अद्धयात्मदस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

सब जीना चाहते हैं, लेकिन मृत्यु निश्चित है

हृदयनारायण दीक्षित : जीने की इच्छा में मृत्यु का भय अंतनिर्हित है। जितनी गहरी जीवेष्णा उतना ही गहरा असुरक्षा का भाव। भय का भाव सभी जीवों में होता है। पक्षी थोड़ी सी आहट पर उड़ जाते हैं। रेंगने वाले जीव भी आहट पर भागने लगते हैं। सभी जीवों की इच्छा है कि हम जियें। डारविन के विकासवाद में भी जिजीवीषा का यही तत्व है। जीवित रहने के लिए सभी जीव स्वयं को प्राकृतिक वातावरण के साथ ढालते हैं। मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में ज्यादा बुद्धिमान हैं। असुरक्षा भाव के चलते मनुष्य ने हथियार बनाये। पत्थर के, लकड़ी के और बाद में लोहे के। सिर की रक्षा के लिए धातु की टोपी बनाई। इसे शिरस्त्राण कहा जाता है। इसी का अंग्रेजी नाम हेलमेट है। भय जीवन का अविभाज्य हिस्सा जान पड़ता है। भीड़ वाले स्थानों पर भय के कारण ही भगदड़ होती है। अनेक लोग अकाल मृत्यु का शिकार होते हैं। बहुत लोगों को ऊंचाई से डर लगता है। बहुत लोगों को बंद संकरी जगह में भय घेरता है। मैं इन दोनों प्रकार के भय से ग्रस्त रहता हूँ। लिफ्ट में सारा ध्यान दरवाजा खुलने की ओर लगा रहता है। वायुयान में प्रतिक्षण हजारों फिट की ऊंचाई पर ही ध्यान लगा रहता है। लोग बताते हैं कि वायुयान से सुरक्षित अन्य कोई यात्रा नहीं है। दुनिया में वायुयान दुर्घटनाओं में जान गंवाने वाले लोगों की संख्या नगण्य है। रेल या सड़क यात्राओं में लाखों लोग मारे जा रहे हैं। 
दुर्घटना से बचा जा सकता है लेकिन मृत्यु दुर्घटना नहीं है। मृत्यु सुनिश्चित है। हमने एक सूफी की बात पढ़ी है, मृत्यु से क्यों डरे? यह तो जीवन के अंत में आती है। ध्यान आंकड़ों पर ज्यादा है। सबसे ज्यादा लोग अपने घर में ही मरे हैं। इस तरह तो सबसे ज्यादा डर घर में ही लगना चाहिए। लेकिन लिफ्ट या जहाज में हमारा तर्क काम नहीं करता। मैं अपने भय को देखता हूँ। स्वयं के डर को हास्यापस्द घोषित करता हूँ। मन अस्थाई रूप में भयहीन हो जाता हैं लेकिन थोड़ी देर बाद फिर से डर घेर लेता है। मैं अपने डर से बहुत डरता हूँ। मनोविज्ञान डर को सामान्य मनोरोग बताता है। मेरा मन प्रश्न करता है कि क्या भय कोई सामान्य रोग ही है? चिकित्सा विज्ञान में प्रत्येक रोग का कारण खोजते है। फिर निदान करते हैं। भय का कारण क्या है? घूम फिर कर बात वहीं पहुँचती है कि हम जीना चाहते हैं। जीने की इच्छा में असुरक्षा भाव का होना स्वाभाविक ही है। प्रश्न है कि क्या स्थायी रूप में भय दूर करने के लिए जीने की इच्छा के त्याग का कोई विकल्प है? उपनिषद् दर्शन जीने की इच्छा के त्याग की बात नहीं करता। वह इच्छा त्याग की बात अवश्य करता है। क्या इच्छा शून्यता में जीने की इच्छा सम्मिलित है? 
जीवन रहस्यपूर्ण है। सभी कर्म प्रेरित हैं। जीना कोई कर्म नहीं है। जीवन के जन्म के साथ प्रारम्भ होता है और जन्म के बाद कर्म की गति। उपनिषद् व बुद्ध जन्म को पूर्वजन्म की इच्छा का परिणाम बताते हैं। जीने की इच्छा के साथ ही हम सब जन्म लेते हैं फिर संसार में गति करते हैं। संसार के सभी देशों के जीवन कर्म उद्देश्य भिन्न-भिन्न हैं लेकिन भोजन, आवास, संतति आदि ध्येय लगभग एक जैसे ही है। मैं सोचता हूँ कि जीवन की गति में किसी दिन तृप्ति अवश्य आती है। तृप्ति के बाद जीवन का रस नहीं मिलता। जीवन के भोग सुख अनंत कहे जाते हैं लेकिन ऐसी जीवन यात्रा में किसी भी क्षण अनंत का बोध संभव है। मैं अपना उदाहरण देने का साहस जुटा रहा हूँ। मैंने जीवन को सभी आयामों में जिया है। जीवन को संघर्ष जानकर लड़ाई करते हुए और जीवन को प्रकृति का संगीत जानकर गीतमय होते हुए भी। उत्कृष्ट सम्मान का आंनद पा चुका हूँ। अपने विचार के कारण अपमान के दंश भी झेले हैं। तमाम अपमानों और सम्मानों के कारण भी मैं नहीं जानता। व्यक्तिगत रूप में मैं अपनी जीवन प्राप्तियों से संतुष्ट हूँ। तो भी संस्कृति संवर्द्धन के लिए सक्रिय हूँ। मेरा प्रश्न मुझसे ही है कि सब कुछ पाने के बावजूद मैं भयग्रस्त क्यों रहता हूँ।
प्राण जिजीवीषा से भरे पूरे हैं। आकाश तारों से भरा-पूरा है। उनका प्रकाश महीनों, सालों बाद हम सब तक आता है। उनका भी जीवन क्षण भंगुर हैं। वे भी टूटते बिखरते हैं। नदियां जन्म लेती हैं, प्राकृतिक घटनाओं में लुप्त होती हैं। सरस्वती भाग्यवान रही। वे लुप्त होने के बाद भी भारत के मन में बहती हैं। क्या नदियां भी अपने जीवन को लेकर डरती होंगी? उनमें तमाम औद्योगिक कचरा जा रहा है। क्या वे कचरा वालों को देखकर भयग्रस्त होती हैं? पक्षी हम मनुष्यों की तरह डरपोक नहीं हैं। वे आहट पर उड़ जाते हैं। अपने स्वाभाविक प्रवाह में इस पेड़ से उस पेड़ पर। लेकिन वे मनुष्य की तरह भयग्रस्त नहीं जान पड़ते। मित्रों के देहावसान पर जाता हूँ। निर्जीव देह देखता हूँ। जीवन में मृत्यु की उपस्थिति देखता हूँ। सब कुछ प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। व्यक्ति जन्म के साथ मृत्यु के बीज लेकर पैदा होते हैं। सब मरते हैं पके फल की तरह। मैं भी एक फल हूँ। मैं पूरा पका कि नहीं? यह बात नहीं जानता। पूरा पकूंगा तो कोई भी पक्षी गीत गाते हुए चोंच मारेगा और पेड़ से अलग हो जाऊंगा। आश्चर्य है कि यह सब देख रहा हूँ तो भी भयभीत हूँ। नियतिवाद न मानें तो भी मृत्यु सबकी नियति है। बावजूद इसके संसार में कटुता है। 
जीवन जीने के साथ जानने योग्य भी है। आनंद जीवन का हिस्सा है। आनंद के आच्छादन में रसमय मधुमयता है। भय के आच्छादन में भी भय है। जीवन में भय की भी उपस्थिति है। पूर्वज बता गए हैं कि भय आभासी है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में मनुष्य को अमृत पुत्र कहा गया है। आत्म तत्व अमर अमृत रहता है। शरीर अनित्य है, आत्म नित्य है। ऐसी बातें सबको अच्छी लगती हैं। आस्तिक को ज्यादा सुंदर लगती हैं। जानकर ही मानने वाले अंतराष्ट्रीय विद्वान भी प्रकारांतर से ऐसी बातें लिखते रहे हैं। चाल्र्स डारविन ने प्राकृतिक इतिहास व भूगर्भ शास्त्र संबंधी जानकारी के लिए कई साल तक दुनिया का भ्रमण किया था। उन्होंने ‘‘जर्नल आॅफ रिसर्चेज़’’ में कई अनुभवो का उल्लेख किया है। डारविन ने 1835 में भूकम्प का झटका महसूस किया। वह जंगल में लेटे थे। धरती कांपने लगी। वह उठे। चक्कर आया। उनका निष्कर्ष बहुत विचारणीय है, ‘‘बुरा भूकम्प पुराने से पुराने भावात्मक सम्बन्धों को तत्काल नष्ट कर देता है। समय के एक क्षण से असुरक्षा की ऐसी धारणा मिली जो घंटों के चिंतन से न पैदा होती।’’ प्रकृति और मनुष्य के बीच तमाम अंतर्विरोध हैं। प्रकृति से संघर्ष अलग की बात है लेकिन ऐसी तमाम परिस्थितियां सामने आती हैं जब आत्म समर्पण के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं होता। नेपाल में भूकम्प आया था। महाराजगंज(उ0प्र0) के एक उपचुनाव में मैं नेपाल सीमा में था। ग्रामीण एकत्रित थे। एक बड़े भवन में कार्यक्रम था। धरती हिलने लगी। भवन हिल रहा था। लोग भागे। महिलाएं शोर मचा रही थीं। मैं तेज रफ्तार से बाहर निकला। सामने की बड़ी बिल्डिंग हिल रही थी। अनुभव डरावना था। तीन दिन बाद मैं राजधानी लखनऊ के सरकारी आवास में दूसरे तल पर था। भवन हिलने लगा। शोर मच रहा था। लोग नीचे की ओर भाग रहे थे। मुझे लगा कि मैं भागकर नहीं उतर सकता। नीचे उतरूंगा तो भी बड़ी बिल्डिंग ऊपर ही गिरेगी। लाचार असहाय चित्ता दशा। मैंने अस्तित्व के सामने आत्म समर्पण किया। जो हो, सो हो। यह बौद्धिक निर्णय नहीं था। सोची समझी बात भी नहीं। मैं लिखने की मेज पर लौटा। लिखते-लिखते जाना या बचना ही विकल्प था। मेरे मन में आज भी प्रश्न है कि क्या असुरक्षा का चरम आत्मविश्वास में बदलता है? तब असुरक्षा का भाव कहाँ चला जाता है? अपने आभासी भय को रोज देखता हूँ। हमारे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष हैं।)

Related Articles

Back to top button