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सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने ‘धारा 377’ पर क्यों नहीं रखा अपना पक्ष?


नई दिल्ली : समलैंगिकता को अपराध मानने वाली आईपीसी की धारा 377 की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की पीठ ऐतिहासिक सुनवाई कर रही है, जिस तरह कट्टरपंथियों के दबाव में शाहबानो मामले में संसद ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदल दिया था, उसी तरह समलैंगिकता मामले में संविधान पीठ की सुनवाई से अनेक न्यायिक परंपराएं टूट रही हैं।सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय समेत अनेक पक्षकार हैं। पूर्व में हलफनामा दायर करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने नॉको (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) और 42वें विधि आयोग की रिपोर्ट के हवाले से एड्स के खतरे और संगठित लॉबी को दर्शाते हुए समलैंगिकता को वैधानिक बनाने का विरोध किया था। संविधान पीठ के सम्मुख मामला आने पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने हलफनामा देकर आश्चर्यजनक तरीके से अपना पक्ष रखने से ही मना कर दिया। इस मामले पर पूर्व में केंद्र सरकार ने यह कहा था कि राज्य सरकारें जनमत के अनुसार कानून में संशोधन करके अपने राज्य में मान्यता दे सकती हैं।

समलैंगिकता का विषय संविधान की समवर्ती सूची में होने के बावजूद इस मामले पर सभी राज्यों ने अपना लिखित जवाब फाइल नहीं किया। सरकारी विज्ञापन में नेताओं के फोटो के मामले में राज्य सरकारों को सुने बगैर सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला देने की आलोचना के बाद, उसमें अनेक बदलाव करने पड़े. न्याय का मूलभूत सिद्धान्त है कि सुनवाई के बगैर कोई फैसला नहीं होना चाहिए, तो फिर सभी राज्यों से लिखित जवाब के बगैर इस मामले में संविधान पीठ का फैसला कितना न्यायसंगत होगा? संविधान के अनुसार अटॉर्नी जनरल देश के सबसे बड़े विधि अधिकारी हैं। अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि उन्हें समलैंगिकता मामले पर सरकार के आधिकारिक पक्ष की समुचित सूचना नहीं है।

अटॉर्नी जनरल ने इस मामले की सुनवाई से यह कहते हुए खुद को अलग कर लिया कि क्यूरेटिव पीटिशन की सुनवाई में वे पहले पेश हो चुके हैं, इसलिए अब इस मामले में उनके द्वारा बहस करना उचित नहीं होगा। पूर्व के अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के दौरान भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था, इसके बावजूद वे अब सरकार के खिलाफ पेश हो रहे हैं। केरल बार और वेल्सपन मामलों में निजी पक्ष की तरफ से पेश होने के बावजूद तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सरकार की तरफ उन मामलों में पैरवी किया था। सवाल यह है कि जब सरकार समलैंगिकता मामले का विरोध ही नहीं कर रही, तो अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को इस मामले में बहस करने पर क्या दिक्कत हो सकती थी? सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2013 में किए गए फैसले के खिलाफ 2014 में पुनर्विचार याचिका निरस्त होने के बाद क्यूरेटिव पीटिशन को 2016 में संविधान पीठ के सम्मुख सुनवाई के लिए भेज दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट में इसके बाद कई और रिट पीटिशन दायर की गईं, जिन पर बहुत बाद में नोटिस जारी हुआ।

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