अद्धयात्मजीवनशैली

स्त्री के साथ हुए दुराचार का दंड भोग रहा दण्डकारण्य वन


श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान विंध्याचल पर्वत से लेकर गोदावरी तक फैले इस दण्डकारण्य वन में कई दिनों तक वास किया था। लगभग 93 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले इस वन में आज छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश राज्यों के हिस्से शामिल हैं। सतयुग में मनु के पुत्र महान राजा इक्ष्वांकु हुए थे। सूर्यवंश को स्थापित करने वाले इस राजा के सौ पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटा पुत्र मंदबुद्धि था। दरअसल उसका आचरण धर्मसंगत नहीं था, वह अपने पिता की एक बात नहीं मानता था, जिसकी वजह से उनके पिता उससे रुष्ट रहते थे। इसी कारण से उसका नाम दंड रखा गया था क्योंकि प्रसिद्ध राजा इक्ष्वांकु के कुशल राजपाठ के लिए वह एक सजा के समान ही प्रतीत होता था।

अपने पुत्र के ऐसे आचरण के चलते राजा ने उसे खुद से दूर कर लिया, जिसके लिए उसे विंध्य और शैवल पर्वतों से घिरे पूर्वी-मध्य भारत का शासन सौंपा गया। वहीं राजा ने शुक्राचार्य को दंड का गुरु बनाया, ताकि पुत्र अपने किसी कृत्य के चलते भविष्य में परेशानी का सामना न करना पड़े। उसी दौरान अपने राज्य मधुमंता में स्थित गुरु शुक्राचार्य के आश्रम जाकर दंड ने शास्त्रों का अध्ययन करने का निर्णय लिया। उस सुंदर आश्रम में गुरु की रूपवती कन्या अरजा भी रहा करती थीं। एक दिन दंड की उस पर कुदृष्टि पड़ गई और मर्यादा को भूलकर उसके साथ दुराचार कर बैठा। जब अरजा ने अपने पिता से पूरी घटना बताई तो अपनी पुत्री की दशा देखकर गुरु शुक्राचार्य क्रोधित हो गए। अब तक आश्रम में एक अच्छे और अनुशासित छात्र के तौर पर शास्त्रों का अध्यापन कर रहे दंड को गुरु ने यह शाप दे डाला कि अगले सात दिनों के भीतर उसका सारा राजपाठ सहित नाश हो जाएगा। यहां तक कि उसके राज्य से सौ कोस दूर तक शाप के प्रभाव से श्मशान सा नजारा दिखेगा, जहां किसी भी जीवित जीवजंतु का कोई चिह्न शेष नहीं बचेगा। यह शाप देने के बाद गुरु शुक्राचार्य अपनी पुत्री से कहा कि वह उसी आश्रम में सरोवर के निकट रहकर ईश्‍वर की आराधना करें। जो जीव इस अवधि में उसके निकट रहेंगे वे नष्ट होने से बच जाएंगे। और इस तरह महान सूर्यवंशी राजा इक्ष्वांकु के पुत्र दंड का सामूल नाश हो गया।

जिस राज्य में कभी सुख-सम्पन्नता की धारा बहा करती थी, वहां सात दिनों के बाद श्मशान जैसा सन्नाटा पसर गया। जहां कुछ समय पश्चात ऐसा घना जंगल उत्पन्न हुआ जिसके भीतर सूर्य भी प्रवेश नहीं कर सकता है। इसके बाद से ही उस स्थान का नाम दण्डकारण्य पड़ गया। इतिहास में इस स्थान का कई जगह वर्णन मिलता है। दण्डकारण्य में रहने वाले लोगों को दंडक कहा गया। ऐसा माना जाता है कि त्रेतायुग में इस जंगल से गुजरकर विंध्य पर्वत पर योगियों को तप करने के लिए वांछित एकाग्रता की प्राप्ति होती थी। जिसके लिए इस वन में उन्हें पहले कई तरह के असुरों और राक्षसों का सामना करना पड़ता था। वहीं अपने वनवास के दौरान श्रीराम ने माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ इसके आसपास के क्षेत्रों में वास भी किया था। हालांकि, शास्त्रों में इसे कई असुरों के निवास स्थान के रूप में बताया जाता है। दरअसल, पंचवटी जहां से रावण ने माता सीता का हरण किया था, वह भी इसी क्षेत्र में आता है।

Related Articles

Back to top button