दस्तक-विशेषस्तम्भ

समान नागरिक संहिता बनाने से पहले भारत की विशिष्टता पहचानिए

-डॉ़ रहीस सिंह
आजकल तीन तलाक (ट्रिपल तलाक) के जरिए समान नागरिक संहिता पर पहुंचने सम्बंधी एक भिन्न माहौल बनता दिख रहा है। इस माहौल के मुख्य रूप से दो आयाम हैं। पहला-‘तीन तलाक’ और दूसरा ‘यूनिफार्म सिविल कोड’। तीन तलाक सम्बंधी शरियाई व्यवस्था मुस्लिम महिलाओं को सामाजिक असुरक्षा प्रदान तो करती ही है साथ उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व को समाप्त कर देती है। इसलिए इस मसले पर अब देश इस दिशा में बढ़ रहा है कि इसे समाप्त होना चाहिए जिस पर पुरुषों के नियंत्रणवाला ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तानाशाह के रूप में अपनी हुकूमत प्रदर्शित कर रहा है। हालांकि सरकार की मंशा और इरादों को देखते हुए ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने थोड़ा झुकना स्वीकार किया है। दरअसल तीन तलाक पुरुषों के लिए तलाक का एक त्वरित विकल्प है, जिसकी अनुमति पाकिस्तान समेत कई इस्लामी देश भी नहीं देते। लेकिन भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के बावजूद अब तक इसे स्वीकार करता चला आया है। इसकी वजह शायद भारतीय राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमजोरी रही है। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस दिशा में हो रहे प्रयास सार्थक परिणाम तक पहुंच पाएंगे? क्या इस देश में मुस्लिम आबादी जिसका आकार पाकिस्तान के जनसांख्यिकीय आकार से बड़ा है, इसे सहज ही स्वीकार कर लेगा या फिर इसके विरुद्घ हिंसा-प्रतिहिंसा की प्रक्रिया आरम्भ होने की सम्भावना निर्मित होगी। इस तलाक की पृष्ठभूमि में मुस्लिम निकाह की विशिष्टता भी है, क्या उसमें भी हस्तक्षेप किया जाएगा? क्या भारत सरकर यूनिफार्म सिविल कोड ला सकेगी जिसके तहत मुस्लिम विधि बनाकर इस प्रकार की व्यवस्था को समाप्त किया जा सकेगा?
सबसे पहला पक्ष तो यही है कि यदि तलाक प्रथा को लेकर किसी निर्णय के लिए अधिकृत कौन होना चाहिए-सरकार, न्यायपालिका या फिर ऑल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड? दूसरा यह कि क्या महिलाओं को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 का लाभ पाने का अधिकार नहीं है? क्या सरकार इन विषयों के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलुओं का अध्ययन कर चुकी है? क्या सरकार ने भारत की विविधिताओं, जिसमें यूनिफार्मिटी के साथ-साथ हेट्रोजेनेटिक विशेषताएं भी विद्यमान हैं जिसके चलते भारत ‘सेलेट बाउल कल्चर’ के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल रहा है, का समग्र समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय अध्ययन कर लिया है। क्या इस पर विचार किया गया है इस देश के लिए यूनिफार्म सिविल कोड उचित रहेगा या फिर कॉमन सिविल कोड? क्या विविधताओं से भरे हमारे देश में ‘कॉमननेस’ उपयुक्त साबित हो सकता है?
तीन तलाक के साथ ही एक मसला और जुड़ा है और वह है बहुविवाह का। यह फैक्टर देश राष्ट्रचिंतन के एक विशिष्ट विचारधारा से प्राय: जुड़ जाता है। अगर बात इस विषय तक पहुंची तो फिर ‘समान नागरिक संहिता’ की परिधि आरम्भ हो जाएगी, जिसे लेकर कमोबेश पूरा मुस्लिम समुदाय एकमत से विरुद्घ खड़ा हो जाएगा। इसमें वे स्त्रियां या उनका अधिकांश हिस्सा भी शामिल होंगा जो तलाक को लेकर भारतीय न्यायपालिका की शरण में जाने के साथ अपने समाज के भीतर पैठ बना चुके रूढ़िवाद और जर्जर हो रहे ढांचे के विरुद्घ में सड़कों पर उतर रही हैं। हालांकि एक सर्वे बताता है कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं बहुविवाह के विरोध में हैं, लेकिन इसका दूसरा सच यह भी है कि 90 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं एक स्त्री से विवाह वाले संबंधों में ही हैं, इसलिए यह विषय बहुत ताकतवर नहीं दिखता। हां इसके अपने राजनीतिक मायने हैं।
‘तीन तलाक’ की प्रथा के खिलाफ ऐसी पहल शुरू की कुछ मुस्लिम महिलाओं ने, जिसमें बाद में कुछ पुरुष भी जुड़ते गये। परिणाम यह हुआ कि कोर्ट ने संज्ञान लिया और इस विषय पर सरकार से हलफनामा मांग लिया। सरकार ने अपने हलफनामें में यह स्पष्ट कर दिया कि वह तीन तलाक जैसी प्रथा के पक्ष में नहीं है। विधि आयोग ने एक क्वेश्चनर अन्य धार्मिक संगठनों के साथ-साथ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी भेज दिया। हालांकि इस पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को एक सम्भ्रांत संस्था की तरह अपना जवाब देना चाहिए था, लेकिन उसने तब ऐसा नहीं किया बल्कि उसने भारतीय न्यायपालिका को भी शरिया कानून की डोमेन में आने से रोकने की हिमाकत कर दी। जाहिर है मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड समान नागरिक संहिता को भी स्वीकार नहीं करेगा बल्कि यह सम्भव है कि वह मुस्लिम समाज को इसके खिलाफ खड़ा करने का प्रयास करे। यहां पर एक बेहद गम्भीर बात यह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित तमाम मुल्ला-मौलवी प्राय: इस प्रकार से बात करते हुए देखे गये हैं जैसे हमारे देश में कोई संविधान, कोई सरकार, कोई कानून, कोई अदालत आदि हो ही न। मुस्लिम बुद्घिजीवी यह तर्क देते हैं कि शरिया में डिवाइन एलीमेंट ज्यादा हैं और इसके स्रोत हैं-कुरआन, पैगम्बर के वचन (प्रॉफेट्स सेइंग्स), जस्टिस ओपीनियन, एनालॉजिकल डिडक्शन, जस्टिस प्रिफेरेंसेस और पब्लिक इण्टरेस्ट्स। उनका यह भी मानना है कि भारत में इस्लामी कानून हनफी फिकह है। दरअसल यह उज़बेकिस्तान के उलमा की एक पुस्तक पर आधारित है। इसे विलियम जोंस ने अनुदित किया जो पहले फारसी में अनुदित हुआ था और फिर अंगे्रजी में। चूंकि इसका संहिताकरण (कोडीफिकेशन) नहीं हुआ था इसलिए यह माना जा सकता है कि यह (शरिया कानून) व्यापक स्तर पर विधिशास्त्रियों (ज्यूरिस्ट) के विचारों व अवधारणाओं पर आधारित है। इसलिए इसमें मानवीय पहलू (ह्यूमन कंटेंट) अधिक हैं। 11वीं-12वीं सदी के बाद इस्लामी के अनुयायियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि जो कुछ पहले लोगों ने कह दिया है हम उसी का अनुसरण करेंगे। इसलिए यह आज एक रूढ़ि की तरह स्थापित माना जाना चाहिए क्योंकि इसमें उद्विकास (इवोल्यूशन) हुआ ही नहीं। इन्हीं रूढ़ियों को उलमा वर्ग दैवीय तत्व (डिवाइन इलीमेंट) बताकर लोगों पर जबरन थोपने का काम करता है। ऐसे में जरूरी है कि जब हर क्षेत्र में हम एक देश, एक कानून या एक व्यवस्था की बात करते हैं तो फिर यहां पर यह ‘एक’ शब्द भी संस्थापित हो।
एक राष्ट्र की दृढ़ता, एकता और अखण्डता के लिए जरूरी है कि ‘वन इण्डिया’ प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिबिम्बित हो। लेकिन कोई कानून बनने से पहले कुछ बातें साफ होनी जरूरी हैं। प्रमुख यह कि लोकतंत्र में किसी भी प्रश्न पर बात हो सकती है, विमर्श हो सकता है और किसी भी विषय अथवा विवाद में सरकार और देश की न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है। इसका मतलब यह हुआ कि इस विषय पर भी मुक्त मन से विमर्श और संवाद होना चाहिए। दूसरा यह किसी भी ‘नव निर्माण’ का चश्मा किसी धर्म या संस्कृति अथवा विचारधारा विशेष के रंगों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। भारत की विशिष्टता किसी को भी ऐसी व्यवस्था के निर्माण की इजाजत नहीं देती जो किसी एक वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय या क्षेत्र के पक्ष में झुकी हो और वह सरकार के प्राधिकारों की स्थापना के लिए किसी के दमन हथियार बन जाए। बल्कि इसके विपरीत न्यायालय को इसके विरुद्घ प्रत्येक को संरक्षण पाने के अधिकार को गारण्टी देनी होगी। इसलिए इस व्यवस्था को निजी धार्मिक मान्यता के रूप में नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय प्रश्न के रूप देखने की जरूरत है। ऐसे प्रश्नों का समाधान किसी र्धािमक कानून या धार्मिक संस्था से नहीं बल्कि संविधान के प्रकाश में अदालतों से निकलना चाहिए।
भारतीय संविधान ने भाग तीन में अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के साथ-साथ अनुच्छेद 25 भी संस्थापित है। इसलिए जहां पहले तीन अनुच्छेद विभेदों को रोकते हैं और गरिमामय जीवन जीने एवं वृत्ति के अधिकार की गारंटी देते हैं वहीं अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता, अंत:करण एवं आचरण की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन अनुच्छेद 25 समान नागरिक संहिता को बनाने से नहीं रोकता बल्कि अब तक नीति निदेशक तत्वों की मौलिक अधिकारों पर व्यापकता भी सिद्घ हो चुकी है। परन्तु कॉमननेस और यूनिफॉर्म में एक आधारभूत अंतर होता है। दूसरा जहां सांस्कृतिक सामासिकता को संरक्षण प्रदान करता है वहीं पहला इसे नुकसान पहुंचाता हुआ दिखता है। भारत की विशेषता एवं बुनियाद इसी सामासिक संस्कृति से मजबूती प्राप्त करती है इसलिए यदि इसे नुकसान पहुंचता है तो संभव है कि भारत में ‘कानफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ या ‘क्लैसेज ऑफ कल्चर’ जैसी स्थिति निर्मित हो, जो देशहित में नहीं होगी। इसलिए सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि यह मामला राजनीतिक नहीं है बल्कि एक समुदाय के अस्तित्व से जुड़ा हुए प्रश्न का है जिसे प्रारक्षित करने के लिए वह किसी हद तक जा सकता है। इसलिए जरूरी है कि किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले इस विषय पर गम्भीर संवाद हों, डिबेट्स हों, समाजशास्त्रीय एवं मानवशास्त्रीय अध्ययन हों, लॉ कमीशन इन पर शोध करे, तब इन विषय पर कानून बनाने की प्रक्रिया पूर्ण की जाए। इस समय धार्मिक हिन्दुत्व (ना सांस्कृतिक हिन्दुत्व, जो भारत का बुनियादी लक्षण है) का जो नया वातावरण सृजित हो रहा है और इसके प्रकाश में बहुत कुछ देखने की जो परम्परा शुरू हुयी है, वह भविष्य की दृष्टि से बहुत फलदायी नहीं लगती। यद्यपि आज सरकार के पक्ष में खड़ा एक बड़ा वर्ग इस तर्क को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं होगा बल्कि उसकी प्रतिक्रिया भी असहनीय हो सकती है, लेकिन सच यही है।
फिलहाल आचार्य चाणक्य का कहना था कि जिस देश के लोग सच बोलना नहीं जानते वे वर्तमान भले ही सुधार लें, लेकिन भविष्य बिगाड़ देते हैं। इसे आज भी मौलिक सूत्र के रूप में मानने की जरूरत है फिर वह झूठ चाहे राजनीतिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो या अन्य किस्म का। आज के भारत का सच यह है कि यह उस ‘सैलेट बाउल’ की तरह है जिसमें तमाम सब्जियां, फल व पत्तियां मिलकर संयुक्त एवं संतुलित अस्तित्व को व्यक्त करती हैं, जिसमें किसी एक भी अवहेलना या अनुपस्थिति उसकी पूर्णता पर प्रश्नचिन्ह लगा देती है एवं उसमें स्थापित संतुलन को भंग कर देती है। यह देश सदियों की विरासत लिए इसी प्रकार की विशेषताओं से सम्पन्न है, इसलिए उसकी विशिष्टता के प्रति असहिष्णुता और आक्रामकता बेहद नुकसान देह हो सकती है। हालांकि हम ‘मैन कॉन्कर्ड द वल्र्ड’ के दम्भ को लेकर आगे बढ़ते दिख रहे हैं, इसलिए अभी कुछ चीजें ऐसी अवश्य दिख रही हैं जो नहीं होनी चाहिए थीं।

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