकी ही बातें मान जायें?’’हां, फिर मैंने भी कस्स् के झाड़ दिया। जम कर सुना दिया…‘आप ही बच्चों को रोक-टोक कर देख लीजिए, क्या पता आपकी ही बात मान जायें?’’
‘‘ये भी तो…एक दिन जब अपना मोबॉयल लेकर ऑफिस गये थे, वहां जब बात करने के लिए जेब से मोबॉयल निकाला तो देखा…ये तो स्विच-ऑफ है। ऑन करने की कोशिश की तो ऑन ही नहीं हुआ। पता चला मोबॉयल की बैटरी तो पूरी तरह डिस्चार्ज है। चूंकि इनका मोबॉयल चालू नहीं हुआ, सो इन्होंने ऑफिस के फोन से ही मुझे फोन मिला दिया और आव देखा न ताव, बस्स फोन पर ही मुझ पर अलफ हो, आंय-बांय-शांय बतियाने लगे। चूंकि इनके ऑफिस का नम्बर तो मेरे मोबॉयल में सेभ नहीं था, सो मैं भी भौंचक्की कि ये कौन है? जो मुझसे इस तरह बकवास बातें कर रहा है? गुस्से में तो वैसे भी इनकी आवाज भर्राने लगती है, इनकी आवाज पहचान ही नहीं पायी। मैंने भी खूब कस्स् के झाड़ लगा दी।’’
‘‘फिर क्या? जनाब आ गये लाइन पर…हां नहीं तो? अचानक आवाज नरम हो गई, तो फौरन ही पहचान गई कि ‘अररे ये तो ‘वो’ हैं?’ फिर मैंने जानना चाहा कि ‘आप अपने मोबॉयल से क्यों नहीं बतिया रहे हैं? कहीं घर पर ही तो नहीं छूट गया?’ तब इन्होंने अपनी परेशानी बताते, पूरी व्यथा-कथा सुनाई।’’मैंने समझाया भी, कि ‘बाऽबू को सुबह-सुबह स्कूल निकलने की जल्दी रहती है। नाश्ता करते-करते ही वो उस पर कुछ गेम-वेम भी खेलता रहता है। क्या पता…स्कूल के लिए निकलते समय आपके मोबॉयल को चार्जिंग में लगाना भूल गया होगा? पर आपको तो देखना चाहिए था न! अपनी चीज को चुस्त-दुरूस्त…अपडेट रखने की जिम्मेदारी तो आप ही की है न?’’
‘‘फिर कहते क्या? थोड़ी देर तक फोन पर ही झल्लाते-बड़बड़ाते रहे…‘समझी कि नहीं…? समझी कि नहीं…? तुम समझती ही नहीं…?’ कहते समझाते रहे, फिर पता नहीं क्या समझ-बूझ कर अपने आप ही शान्त हो गये।’’हां…आपके भाई-साहब अभी टहलने नहीं निकले हैं।’’
‘‘…हां हैं तो यहीं? लॉन में जरा एक ठो जरूरी ‘रेस्क्यू-ऑपरेशन’…? में लगे हैं।’आप थोड़ी देर बाद फोन करके उस ‘रेस्क्यू-ऑपरेशन’…? के बारे में उनसे, खुद्दै पूछ लीजियेगा। काहे से कि…पूरे मामले में जब-तक वो आपको…आद्योपान्त समझा नहीं लेंगे, उनके पेट में बात पचेगी भी तो नहीं?’’नहीं-नहीं, हम लोगों की बातचीत उन्हें सुनाई थोड़े न दे रही होगी? इस समय वो जिस काम में मगन हैं, वो उनके लिए ‘दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण कार्य’ है। सुध-बुध भुलाए, अपने काम में बड़ी शिद्दत से मगन हैं।’’
अभी, परसों ही तो मैंने कहा था…‘सुबह-सुबह दरवाजा मत खोला कीजिए’…तो इन्होंने सुना…‘सुबह-सुबह ज्यादा मत बोला कीजिए?’’अच्छा दीदी, रखती हूं। काम इतना सारा पड़ा है कि सांस लेने की भी फुर्सत नहीं है।’’
नमस्ते।’’आंय़.़क्या कहा? अरे दीदी, आपकी आवाज कट-कट कर आ रही है, जरा तेज बोलिए?’’आइये अब ननद-भौजाई की इस अलामत-मलामत सी अनाप-शनाप़.़? बातचीत से आगे बढ़ते हैं। हाल-फिलहाल-बहरहाल, मेरा ‘कन्सर्न’ तो कुछ और ही है?
उस केंचुए और उन चींटियों को लेकर, आलोड़न-बिलोड़न हो रहे तमाम भाव-विचार, मेरे मन-मस्तिष्क में…अभी भी अन्तर्गुम्फित हैं? असमन्जस में अभी भी हूं कि जो ‘फूड-चेन’ बनाई है प्रकृति ने, अपने अहमकपने के तईं या कह लीजिए जाने-अनजाने…अतिउत्साह, अति-भावुकता में, कहीं भंग तो नहीं कर दिया मैंने…? 

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