दस्तक-विशेषसंपादकीय

सम्पादकीय अगस्त 2016

ramkumar singhउत्तर प्रदेश के राजनीतिक दलों में इन दिनों विधानसभा के चुनावों का परिणाम येन-केन प्रकारेण अपने पक्ष में करने के लिए घमासान मचा है। कांग्रेस पार्टी अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित और चुनाव प्रबंधन के माहिर प्रशांत किशोर के सहारे यूपी पर दांव लगाया है। कांगे्रस पूरे प्रदेश में यूपी के 27 साल, प्रदेश बेहाल के नारे के साथ रैलियां करके अपने सक्रिय होने का एहसास प्रदेश की जनता को करा रही है और उसकी सक्रियता देखकर लोग मानने भी लगे हैं कि कांगे्रस पार्टी इस चुनाव में अपना आंकड़ा डबल तो कर ही लेगी। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में दलित और सवर्ण वोटों को अपने पक्ष में करने के लिए लड़ाई इस हद तक बढ़ गयी है कि वे राजनीतिक शुचिता को ताक पर रखकर गाली-गलौच की राजनीति पर उतर आये हैं। यह एपिसोड भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह के एक बयान से शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने मायावती को पैसा लेकर टिकट बांटने पर अभद्र टिप्पणी कर डाली और बाद में जबान फिसलने की बात कहकर माफी मांगी। भारतीय जनता पार्टी जिसने दलितों को अपने पक्ष में करने के लिए अथक प्रयास किया था और उसमें सफलता भी मिलती हुई दिखाई दे रही थी किन्तु दयाशंकर की एक गलत बयानबाजी ने सब गुण गोबर कर दिया। इससे खीझकर पार्टी ने दयाशंकर को तुरंत ही बाहर का रास्ता दिखा दिया। पार्टी के बड़े नेताओं को इस मुद्दे पर सदन में माफी भी मांगनी पड़ी। स्वामी प्रसाद मौर्या और आरके चौधरी के बसपा छोड़ने के मामले से सदमे में चल रही मायावती ने अचानक हाथ लगे इस मुद्दे को लपक लिया और इसे दलित स्वाभिमान का मुद्दा बनाकर राज्यसभा में इसका जोरदार विरोध कर भाजपा को आड़े हाथों लिया। बड़े पैमाने पर भाजपा के खिलाफ बसपा के कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किये। इन प्रदर्शनों में अति उत्साही बसपा कार्यकर्ताओं ने भी भाजपा कार्यकर्ता के द्वारा की गयी गलतियों को दोहरा कर गाली का जवाब गाली दे डाला और बसपा सुप्रीमो मायावती के खिलाफ की गयी अभद्र टिप्पणी के विरोध में बसपा कार्यकर्ताओं ने दयाशंकर सिंह के परिवार को भी इस मामले में घसीट लिया और उनकी पत्नी, मां और बेटी के खिलाफ अभद्र टिप्पणी कर डाली। भारतीय जनता पार्टी दयांकर सिंह के वक्तव्य से खिन्न थी इसलिए उसने इस मामले पर दयाशंकर सिंह को अकेला छोड़ दिया। लेकिन दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाती सिंह ने इस बात का भरपूर विरोध किया। उन्होंने कहा कि दयाशंकर सिंह ने गलती की है, इसकी सजा दयाशंकर सिंह को दी जाये, इस पर हमें कोई एतराज नहीं लेकिन उनकी गलती पर हमारे परिवार और हमको गाली दी जाये, यह मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी और स्वाती सिंह ने अपनी सास तेतरा देवी के साथ हजरतगंज थाने में बहुजन समाज पार्टी के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी, रामअचल राजभर और अन्य बसपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ गंभीर धाराओं में रिपोर्ट दर्ज करा दी जिसमें पास्को जैसी गंभीर धारा भी शामिल है। बसपा कार्यकर्ताओं की बदले में की गयी नारेबाजियों और दयाशंकर सिंह पर लगे आरोपों की रिपोर्ट समाचार चैनलों में देखकर दयाशंकर सिंह की बेटी डर के मारे सदमे में चली गयी और उसको अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। स्वाती सिंह के संघर्ष को तब और बल मिला जब सवर्ण समाज ने एकजुट होकर स्वाती सिंह को अपना समर्थन जाहिर कर दिया और स्वाती सिंह राष्ट्रीय समाचार चैनलों एवं सोशल मीडिया पर मायावती के खिलाफ लड़ती हुई सशक्त महिला के तौर पर उभरकर सामने आ गयीं। जो काम दयाशंकर सिंह अपने पूरे राजनीतिक कैरियर में नहीं कर सके, उसे स्वाती सिंह ने अपने संघर्ष से कुछ दिनों में ही करके दिखा दिया। लेकिन भाजपा का दयाशंकर सिंह को बीच मझधार में छोड़ देना सवर्ण समाज को बहुत अखरा और उसने भारतीय जनता पार्टी को इस मुद्दे पर पल्ला झाड़ लेने के मामले पर आड़े हाथों लिया, पूरे सवर्ण समाज में नाराजगी का माहौल बन बया। मामले की गंभीरता का एहसास होते ही भारतीय जनता पार्टी बेटी के सम्मान में, भाजपा मैदान में नारा देकर स्वाती सिंह के साथ खड़ी हो गयी, क्योंकि भाजपा के नेताओं को यह एहसास हो गया था कि दलित वोटों को अपने पक्ष में करने के चक्कर में कहीं उनका मूल सवर्ण वोट ही न खिसक जाये। सो उन्होंने स्वाती सिंह का समर्थन करने में ही अपनी भलाई समझी। अब दयाशंकर सिंह इस मामले में हुई एफआईआर के विरुद्ध गिरफ्तार किये जा चुके हैं। इसके बाद अब दूसरी तरफ स्वाती सिंह द्वारा करायी गयी एफआईआर में नसीमुद्दीन और रामअचल राजभर को गिरफ्तार करने के लिए क्षत्रीय समाज द्वारा जगह-जगह प्रदर्शन भी शुरू हो गये हैं जिसका भारतीय जनता पार्टी भी मौन रूप से समर्थन कर रही है। अगर सवर्ण समाज का दबाव काम आया तो इस मुद्दे पर नसीमुद्दीन और रामअचल राजभर को भी जेल जाना होगा। उधर, बहुजन समाज पार्टी के मुखिया मायावती ने भी अपनी पार्टी से सवर्णों के अलग होने की स्थिति को भांपते हुए इस मुद्दे पर अपने प्रदर्शनों को रोककर और अपने कार्यक्रमों की रूपरेखा बदल दी है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव तक अभी इस तरह के तमाम मुद्दे पैदा किये जाते रहेंगे, पर देखना है कि राजनीतिक गोटियां फेंकने वाले नेताओं के हाथ में मुद्दों के परिणाम भी उनके ही अनुकूल रहते हैं या उत्तर प्रदेश की राजनीति में कोई नयी जातीय गोलबंदी बन जायेगी।

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