दस्तक-विशेष

विपक्ष कमजोर है पर आवाज बुलन्द है

खांटी समाजवादी, सादगी की प्रतिमूर्ति और स्वभाव से फक्कड़, यह पहचान राम गोविन्द चौधरी की। पूरा जीवन समाज और वंचितों को समर्पित कर देने वाले श्री चौधरी अब उप्र की 17वीं विधानसभा में एक नयी भूमिका में नजर आयेंगे। अब तक समाजवादी सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री होने के नाते गाहे-बगाहे बचाव करने वाले राम गोविन्द चौधरी अब सूबे की नयी सरकार पर हमला बोलने के लिए और उसे घेरने के लिए बतौर नेता प्रतिपक्ष कमर कस चुके हैं। उनके लिए विपक्ष में रहकर राजनीति करना कोई नया काम नहीं है। पहले भी उन्होंने अधिकांशत: विपक्ष में रहते हुए ही जनता से सीधे जुड़े मुद्दों पर न सिर्फ सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया बल्कि सरकार को उस दिशा में काम करने को मजबूर भी किया। उन्हें नयी भूमिका मिलने के बाद उनसे बातचीत की  ‘दस्तक टाइम्स’ के सम्पादक राम कुमार सिंह ने।

सत्ता पक्ष को देखते हुए विपक्ष के सदस्यों की संख्या कम है। ऐसे में इस बार विपक्ष तो बहुत कमजोर दिखेगा?
हां, यह सही है कि सत्ता पक्ष के पास भारी बहुमत में है और विपक्ष के सदस्यों की संख्या कम है। लेकिन यह भी जान लीजिए विपक्ष संख्या बल के हिसाब से ही सिर्फ कमजोर है पर उसकी आवाज कमजोर नहीं है। हम बुलन्द आवाज में जनहित के मुद्दों को पुरजोर तरीके से उठायेंगे।
फिर भी आपकी रणनीति क्या रहेगी?
हम सरकार की सकारात्मक नीतियों पर उसका सहयोग करेंगे और जनविरोधी नीतियों और कार्यों का विरोध करेंगे। अभी तो सरकार ने कुछ काम ही नहीं किए हैं। भविष्य में जब मुद्दे सामने आयेंगे तब देखेंगे। पहले उसका काम देख लें तब टिप्पणी की जाये तो उचित होगा। विधानसभा के नियमों में बहुत से नियम ऐसे हैं जिनके जरिए सरकार को घेरा जा सकता है और हम सरकार को घेरेंगे भी।
विपक्ष में रहते हुए सरकार को घेरने का आपको अनुभव तो है ही?
अरे, अधिकांशत: विपक्ष में ही रहे हैं। 1977 में सातवीं विधानसभा के लिए पहली बार चुना गया था। उसके बार 1980, 1985, 1989 में चुना गया। 1990 में पहली बार मंत्री बना। उसके बाद 1991, 2002, 2012 और अब 2017 में फिर चुनकर आया हूं। इस दौरान अधिकांश समय तो विपक्ष में ही रहा। वास्तव में पूछिए तो राजनीति के लिए विपक्ष ही ठीक है।
अपना राजनीतिक गुरु किसको मानते हैं?
महान समाजवादी नेता जो विश्वभर में जाने जाते थे चन्द्रशेखर जी, वह मेरे गुरु थे और मैं उनका चेला। उनकी ही वजह से राजनीति में आया। नहीं तो गांव में रहता या कहीं नौकरी कर रहा होता। उनकी ही प्रेरणा से पहले छात्र राजनीति में कूदा और महासचिव बना।
चन्द्रशेखर जी और आज की पीढ़ी के नेताओं में क्या अंतर देखते हैं?
देखिए, जो चन्द्रशेखर जी थे वैसा तो कोई होगा नहीं। न तो आज के राजनेता उनके जैसे हैं और न ही कल को कोई उन जैसा होगा। उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर देखना नहीं सीखा। वैसे अब राजनीति रह ही कहां गयी है। राजनीति का तो लोप हो गया। अब बात सिर्फ इतनी रह गयी है कि कैसे सत्ता हासिल की जाये। अब सिर्फ चुनाव में जीत ही सबसे बड़ी कसौटी है। इसके लिए किसी को भी टिकट दे दिया जाता है चाहे वह व्यक्ति कैसा भी हो। बस जीत की गारण्टी ली जाती है। क्योंकि जो विपक्ष में है वह सत्ता में आना चाहता है और जो सत्ता में है वह हर हाल में सत्ता में ही बने रहना चाहता है।
तो क्या माना जाये कि राजनीति की गरिमा गिर गयी है?
बिल्कुल गरिमा गिर गयी है। 1977 के चुनाव में एक भी पैसा नहीं लगा था हमारा। लोग वोट भी देते थे और चंदा भी देते थे। हम तो सिर्फ झोली फैलाकर खड़े हो जाते थे। आज तक कभी किसी पूंजीपति या उद्योग पति से मदद नहीं ली। वास्तव में तो मैं किसी को जानता भी नहीं हूं।
अभी हाल में हुए चुनावों को आप कैसे देखते हैं?
ऐसा चुनाव तो हम कभी देखे ही नहीं। इस चुनाव को मैं अब तक समझ नहीं पा रहा हूं। यहां तक कि बड़े-बड़े लोग और यहां तक कि मीडिया भी यही कह रहा था कि त्रिशंकु विधानसभा होगी। लेकिन परिणाम कुछ और निकला। मेरी ही विधानसभा में दो मतदान केन्द्र ऐसे हैं जहां मुझे अच्छे वोट मिलते रहे हैं लेकिन इस बार जीरो वोट मिला और लोग आज भी यही कह रहे हैं कि उन्होंने हमें वोट दिया है। अब बताइये इसे क्या कहें।
(साथ में जितेन्द्र शुक्ला व राघवेन्द्र सिंह)

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