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कोच अौर कप्तान की लक्ष्मण-रेखा!

-कुमार प्रशांत, गांधीवादी विचारक

वैसे तो खेल अौर राजनीति में कोई सीधा रिश्ता होता नहीं है या कहूं कि होना नहीं चाहिए लेकिन हुअा ऐसा कि जिस दिन सरकार ने राष्ट्रपति-पद का अपना उम्मीदवार घोषित किया, उसी दिन अनिल कुंबले ने चैंपियंस ट्रॉफी में पराजित हुई भारतीय क्रिकेट टीम के मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे दिया. पाकिस्तान के हाथों मिली शर्मनाक पराजय के ठीक दो दिन बाद अौर वेस्टइंडीज के दौरे पर टीम के जाने से सिर्फ चार दिन पहले दिए इस इस्तीफे ने भारतीय क्रिकेट की जैसी किरकिरी की है वैसी तो श्रीनिवासन एंड कंपनी अौर फिर अनुराग ठाकुर एंड कंपनी ने भी नहीं की थी. जैसे राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में सरकार ने रामनाथ कोविंद को चुन कर कई राजनीतिक समीकरणों को एक साथ बनाने या बिगाड़ने का काम किया है, उसी प्रकार अनिल कुंबले ने मुख्य कोच के पद से इस्तीफा दे कर कई तरह के संकेत दिए हैं अौर कितने ही सवाल खड़े कर दिए हैं.
इस इस्तीफे का पहला संकेत तो यही है कि भारतीय क्रिकेट की सलाहकार समिति को, जिसमें सर्वश्री सचिन तेँडुलकर, सौरभ गांगुली अौर वी.वी.एस. लक्ष्मण अाते हैं, अपनी जिम्मेवारी से तुरंत हट जाना चाहिए. भारतीय क्रिकेट के शलाकापुरुषों की जब भी गिनती की जाएगी, उसमें इन तीनों का शुमार होगा अौर इन तीनों को भारतीय क्रिकेट ने अौर क्रिकेटप्रेमियों ने जितना नाम अौर नामा दिया है, उसका दूसरा उदाहरण खोजना मुश्किल है. खेल-जीवन की समाप्ति के तुरंत बाद भारतीय क्रिकेट की बागडोर जिस तरह इन तीनों को सौंप दी गई, विश्व क्रिकेट में ऐसा भी शायद ही हुअा होगा. इसलिए इन तीनों पर यह जिम्मेवारी थी कि वे व्यक्तियों का चयन ही नहीं करते, उन स्वस्थ परंपराअों का चयन भी करते व संरक्षण भी करते जिनसे भारतीय क्रिकेट लगातार वंचित होता रहा है. इन्हें ही देखना था कि अाईपीएल जैसी प्रतियोगिताअों ने भारतीय क्रिकेट का जितना भला किया है, उतना ही बुरा भी किया कि इसे मूल्यविहीन बाजार में ला खड़ा किया है. ऐसी स्पर्धाअों ने खिलाड़ियों को वैसे मौके दिए हैं जो बिरलों को मिलते हैं, वैसा धन दिया है जैसा वे सपनों में भी नहीं सोच सकते थे; अौर इन सबसे पैदा होने वाला वह तेवर दिया है जो नाक पर मख्खी नहीं बैठने देता है. क्रिकेट की परंपराएं नहीं दीं, संयम व सादगी की जरूरत नहीं बताई. भारत की राष्ट्रीय टीम में इनकी कीमत भी उतनी ही है जितनी किसी की बैटिंग या बोलिंग की होती है. सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी अपने खिलाड़ियों को यह बात समझाने में विफल ही नहीं रही बल्कि उसने इनके सामने हथियार डाल दिए. इस हारी हुई तिकड़ी को अब मैदान से हट जाना चाहिए.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय क्रिकेट की गाड़ी को पटरी पर लाने का काम जिस विनोद राय समिति को सौंपा गया है, अब उसे भी जवाब देना चाहिए कि बीसीसीअाई के मैदान में यह सब हो क्या रहा है ? रामचंद्र गुहा ने इस समिति से इस्तीफा दे दिया लेकिन न न्यायालय ने, न विनोद राय ने देश को बताने की जरूरत समझी कि यह क्यों हुअा. क्रिकेट तो एक संपूर्ण खेल है जिसकी अपनी परंपराएं हैं, अपनी नैतिकता है. एक वक्त राजाअों-नवाबों-धनपतियों ने इसमें घुस कर इसे बहुत पतित किया, फिर राजनीतिज्ञों ने अपने यहां की गंदगी लाकर इस मैदान में बिखेरी अौर फिर बाजार ने इसे माल में बदल दिया. बाजार के पास बेशुमार धन होता है अौर हमने उसके ताल पर उन सबको नाचते देखा कि जिनके खेल पर हम नाचते थे. इनका अंत ऐसे हुअा कि न्यायालय ने सख्ती से बागडोर संभाल ली अौर विनोद राय एंड कंपनी को सौंप दी. इस समिति को भी देश को यह बताना चाहिए कि भारतीय क्रिकेट टीम ने भीतर यह क्या हुअा अौर कैसे कोई इन नतीजे पर पहुंचा कि कुंबले का सर कलम करना चाहिए अौर विराट का सलामत रखना चाहिए ? अगर यह समिति खामोश रहती है तो सर्वोच्च न्यायालय की अक्षमता उजागर होती है.
सवाल यह नहीं है कि विराट या कुंबले में से किसकी चलनी चाहिए; सवाल यह है कि कोच अौर कप्तान की जो लक्ष्मण-रेखा बनी हुई है उसे किसने पार किया ? जिसने यह किया हो उसे कदम वापस खींचने होंगे. कुंबले भारतीय क्रिकेट का जो श्रेष्ठ है उसके मजबूत प्रतीक हैं. खिलाड़ी के रूप में भी, प्रशासक के रूप में भी अौर खालिस इंसान के रूप में भी कुंबले जैसी ऊंचाई कम ही छू पाते हैं. विराट कोहली के बारे में ऐसा कुछ भी हम नहीं कह सकते. खिलाड़ी के रूप में वे एक असाधारण प्रतिभा हैं जिसे अभी खुद को सिद्ध करना है. अब तक उनके खेल में वह तराश नहीं है जो सचिन के पास थी; वह कला नहीं है जो लक्ष्मण के पास थी; वह धीरज नहीं है जो द्रविड के पास था अौर कप्तानी की वह साहस भरी बारीकी नहीं है जो सौरभ के पास थी. संभावनाएं उनमें सबकी हैं. उसे सिद्धि तक पहुंचाना उनकी अपनी साधना का विषय तो है ही, भारतीय क्रिकेट के अनुशासन का भी विषय है. इसलिए कुंबले इस्तीफा दे दें क्योंकि विराट को उनसे दिक्कत थी ऐसा फैसला किस स्तर पर हुअा ? ‘हमें तो पता नहीं’- ऐसा कह कर सचिन-सौरभ-लक्ष्मण अपनी गर्दन नहीं बचा सकते अौर न विनोद राय अौर न सर्वोच्च न्यायालय ! ऐसा नहीं है कि कुंबले को हटाया नहीं जा सकता है. बीसीसीअाई उनका अनुबंध नया न करने का पूरा अधिकार रखती है. लेकिन सलाहकार समिति अनुबंध बढ़ाने की बात करती है अौर कप्तान के दवाब में उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है, यह कैसे स्वीकार किया जाए ?
विभाजन एकदम साफ  है – मैदान में कप्तान ही पहला अौर अंतिम अादमी है जिसकी चलनी चाहिए; मैदान के बाहर कप्तान व कोच की जुगलबंदी है जिससे टीम को संयत व सक्रिय किया जाना है; अौर अंतत: कोच है कि जिसके प्रति कप्तान भी जवाबदेह है. अाज की स्थिति में हम देखें तो हमारे पास विराट का विकल्प है, कुंबले का नहीं है. अजिंक्य रहाणे ने धर्मशाला में विराट की जगह अत्यंत कुशल व संयत कप्तानी की थी अौर जीत कर दिखाया था. रोहित शर्मा भी जगह भर ही सकते हैं. अौर कुछ न हुअा तो अभी धोनी हमारे पास ही हैं. मतलब तत्काल कोई संकट खड़ा हो नहीं सकता है. अत: कुंबले अौर विराट के बीच यदि कोई मामला था तो विराट से बड़ी अासानी से कहा जाना चाहिए था कि साथ काम करने के रास्ते अापको खोजने हैं, क्योंकि कुंबले तो अभी हटाए जाने वाले नहीं हैं.
चैंपियंस ट्रॉफी की हार की बात करें. जब पिच अनजाना था अौर उसमें गेंदबाजों के लिए कुछ भी खास नहीं था फिर विराट ने बैटिंग क्यों नहीं ली ? फिर क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि फाइनल में पाकिस्तान जीता तो अपनी यह हार विराट के कारण हुई ? टॉस जीत कर फील्डिंग चुनना, पाकिस्तान की घबराई बल्लेबाजी को स्थिर होने का समय देना, अपने प्रभावी हो रहे तेज गेंदबाजों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल कर, उन्हें भोथरा बना देना, स्पिनरों का बकवास इस्तेमाल करना अौर मैच को हाथ से फिसलते देखते रहना – यह सब उस रोज हुअा. हमारा कप्तान एकदम सन्नाटे में था. उसी सपाट पिच पर पाकिस्तानी स्पिनरों ने हमें परेशान किया अौर तेज गेंदबाजों ने तो हमें उखाड़ ही फेंका. उस एक मैच में विराट लगातार तीन बार अाउट हुए ! वैसे कांटे के मुकाबले में, वैसी बुरी हालत में जिस पर सारा दारोमदार हो वैसा जिम्मेदार बल्लेबाज पहले जीवन-दान के बाद एकदम सतर्क हो जाता है, रक्षात्मक रवैया अपना लेता है, क्योंकि उसे मालूम है कि उसका जाना टीम को बिखेर देगा. लेकिन विराट जैसे चुनौती दे रहे थे कि मेरा कैच कौन ले सकता है ! मुहल्ला स्तर से भी बुरा प्रदर्शन था विराट का उस दिन ! कोई भी कोच हो, ऐसे प्रदर्शन के बाद यदि कप्तान की खिंचाई नहीं करता है, तो वह कोच बनने लायक नहीं है. हमारे यहां कप्तान होना या कप्तान बदलना ऐसा बड़ा मामला क्यों बना दिया जाता है ! प्रदर्शन के अाधार पर या खेल की जरूरत के अाधार पर कप्तान कभी भी बदला जा सकता है.  
सचिन-सौरभ-लक्ष्मण की तिकड़ी को यह कहना ही चाहिए था कि विराट-कुंबले के साथ खेलने का मन भी बनाए अौर वातावरण भी या फिर हमें नया कप्तान चुनना होगा. विराट की प्रतिभा अौर उनका तेवर दोनों ही टीम अौर खिलाड़ियों के लिए अपशकुन बन सकते हैं यदि उनके बीच कोई ‘कुंबले’ नहीं रहा.

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