दस्तक-विशेषफीचर्डसाहित्यस्तम्भ

लामचंद की लालबत्ती

माता पिता ने उनका नाम रामचंद्र रखा था। किंतु मेट्रिक की परीक्षा देने से ठीक पहले, वे एक शपथपत्र देकर वैधानिक रूप से रामचंद्र से बदलकर ‘लामचंद’ हो गए। ये उस समय की बात है जब टेन प्लस टू का जमाना नहीं था। वो एट प्लस थ्री का दौर था। यानि आपको अपनी उम्र से लेकर नाम तक जो भी छेड़छाड़ करनी है आप ग्यारहवीं तक ही कर सकते थे। उसके बाद किए जाने वाला परिवर्तन बेहद पेंचीदा था, तब आपको तमाम सरकारी कर्मकांड से गुजरना पड़ता था। इस सरकारी कर्मकांड की पेंचीदगी उस धार्मिक कर्मकांड से भी अधिक भीषण थी जिसमें जबरदस्ती किसी पापात्मा को पुण्यात्मा बना कर स्वर्ग में सीट दिलाई जाती थी। उनके रामचंद्र से लामचंद होने के पीछे किसी न्यूमरोलोजिस्ट का हाथ नहीं था और ना ही यह क्रांतिकारी परिवर्तन माता-पिता के प्रति विद्रोह के चलते हुआ था। चूँकि वे बचपन से ही प्रखर बुद्घि के स्वामी थे इसलिए भविष्य में आने वाले संकटों को किशोरावस्था में ही ताड़ गए। वे मेट्रिक तक आते-आते जान गए थे कि ‘र’ शब्द जो भगवान शिव के लिए अमृत था, उनके लिए कालकूट विष साबित होगा।

भगवान राम में अगाध श्रद्घा होने के बाद भी उनकी जीभ ‘र’ को ‘ल’ बोलती थी। बचपन में उनके द्वारा अपने नाम रामचंद्र की जगह लामचंद बोलना बड़ों के लिए आनंद का कारण था, वे उसे छोटे बच्चे का मासूम प्रयास समझ कर बहुत प्यार से उनकी पप्पियाँ लेते, किंतु पांचवी तक आते-आते पप्पी डाँट में बदलने लगी, आठवीं तक चिंता का विषय हो गई और आठवीं के बाद पप्पी ने प्रतारणा का रूप धारण कर लिया और इसी प्रतारणा ने रामचंद्र की सोई हुई प्रतिभा को झंझोड़ कर जगा दिया, वे समझ गए कि वे कभी भी ‘र’ को ‘र’ नहीं कह पाएँगे, सो बेहतर है कि अपने नाम को रामचंद्र से लामचंद कर दिया जाए। चूँकि लामचंद स्कूल के समय से ही राजनीति के प्रति आकर्षित थे, इसलिए स्कूल में होने वाले चुनाव में वे प्रतिवर्ष खड़े हो जाते (जी उस समय स्कूलों में चुनावों की परम्परा थी)।

वे क्लास मनिटर, सहसचिव, सचिव, उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष पद तक का चुनाव मात्र इसलिए हार गए, क्योंकि उनका विरोधी पैनल हर चुनाव में इस बात का प्रचार जोरशोर से करता किजो लड़का अपना नाम भी सही नहीं बोल सकता, अपने देश का नाम सही नहीं बोलता,जो भारत को ‘भालत’ कहता है, राष्ट्रपति को लाष्टपति कहता है, राष्ट्रपिता को राष्ट्रपिता बोलता है, पंडित नेहरू को पंडित नेहलू, राजघाट को लाजघाट, पार्लियामेंट को पालियामेंट, यहाँ तक कि अपने देश की मुद्रा रुपया को लुपया, राजनीति को लाजनीति, रेलगाड़ी को लेलगाड़ी बोलता है, वो स्कूल का सही नेतृत्व कैसे करेगा? अब पहाड़े में से ‘र’ को हटाना, अपने देश, अपने महापुरुषों, राष्ट्र के संवैधानिक पदों, अपनी जन्मभूमि गाडरवारा में से एक नहीं दो-दो ‘र’ को हटाना, उनके सामर्थ्य के बाहर था। किंतु अपने नाम रामचंद्र पर तो उनका पूरा अधिकार था, इसलिए उन्होंने सोचा कि अपना नाम भी वर्णमाला के उसी अक्षर से शुरू करना चाहिए जिसके उच्चारण में जीभ की सहज रुचि व सिद्घता है, कम से कम मैं अपना नाम तो सही बोल पाऊँगा। तभी से उनका इस धारणा पर विश्वास और पक्का हो गया, कि जो व्यक्ति अपना नाम सही बोलता है, वो अपना काम भी सही करता है। और उसी दिन, वे रामचंद्र से लामचंद हो गए।
स्कूल में ही उन्हें राजनीति का चिटका लग गया था। सौभाग्यवश वे डेढ़ सौ एकड़ सिंचित भूमि के इकलौते वारिस थे, सो कॉलेज तक आते-आते उनकी राजनीतिक अंगीठी धुंधाने लगी, और कॉलेज छोड़ते ही भभक कर जल उठी। इलाके के बड़े किसान होने के नाते वे उस क्षेत्र के किसानों के सर्वमान्य नेता हो गए थे, इसके चलते शहरी क्षेत्र में भी उनकी अच्छी खासी धाक थी। किसी की वरयात्रा हो तो, लोग दूल्हा और घोड़ी के बाद लामचंद का जिक्र करते, शवयात्रा हो तो शव और ठठरी के बाद लामचंद का उल्लेख होता। कव्वाली का आयोजन हो तो तबला, सारंगी, लामचंद फिर कव्वाल। कुल मिलाकर लामचंद अपने उत्साह, ऊर्जा, सक्रियता के चलते उस पूरे क्षेत्र का ना चाहते हुए भी एक आवश्यक अंग हो गए थे। एक बार हमारे शहर के सबसे प्रसिद्घ मंदिर में चोरी हो गई चोर भगवान जी की मूर्तियाँ चुरा कर ले गए। पूरा शहर सकते में था, लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? सांसद, विधायक सब सन्न थे।

शहर अहिल्या के जैसा पाषाणवत हो गया था, तब लामचंद ने भगवान श्रीरामचंद्र का रोल अदा किया और करीब पाँच हजार किसानों का एक जंगी मोर्चा निकाला, जिससे सारा शहर हरहराकर जाग गया। अपने तूफानी भाषण से वे जन-जन के हृदय में पहुँच गए, उस समय मेरी उम्र करीब पंद्रह बरस की रही होगी किंतु आज भी उनका भाषण मुझे ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो, हाथठेले को मंच बनाकर लामचंद गरजे की गाड़लवाला (गाडरवारा) मंदिल (मंदिर) से गाडलवाला पुलिस स्टेशन कित्ते किलोमीटल (किलोमीटर)? बोले तो तीन किलोमीटल। औल (और) गाडलवाला से नलसिंगपुल (नरसिंहपुर) कित्ते किलोमीटल? बोले तो पचपन किलोमीटल। तो नलसिंगपुल की पुलिस डेढ़ घंटे में गाडलवाला आ सकती है, लेकिन गाडलवाला की पुलिस डेढ़ घंटे में तीन किलोमीटल नई आ सकती? जलूल (जरूर) इसमें पुलिस का हाथ है, टीआई को क्या जलूलत (जरूरत) थी लात को (रात को) नौ बजे की दुकान बंद कलो-दुकान बंद कलो।

 

पुलिस को आड़े हाथों लेकर उसे कटघरे में खड़ा करने के कारण, और जनता का भीषण दबाव देख उच्चाधिकारियों ने एक टीआई, दो सब इन्स्पेक्टर, और आठ सिपाहियों को तत्काल प्रभाव से सस्पेंड कर दिया और सात दिन में भगवान की मूर्तियाँ चोरों सहित बरामद कर ली गईं। उस समय पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोलना एक किस्म का भीमकार्य हुआ करता था। सो लामचंद क्षेत्र के अघोषित युवा तुर्क-मान लिए गए। राजनीति में विकट सक्रियता के बाद भी मैंने पाया कि उनकी रुचि विधायकी या सांसदी में बिलकुल नहीं थी। यहाँ तक कि वे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष या पार्टी-संगठन के बड़े पदों को भी वे हेय दृष्टि से देखते थे। किंतु लालबत्ती लगी हुई गाड़ी को देख के चहक जाते। लालबत्ती के प्रति उनका आकर्षण बीमारी की हद तक था, वे गाड़ी के टायरों की आवाज सुनके बता देते की गाड़ी लालबत्ती वाली है या नहीं। उनके लिए लालबत्ती में बैठे हुए व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण लालबत्ती की गाड़ी थी। उनका मानना था कि पद आते जाते रहते हैं, वे अस्थाई होते हैं लेकिन लालबत्ती स्थाई होती है। एक बार को भगवान का प्रभाव घट सकता है लेकिन लालबत्ती का नहीं।

पैसा, प्रसिद्घि तो सब कमा लेते हैं लेकिन लालबत्ती तक पहुँचना हर किसी के बस की बात नहीं है। जिसने लालबत्ती को हासिल कर लिया वही माई का ‘लाल’ कहलाने लायक है, अन्यथा उसे लाल कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई मंत्री लालबत्ती में उनके गाँव आता तो वे गाड़ी की तरफ ऐसे लपकते जैसे सांप छटून्दर को देखके लपकता है। उस मंत्री को रिसीव कर वे मंत्री के साथ जलसे या सभा में नहीं जाते, गाड़ी के पास ही खड़े रहते। उनके साथ के लोगों पर इसका अद्भुत प्रभाव पड़ता वे कहते कि लामचंद भैया को मंत्रियों के साथ घुसने की आदत नहीं है, वे स्वयं ना ठस के अपने लोगों को ठसने का मौका देते हैं। जबकि इसका असली कारण लामचंद का लालबत्ती के प्रति प्रेम था, उनकी हसरत का पता सिर्फ मजनू को ही चल सकता था क्योंकि लामचंद के लिए लालबत्ती लैला के जैसी थी, वे फरहाद थे और लालबत्ती उनकी शीरी, वे रांझा थे और लालबत्ती उनकी हीर, वे चकोर थे और लालबत्ती उनका चंद्रमा।
‘ल’ की लपक के बाद भी उनकी सम्पन्नता, सक्रियता, लोकप्रियता को देख दो बार उन्हें विधायकी का टिकट आफर हुआ, किंतु उन्होंने उसे बहुत चतुराई से उसे टरका दिया। इसका लोगों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा, उनकी छवि एक ऐसे जननेता की बनी जो सत्ता का भूखा नहीं है। किंतु लामचंद चुपचाप राज्य परिवहन निगम की चेयरमेनी या देश के डिसास्टर मेंनेजमेंट डिपार्टमेंट की पाँच सदस्यीय कमेटी में घुसने की जुगाड़ में लगे रहते। क्योंकि सिर्फ इन दोनों विभागों के बाईलज में ही लिखा था कि चेयरमेन को या कमेटी के सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्जा और लालबत्ती मिलेगी। बाकी निगमों की लालबत्ती बड़े नेताओं की दया पर डिपेंड थी। इसलिए वे अपना अधिकतम समय भोपाल, दिल्ली में गुजारते। एक दिन दिल्ली में मुझे मिल गए सफेद कड़क-कलफ किया हुआ कुर्ता पैजामा पहने हुए, रामायण के मेघनाथ के जैसी करीने से सजी हुई तलवार कट पतली मूँटें, लालसुर्ख-होंठ जिन पर वो हर दस मिनिट में लिपग्लास लगा लेते, वे मुझसे दस बारह बरस बड़े थे करीब साठ-बासठ के साल के, किंतु उनकी फिट्नेस का आलम ये था कि कोई भी उन्हें बयालीस, पैंतालीस के ऊपर का नहीं मानता। यदि वे मुँह ना खोलें तो कोई भी उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के चपेट में आए हुए बिना नहीं रह सकता।
मैंने कहा- भाईसाहब मुझे आपकी राजनीति समझ नहीं आती, आपकी पार्टी आपको चुनाव लड़वाना चाहती है और आप हैं कि निगम की चेयरमेनी के लिए लार टपकाते घूम रहे हैं।

अपने तीस साल बर्बाद कर दिए आपने, आज पता नहीं आप कहाँ होते। वे बेहद दोस्ताना स्वभाव के थे, बोले छोटे तुम नहीं समझोगे, ये ऐसी आग है जो लगाए ना लगे, बुझाए ना बुझे। वे अक्सर ऐसे शब्दों में वाक्य विन्यास करते जिसमें जब तक बहुत जरूरी ना हो ‘र’ ना आए। मेली (मेरी) कुंडली में लालबत्ती लिखी है। कामाख्या पीठ के सबसे बड़े ताँतलिक (तांत्रिक) से लेकर केलल (केरल) के प्रसिद्घ ज्योतिषी तक, दिल्ली से लेके देवली (देवरी) तक, भोपाल से लेकर भागलपुल (भागलपुर) तक, जो भी पंडित मेली (मेरी) कुंडली देखता है उसमें सबसे पहले उसको लालबत्ती घूमती हुई दिखाई देती है। बोले- मेले (मेरे) लिए लाजनीति (राजनीति) पैसा कमाने का साधन नहीं है, वो भगवान का दिया हुआ बहुत है। ये जनकल्याण या किसी के अकल्याण का लास्ता (रास्ता) भी नहीं है, क्योंकि जनकल्याण या किसी का अकल्याण मैं बिना इसके भी कलता (करता) लहता (रहता) हूँ, या कल (कर) सकता हूँ। जनबल है ही, तुमने देखा है। एक आवाज पे, हजाल (हजार) लोग इकट्ठे हो जाते हैं। बाहुबल है ही, तुम देख लहे (रहे) हो। उन्होंने अपनी भुजाओं में पड़ने वाली मछलियाँ मुझे आर्म फ्लेक्स करके दिखाईं और मुस्कुरा दिए। मैं लाजनीति सिल्फ लालबत्ती के लिए कलता हूँ। मुझे लालबत्ती से बेइन्तहाँ मोहब्बत है, बचपन में एक बाल (बार) इन्दला जी ( इंदिरा जी ) को देखा था, तभी सोच लिया था कि जीवन में एकबाल ( एकबार ) इसे हासिल कलना (करना) है। लोकतंत्र में लालबत्ती का लालच लाजमी है, लेकिन लामचंद के लिए लालबत्ती लालच नहीं लिप्सा थी। मैंने कहा भाईसाहब आप यदि चुनाव लड़े होते तो अभी तक मंत्री बनके लालबत्ती पा चुके होते। लामचंद बोले स्कूल से लेकल कलेज तक मैंने कुल सोलह चुनाव लड़े औल सभी में शिकस्त मिली, बिलकुल जलासंघ (जरासंघ) के जैसी। जलासंघ महाप्लतापी (महाप्रतापी) था उसने मथुला (मथुरा) जीतने के लिए सोला बाल आकल्मन (आक्रमण) किया लेकिन कभी जीत नहीं पाया। मैंने कहा अब्राहम लिंकन भी जीवन भर चुनाव हारते रहे, पहली बार चुनाव जीते वो भी राष्ट्रपति का। उन्होंने सहमति में सर हिलाया और बोले- बचपन में अगल (अगर) किसी चीज का डल (डर) बैठ जाए तो वो जीवन भल (भर) नहीं निकलता। नेपोलियन बहादुल योद्घा था, विश्वविजेता लेकिन बिल्ली से डलता (डरता) था। औल चुनाव जीतने के बाद लालबत्ती मिले ही इसकी कोई गेलनटी (गारंटी) नई।

मैंने कहा- भाईसाहब बुरा मत मानिएगा, अगर आपके यही लक्षण रहे तो आप और लालबत्ती के प्रेम का हश्र भी कहीं लैला-मजनू टाइप ना हो जाए, जो कभी मिल नहीं पाए। वे नाराज हुए बिना पूरी आस्था से बोले, यदि किसी चीज को पूरी शिद्दत से माँगो तो बलह्मांड (ब्रह्मांड) आपकी इच्छा पूली (पूरी) कलता (करता) है। अब उन्होंने एक नियुक्ति पत्र मुझे दिखाया जिसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा था की श्री लामचंद को भारत सरकार के डिजैस्टर मेनेंजमेंट डिपार्टमेंट की पाँच सदस्यीय समिति का सदस्य मनोनीत किया जाता है, और आपको राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त होगा। दिल्ली में सरकारी आवास, देशभर में लालबत्ती से लैस सरकारी वाहन, राष्ट्रीय ध्वज के साथ। एक लाल झंडे वाला सायरन, हूटर से लैस पायलेट वाहन-जो आगे चलेगा, एक फलो वाहन सायरन हूटर से लैस-जो पीटे चलेगा। चार-सोलह की पुलिस सिक्यरिटी। इस नियुक्ति पत्र को पढ़ाते हुए लामचंद भाईसाहब प्रसन्नता से काँप रहे थे, उनका गोरा चेहरा सुर्ख-लाल हो गया था। बोले आज गाडरवारा जा रहा हूँ। मैं बुरी तरह चौंका !! वे भी बुरी तरह चौंके! हम दोनों ही लगभग एक साथ बोल पड़े, अभी क्या बोला?
वे बदहवास हो पूछने लगे- अभी मैंने जो बोला वो तुमने सुना?

मैंने कहा- जी सुना, लेकिन आपने जो बोला, क्या मैंने सही सुना? आप उसे फिर से बोल सकते हैं? वे दीवार के अमिताभ बच्चन के ‘मैं आज भी देंके हुए पैसे नहीं उठता।’ वाले अन्दाज में बोले- मैं आज गाडरवारा जा रहा हूँ। ये चमत्कार था, वे गाडरवारा के एक नहीं दोनों ‘र’ को ‘र’ बोल रहे थे। इस बात का एहसास होते ही लामचंद खुशी के उन्माद में रामचंद्र, भारत, राष्ट्रपिता, राष्ट्रपति, रूपया, नेहरु जी, इंदिरा जी, रेलगाड़ी, रतलाम, राम-राम, गाडरवारा, गाडरवारा। बोलने लगे। लालबत्ती के नियुक्ति पत्र ने उनकी ‘र’ को ‘ल’ कहने की समस्या का जैसे निदान ही कर दिया था। वे चीखकर पूरी दुनिया को अपनी ‘र’ विजय की दास्तान सुनाना चाहते थे। ‘र’ के रस ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। बहुत गर्मजोशी से उन्होंने मुझे छाती से चिपका लिया और बेहद गौरव व गरिमा से जैसे कोई अपनी प्रियतमा के दिव्य गुणों का, उसके रूप का बखान करता है बोले- देखा, लालबत्ती में चिकित्सकीय गुण भी हैं, यह देवताओं के सोमरस से भी ज्यादा असरकारी औषधि है, ये व्यक्ति की जन्मजात समस्या का भी निदान करती है। इसे प्राप्त करते ही व्यक्ति के सारे दोष दूर हो जाते हैं, लालबत्ती के प्रकाश में व्यक्ति के अवगुण भी गुण दिखाई देते हैं। ये चमत्कार देख मैं स्वयं अचम्भित था !! मैंने हँसते हुए कहा रामचंद्र को लालबत्ती मिलने, और ‘र’ को ‘र’ बोल पाने की बहुत-बहुत बधाई, भाईसाहब मैं तीन दिन बाद गाडरवारा आ रहा हूँ, आपसे अवश्य मिलूँगा। वे प्रसन्नता के सातवें सुर पर खड़े होकर बोले- प्लीज करेक्ट योर सेल्फ। ये रामचंद्र की नहीं ‘लामचंद की लालबत्ती है’। लामचंद उर्फ रामचंद्र को तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी, आइए आपका स्वागत है। उन्हें आनंदमग्न, आह्लादित छोड़ मैं वहाँ से मुंबई के लिए निकल गया।

मुंबई में गाडरवारा जाने से पहले मैंने टीवी पर न्यूज देखी कि पंजाब और उत्तरप्रदेश की तर्ज पर सरकार ने लालबत्ती व्यवस्था को कानूनी रूप से बंद करने का फैसला ले लिया है। देश भर में कोई भी मंत्री या अधिकारी अब से लालबत्ती का इस्तेमाल नहीं कर सकेगा। लालबत्ती का अस्तित्व समाप्त किया जाता है। खबर सुनके मैं सन्न रह गया, मेरी आँखों के सामने लामचंद का चेहरा घूमने लगा-जिनके लिए लालबत्ती ‘तुम्हीं हो माता, पिता तुम्हीं हो। तुम्हीं हो बंधु, सखा तुम्हीं हो।’ जैसी थी। राजनीति के बहुत से उपासक हैं, और सब ही लालबत्ती पाना चाहते हैं। लेकिन वे लालबत्ती ना मिलने की शर्त पर सांसदी, विधायकी, या संगठन के विभिन्न पदों से ही इश्क कर बैठते हैं और एक समझौते के तहत उन्हीं से ब्याह रचा कर शांति से अपना अतृप्त जीवन बिता लेते हैं। किंतु लामचंद जैसा लालबत्ती का एकनिष्ठ,अच्युत प्रेमी, जो लालबत्ती के अलावा लालबत्ती परिवार की किसी और कन्या के साथ हर्गिज विवाह रचाने के लिए राजी नहीं है, मिलना बहुत दुर्लभ था। उनके लिए लालबत्ती को अयोग्य घोषित करना, उसे स्वयंवर से हटा देना, उसकी मान्यता को खघरिज करना बिलकुल भीष्म पितामह और अम्बा के जैसी स्थिति थी। मुझे लगा कि कहीं इतिहास स्वयं को दोहराने की तैयारी तो नहीं कर रहा ? क्योंकि भीष्म का राजी ना होना ही अम्बा की नाराजगी का कारण था, परिणाम स्वरूप शिखंडी का जन्म हुआ और फिर शिखंडी ही भीष्म की शरशैया का कारण बना। तभी मेरा फोन घनघना उठा, मैंने देखा की डिस्प्ले पर लामचंद कलिंग चमक रहा है। मैंने अपने को मानसिक रूप से तैयार कर फोन उठाया, हेलो कहते ही वहाँ से आवाज आई-छोटे, तुम्हारी जुबान काली है।

वे सर्द सुर में बोल रहे थे, तुमने मुझसे कहा था कि मेरा लालबत्ती प्रेम भी कहीं लैला मजनू के अंजाम पर ना पहुँच जाए, जो जीते जी एक दूसरे से मिल नहीं पाए थे। सही साबित हो गया। मैं कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं था सो चुपचाप उन्हें सुनता रहा, लामचंद बोले- खैर, ये जानते हुए भी कि इस युद्घ में मेरी हार निश्चित है, मैं महाभारत के कर्ण के जैसा ही दुर्घर्ष युद्घ करूँगा। क्योंकि कर्ण की और मेरी कुंडली मिलती है, हम दोनों ही सत्ता के द्वारा छले गए, हम दोनों की एक जैसी लालसा थी, कर्ण के लिए भी सत्ता- सम्पत्ति का नहीं, यश अर्जन का साधन थी। और मेरे लिए भी सत्ता यश अर्जन का हेतु है। उसके मार्ग की भी सबसे बड़ी बाधा ‘र’ अक्षर था। और मेरे मार्ग को भी ‘र’ ने ही अवरुद्घ कर रखा है। उसकी योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाला अर्जुन था, जिसके नाम में ‘र’ अक्षर उपस्थित है। तो मुझे भी अयोग्य साबित कर, वंचित करने वाला अपने नाम में ‘र’ अक्षर को धारण किए हुए है।

नर के अवतार कहे जाने वाले अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे, तो इस नर श्रेष्ठ के रथ को हाँकने वाले भी कोई कृष्ण ही हैं। नरावतार अर्जुन ‘लालसा’ को छोड़के मुक्त होने के सिद्घांत का पक्षधर था, तो ये नरश्रेष्ठ भी ‘लाल’ को छोड़ कर सिद्घ होने की बात करता है। कैसा अजीब संयोग है, कि महाभारत में भी नरावतार की सफलता के मूल में कृष्ण थे, और भारत में भी इस नरश्रेष्ठ की सफलता के मूल में कृष्ण ही हैं। मैंने तुम्हें इसलिए फोन किया ताकि तुम्हें बता दूँ कि तुम्हारा बोला हुआ सच हो जाता है, इसलिए सम्हल कर बोला करो। आजकल लोग सच्ची भविष्यवाणी को नहीं,अच्छी भविष्यवाणी को पसंद करते हैं। मैंने कहा, जी स्मरण रखूँगा। अब लामचंद भाईसाहब, चेतावनी प्लस सूचना देने वाले स्वर में बोले- छोटे, याचना नहीं अब रण होगा, जीवन जय या कि मरण होगा, ये कहके उन्होंने फोन काट दिया।

जब मैं अपने शहर पहुँचा तो ट्रेन से उतरते ही मुझे माहौल में गर्मी और मातम दिखाई दिया, रेलवे स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने देखा कि कघ्रीब पंद्रह बीस हजार लोग जमा थे, जो लामचंद भाईसाहब के नेतृत्व में दिल्ली की ओर कूच करने वाले थे। लामचंद एक ऊँचे चबूतरे पर खड़े होकर भयंकर क्रोध से भरे हुए भाषण दे रहे थे। यह लोकतंत्र की विशिष्टता पर प्राणघातक हमला है। लालबत्ती के अस्तित्व को समाप्त करना यानि अनुशासन को समाप्त करना है। लोकतंत्र की खूबी शेष वर्ग को विशेष बनाने में है, ना की विशेष को शेष बनाने में। जनप्रतिनिधियों की विशिष्टता को नष्ट करना जनतंत्र को नष्ट करना है, ये विशिष्टता का नहीं अशिष्टता का प्रमाण है। लोकतंत्र आम आदमी को खास बनाता है, खास को आम बना देना लोकतंत्र के विरुद्घ चलने जैसा है। देश व्यवस्था से चलता है, और व्यवस्था-बत्ती से बनती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे चौराहों पर लगी लाल,हरी,पीली बत्तियाँ हैं। जहाँ पर लालबत्ती नहीं होती और ट्रैफिक को बत्ती विहीन आदमी के जरिए कंट्रोल करवाया जाता है, वहाँ पर ट्रैफिक जाम हो जाता है।

एक किस्म की अराजकता फैल जाती है, लोग एक दूसरे पर चढ़े पड़ते हैं। हम बढ़ नहीं पाते, चारों तरफ हार्न का शोर-शराबा होता है, गाली-गलौज होता है। और इन्होंने, पूरे देश से बत्ती गुल कर दी, जिससे हम एक दूसरे पर चढ़ जाएँ ? अगर आप जनप्रतिनिधियों का वीआईपीपना खत्म करना चाहते हैं, तो लालबत्ती के आगे पीटे चलने वाली गाड़ियाँ बंद कीजिए, इससे लोग असुविधा से भी बचेंगे, पेट्रोल, डीजल बचेगा, समाज का पैसा जो टैक्स के रूप में वसूला जाता है, वो भी बचेगा। इसके लिए लालबत्ती को हटाने की क्या जरूरत? अभी अगर लालबत्ती की सिर्फ एक गाड़ी हो, तब भी लोग उसे वीआईपी वाहन जान के रास्ता दे देते हैं, लेकिन लालबत्ती के हटते ही, आप देख लेना जो अभी एक गाड़ी में चलता है वो दस गाड़ियाँ लेकर चलेगा और उनके आगे चलने वाली गाड़ियों में बैठे लोग फिरर्र-फिरर्र सीटियाँ मारेंगे ताकि उनके वीआईपी का वीआईपी पना दिख सके, पेट्रोल,डीजल, मैन पावर, टैक्स का पैसा सबकी दस गुना बर्बादी होगी। आप बेचारी लालबत्ती को तो हटा देंगे, लेकिन लोगों के दिमाग से वीआईपी पना कैसे निकालोगे?

दोषी बाहर दिखने वाली लालबत्ती नहीं, अंदर बैठा हुआ वीआईपी पन है। अरे साहाऽऽब, वीआईपी कल्चर खत्म करना है, तो मंत्रियों, संतरियों के एक-एक, दो-दो एकड़ में फैले सरकारी आवास छोटे करो, वो जनता का आदमी है, तो उसे जनता के बीच दो तीन कमरों के मकान में रखो। आप ये सब ना करके लालबत्ती को दोषी ठहरा रहे हैं। लामचंद खिजयाए हुए से बोले, बड़ी चिंता है तो वीआईपी को मिलने वाली सिक्यरिटी हटाओ, चुने गए प्रतिनिधियों को अपने ही लोगों के बीच जाने के लिए फौज फटाके की क्या जरूरत ? लालबत्ती नहीं, ये फौज फटाका, ढोल नगाड़े वीआईपी कल्चर है। लोगों की भावनाओं का मजाकघ् बना के रख दिया-ये बंद, वो बंद, अमका बंद, ढिमका बंद। ज़ब देखो बंद, बंद, बंद, अरे भैया सब बंद ही करते रहोगे या कुछ चालू भी करोगे? साथियों, लोकतंत्र राजा है और लालबत्ती इसका ताज, हम किसी भी कीमत पर अपने राजा के ताज की रक्षा करेंगे। सफेद सरकारी गाड़ी की छत पर लपलपाती हुई लालबत्ती उसके सौभाग्य की, उसके सुहाग की निशानी थी, हम हर कीमत पर उसके सुहाग की रक्षा करेंगे। वे अपने साथ हुए विश्वासघात से बुरी तरह आहत थे, उनके मुँह से झाग निकलने लगा। अपनी बात को न्याय और नीतिसंगत सिद्घ करने के लिए लामचंद ने अब अपने भाषण को एक नया मोड़ दिया।
ये संसार सभी ग्रहों से मिलकर चलता है लेकिन इनमें सूर्य का सबसे विशेष स्थान है, सूरज ना निकले तो सबरी हेकड़ी धरी रह जाएगी। आप लोग ध्यान देना, सूरज जब घर से निकलता है तो लाल होता है, ये लाल क्या है? ये सूरज को राजा इन्द्र से मिली हुई लालबत्ती की चमक है। उसी लालबत्ती के कारण आपको सूरज को प्रणाम करना पड़ता है, उसका स्वागत करना पड़ता है, उसे जल चढ़ाना पड़ता है।

सूरज को देखते ही आपको काम पर जाना पड़ता है। ये सब क्यों? क्योंकि वो लालबत्ती वाला है। ऐसे तो चंद्रमा भी रोज निकलता है, सबको शीतलता देता है, लेकिन हम घंट ध्यान नहीं देते उसपे, कब निकला-कब चला गया, पता भी नहीं चलता। एकाध दिन करवाचौथ, या शरद पूर्णिमा को छोड़ के हम उसको महत्व नहीं देते, क्यों? क्योंकि उसके पास लालबत्ती नहीं है। लालबत्ती समाप्त करने का ये फैसला हम चमकते हुए सूरजों को करवाचौथ का चंदा मामा बनाने का प्रयास है, कि साल में एकाध बार तुम्हारी कद्र हो जाए बस बहुत है। सूरज निकलते हुए भी लाल होता है और जब ढलता है तब भी लाल ही होता है, ऐसा नहीं कि वो अब ढल रहा है तो ग्रहों के देवता उसकी लाली छुड़ा लें। क्योंकि वो जानते हैं कि लाली वाले की लाली छुड़ाना अलोकतांत्रिक व्यवस्था है। लाल में पावर है, लाल में विश्वास है, लाल में जीवन है। भाइयो! बहने को तो हमारी रगों में पानी भी बहता है, लेकिन बात सिर्फ रगों में दौड़ने वाले खून की ही होती है। क्यों? क्योंकि खून का रंग लाल होता है, कोई माई का लाल- लाल खून की अनदेखी नहीं कर सकता और आऽऽप, राजधानी में बैठ के हमसे हमारा लाल टुड़ा के, हमें पावर हीन कर रहे हैं, हमारे जीवन से लाल रंग खत्म कर देना चाहते हैं, ताकि हम पीले पड़ जाएँ और लोग हमें रोगी समझ के हमारी तरफ देखना बंद कर दें। अरे आपको नई लगानी लालबत्ती साहाऽऽब तो आप मत लगाइए, लेकिन ये क्या बात हुई? कि ना हम लगाएँगे और ना लगाने देंगे। या सिर्फ हम ही लगाएँगे और किसी को नहीं लगाने देंगे। अरे, जैसी स्कीम गैस सब्सिडी में लाए हैं वैसी ले आते, इच्छा हो तो छोड़ दो भाई वाली।

भाईसाहब गला फाड़ के चीख रहे थे, क्रोध और विषाद के आवेग से उनके कंठ का ही नहीं शरीर का संतुलन भी गड़बड़ा रहा था, वे क्रोध और करुणा के मिश्रित स्वर में विलाप करते हुए से बोले-हम दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देंगे, भले ही हमारी जान चली जाए लेकिन इस देश से लालबत्ती को हम नहीं जाने देंगे, लालबत्ती किसी व्यक्ति की नहीं जनतंत्र की शान है, लालबत्ती हमारा जन्मसिद्घ अधिकार है और हम इसेऽऽ़.़।

वे इतना ही कह पाए थे कि भड़ाक से गिर पड़े। चारों तरफ अफरा-तफरी मच गई। मैं भीड़ को चीरते हुए उन तक पहुँचा वे संज्ञा शून्य हो गए थे कि तभी लालबत्ती वाली ऐम्ब्युलन्स सायरन बजाती हुई आयी, सायरन सुनके अचानक भाईसाहब की पुतलियों में हरकत हुई, उन्होंने बहुत हसरत से लालबत्ती को देखा वे लालबत्ती को अपने आगोश में लेने के लिए उठ खड़े होना चाहते थे कि तभी उन्हें जोर से हिचकी आयी और वे फिर से बेहोश हो गए। चारों तरफ हाहाकार मच गया। लोगों ने बेहद फुर्ती से भाईसाहब को ससम्मान लालबत्ती वाली ऐम्ब्युलन्स में रखा और ऐम्ब्युलन्स सायरन बजाती हुई भाईसाहब को अपने साथ लेकर चली गई।

मैं अस्पताल पहुँचा तो डक्टर ने बताया कि सिचुएशन आउट अफ डेंजर है, लेकिन उन्हें गहरा सदमा लगा है। वे किसी को पहचान नहीं रहे हैं। डक्टर से अनुमति लेकर मैं उनके कमरे में पहुँचा, भाईसाहब एकटक कमरे की सीलिंग को घूर रहे थे, मैंने उनका ध्यान अपनी तरफ खींचने के लिए धीरे से ,भाईसाहब प्रणाम कहा। मैंने महसूस किया कि उनके कान तो मेरी आवाज पहचान रहे हैं, किंतु उनकी आँखें मुझे नहीं पहचानना चाहतीं। इससे मुझे बल मिला और मैं थोड़ा जोर से, जैसे सब कुछ सामान्य है वाले भाव से-जिससे वे ग्लानि मुक्त हो के वास्तविकता के प्रति सहज हो सकें, बोला- भाईसाहब को प्रणाम करता हूँ, अब उनकी आँखें कमरे के छत से हटकर मेरी छाती पर टिक गईं, आँखें वे अभी भी नहीं मिला रहे थे। मैंने और अधिक उत्साह से बोलना शुरू किया, भाईसाहब मैं या मेरे जैसे इस क्षेत्र के पच्चीस-तीस हजार लोग लामचंद से प्रेम करते हैं, उनकी लालबत्ती से नहीं। मेरी बात सुनके उनके चेहरे पर एक आभारी किन्तु विवश मुस्कुराहट आई, वे बहुत धीमे स्वर में बोले, प्लेलना (प्रेरणा) की समाप्ति ही प्लतालना (प्रतारणा) है।

मैं आश्चर्यचकित था लामचंद पुन: ‘र’ को ‘ल’ बोलने लगे थे। इस अप्रत्याशित परिवर्तन को देख के मैं दंग रह गया, वे अब बूढ़े भी दिखने लगे थे। बोले- इंसान की इच्छा पूलती (पूर्ति) होना ही स्वल्ग (स्वर्ग) है, औल उसकी इच्छा का पूला (पूरा) ना होना नलक (नरक) स्वल्ग-नल्क मलने (मरने) के बाद नहीं जीते जी ही मिलता है। मैंने कहा, नहीं भाईसाहब स्वर्ग-नर्क परिस्थिति पर नहीं मन:स्थिति पर निर्भर करते हैं। हम अपने जीवन में संकल्पों को तो बहुत महत्व देते हैं लेकिन विकल्पों पर बिलकुल ध्यान नहीं देते। सफलता पूर्वक जीवन जीने के लिए जितना महत्व संकल्प का होता है, शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए उतना ही महत्व विकल्प का भी होता है। विकल्प जहाँ जीवन में शांति की सृष्टि करते हैं, वहीं संकल्प कभी-कभी अशांति का कारक होता है। क्योंकि…
‘मनचाही में खलल है, प्रभु चाही तत्काल।
बलि चाही आकाश को, और भेज दियो पाताल।’ अब भाईसाहब और मैं दोनों ही आनंद से मुस्कुरा रहे थे। ल्ल

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