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संसार भगवान की छाया, भगवान मिल जाए तो छाया के लिए प्रयास करने की क्या जरूरत

अध्यात्म : भगवान् को प्राप्त करने का अभियान भगवद्जन के लिए जितना सरल और सरस है विषयी व्यक्ति के लिए उतना ही कठिन और नीरस है। भगवान् कोई आकार नहीं वरन एक सुखद अनुभूति है। यह अनुभूति अपने अन्दर सच्चिदानन्द रूप में स्थित भगवद्सत्ता के स्वास्थ्य शक्ति आनन्द ज्ञान एवं प्रेम के गुणों के प्राकट्य के रूप में होती है। इन गुणों के प्रगट होते ही रोग थकावट चिन्ता भय एवं वियोग के कष्टों का सहज लोप हो जाता है। ऐश्वर्य परमात्मा के ईश्वर पक्ष की विभूति है। अत: भगवद्सत्ता या कहें परमात्मसत्ता के प्रगट होने पर भगवद्जन का लौकिक अभाव भी समाप्त होकर उसे यश ऐश्वर्य की भी यथा आवश्यक सहज पूर्ति हो जाती है। भगवद्जन जब तक संसार में रहता है, रोग शोक के अप्राकृतिक कष्टों से सर्वथा मुक्त देवदुर्लभ सुखों का भोग करता है और फिर शरीर त्यागने के बाद दुबारा माँ के गर्भ में नहीं जाता ज्ञानी मोक्ष पाता है और भक्त को भगवान् के दिव्य धाम में प्रवेश मिलता है। मानव जीवन का यही प्रयोजन है। मनुष्य की उपर्युक्त परम कल्याणकारी अनुभूति का एकमात्र साधन तप सेवा सुमिरन है। दूसरे शब्दों और दूसरी भाषाओं में इसे ही तप दान यज्ञ रोजा-़जकात  सीमरन अथवा फास्टिंग-चैरिटी-प्रेयर नाम दिया गया हैं।


प्रकृति का सारा क्रिया कलाप सुव्यवस्थित और स्वयं अनुशासित है। यह क्रियाकलाप आदान  प्रदान’ तथा ‘क्रिया-प्रतिक्रिया’ के दो अकाट्य सिद्धान्तों के अनुसार चलता है। संसार के सभी जीव एक परमात्मा के अंश आत्मा रूप में ही पृथ्वी पर आते हैं। यद्यपि अन्दर से सभी एक हैं, लेकिन ऊपरी दिखावे में भिन्न-भिन्न रूपों से प्रकट होने के कारण वे भिन्न-भिन्न लगते हैं। मनुष्य के जन्म लेते ही माया उसे अपने मोहक जाल में फंसा लेती है। माया के दो महाघातक अस्त्र ‘मैं’ (अहंकार) और ‘मेरा’ (आसक्ति) हैं। विडम्बना यह है कि माया के अंधकार में मूढ़ बनकर मनुष्य इन अस्त्रों का प्रयोग अपने ऊपर स्वयं करता है। इस त्रासदी से मुक्त हो सकने के लिए भगवान् ने मनुष्य को विकसित दिल व दिमाग के दो केन्द्र प्रदान करने की कृपा की है। पर मोहान्ध मनुष्य भगवान् की इस महान कृपा की अनदेखी कर भगवान् द्वारा दी गई बुद्धि से ही भगवान् के विषय में नाना तर्क-कुतर्क करता है और हृदय में भगवान् के स्थान पर ‘मैं-मेरा’ की सांसारिकता को ही प्रतिष्ठित किए रहता है। इस प्रकार वह अपने को भगवान् से अधिक बुद्धिमान मानता है और उसकी सारी चेष्टाएँ ‘मैं-मेरा’ के अन्धकार से मुक्ति के लिए न होकर उल्टे इनकी पुष्टि के लिए ही होती है। सद्गुरु योगीजी कहा करते थे—
‘‘इन्सान की मदमग़्जी अन्दा़ज से बाहर है।
कम्बख़्त खुदा होकर बंदा ऩजर आता है।।’’
केवल भगवान् ही प्रकाश है, शेष सब अंधकार है। भगवान् को छोड़कर अंधकार में भागता हुआ व्यक्ति गिरता-पड़ता चोट पर चोट खाया करता और एक-दूसरे से टकराता रहता है। मोटे तौर पर विषयी जगत् के अंध-व्यवहार का वर्गीकरण हम निम्नवत् समझ सकते हैं। आधुनिक सभ्यता के रंग में पूरी तरह से रंगे हुए विषयी लोग आत्मा, परमात्मा, भगवान्, अध्यात्म, सत्संग आदि शब्दों को रूढ़वादिता का प्रतीक मानकर उनसे चिढ़ते हैं। शरीर की विलासितापूर्ति के हर साधन जुटाना और धन संग्रह करना ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है और इसकी पूर्ति के लिए जघन्य से जघन्य पाप करने में भी इन्हें संकोच नहीं होता। थोड़ा-बहुत खाँसी-जुकाम हो जाने पर भी ये लोग डॉक्टरों की शरण में भागते हैं: लेकिन सत्संग करना जहाँ दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकार की व्याधियों से मुक्ति का आश्वासन मिलता है, हेठी समझते हैं, इसलिए उसके प्रति सोचते भी नहीं। दूसरा वर्ग तथाकथित धार्मिकों का है। ये लोग भ्रम पाले रहते हैं कि हम भगवान् को मानते हैं। मोहान्धकार से ग्रस्त चेतना के कारण इनकी चेष्टाएँ दिशाहीन और संकीर्ण होती हैं। बिना कुछ पुरुषार्थ किए सन्त-महात्माओं तथा मन्दिर की मूर्तियों से केवल आशीर्वाद द्वारा ही ये नैतिक और अनैतिक सभी प्रकार के अपने लौकिक स्वार्थों की पूत्र्ति चाहते हैं। गहराई से देखें तो ये लोग अपने साथ ही कैसा क्रूर म़जाक करते हैं। संत-महात्माओं के प्रकाश से भी अंधकार की याचना करते हैं। यथार्थ में भगवान् के प्रति इनकी मान्यता इतनी संकीर्ण और संकुचित होती है कि वह (भगवान्) इनकी सांसारिकता के अन्धकार की रक्षा करे। चूँकि प्रकृति के आदान-प्रदान व क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धान्तों की अवहेलना कर ये लोग मुफ्त ही में सब कुछ पाना चाहते हैं, अत: प्रतिक्रिया में प्रकृति उन्हें ढोंगी साधुओं व तान्त्रिकों द्वारा ‘गाया करती हैं।

धार्मिक व आध्यात्मिक जगत् में व्याप्त भ्रष्टाचार इसी स्वार्थ एवं ‘गी की क्रिया-प्रतिक्रिया का खेल हैं।
कुछ भावुक लोग तप-सेवा-सुमिरन के सत्य-सिद्धान्तों से चमत्कृत होकर उनकी ओर आकर्षित होते हैं। लेकिन चेतना में जन्म-जन्मान्तर से जमी हुई सांसारिकता के मोहान्धकार से लोग अधिकांशत: अपने को मुक्त नहीं कर पाते। ये तप अपनाते हैं शरीर को, नीरोग कर बलवान बनाने के लिए, आमदनी का दसवाँ भाग भी भगवान् की सेवा में देते हैं, लेकिन धनवान होने की कामना से, ध्यान में भगवान् से सीधा संपर्क जोड़ने के लिए भी बैठते हैं, लेकिन अपने सांसारिक जीवन की उन्नति-भर की लालसा से। क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धान्त के अनुसार तप से शरीर तो नीरोग और बलवान होगा ही, दसमांश सेवा से धन भी कई गुना होकर वापस आएगा ही, लेकिन इनकी माँग चूँकि ‘भगवान्’ नहीं है, अत: भगवान् नहीं मिलेगा और भगवान् के अभाव में शारीरिक बल तथा लौकिक धन-सम्पत्ति आसुरी तत्त्वों से दूषित होकर शीघ्र नष्ट हो जाएँगे। प्रतापभानु ने बहुत तप और दान की पुण्य क्रियाएँ की थीं। लेकिन उसकी चेतना में इन्हीं क्रियाओं की प्रधानता थी, भगवान् की नहीं। फिर अगले जन्म में वह महाबलशाली रावण हुआ, सोने की लंका का स्वामी भी बना, लेकिन सब कुछ नष्ट हो गया।
यह अत्यन्त संवेदनशील और सूक्ष्म विषय है। तप-सेवा-सुमिरन के प्रकाशवान सिद्धान्त भी यदि हम सांसारिकता का अन्धकार पाने और पुष्ट करने के लिए अपनाएँगे तो यह हमारी अन्धी दौड़ ही होगी। और यदि हमारा लक्ष्य भगवद्प्राप्ति होगा तो निस्सन्देह जीवन के भीतरी और बाहरी दोनों पक्ष प्रकाशित हो जाएँगे, भीतरी पक्ष स्वास्थ्य, शक्ति, आनन्द, ज्ञान एवं प्रेम की अनुभूति तथा बाहरी पक्ष लौकिक यश वैभव की प्राप्ति के रूप में।
अन्त में आत्मस्वरूप, सच्चिदानन्दस्वरूप या परमात्मा में स्थिति तथा सच्चिदानन्द गुणों की अनुभूति की परिभाषा का संक्षेप में स्मरण कर लें। हानि-लाभ, सुख-दुःख, निन्दा-स्तुति, यश-अपयश आदि सभी परस्पर विरोधी परिस्थितियों में अविचलित भाव से समत्व में स्थित रहना ही स्वरूप में स्थित होना है। स्वरूप में स्थित हो जाने पर व्यक्ति को सर्वत्र एक परमात्मा की सत्ता की अनुभूति होती है। इसी को परमात्मा की प्राप्ति कहते हैं। फिर ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर सच्चिदानन्द के सत्-चेतन-आनन्द गुणों का सहज प्राकट्य होता है, जो टिकाऊ होता है। संसार भगवान् की छाया है। भगवान् मिल जाने पर संसारिक यश-वैभव स्वत: आने लगता है।

ए.के. शुक्ल (लेखक सत्यमार्गी आध्यात्मिक मार्गदर्शक हैं)

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