दस्तक-विशेषस्तम्भहृदयनारायण दीक्षित

स्वयं को देखो स्वयं के द्वारा

स्वयं को स्वयं के द्वारा देखा जाना क्या आंख से ही संभव है? हम स्वयं की पीठ या चेहरा भी दर्पण से ही देख पाते हैं। कुछ भाग हाथ पैर आदि बेशक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन यह देखना वास्तविक देखना नहीं है। हमारी अंदरूनी मगर अदृश्य समग्र अस्मिता है। क्या हम स्वयं द्वारा स्वयं को सुनते हैं। वार्तालाप में ऐसा होता भी है लेकिन स्वयं की बोली में अंतस् के तमाम विवरण प्रकट नहीं किए जाते। स्वयं का अंतस् नाद सुनने के लिए मौन के अलावा कोई दूसरा उपकरण नहीं। बाहर कोलाहल है, यह श्रव्य के साथ दृश्य भी है। स्वयं के द्वारा स्वयं का स्वाद और भी आश्चर्यजनक है। त्वचा को चखना आसान है। लेकिन त्वचा स्वयं का ही भाग है। शारीरिक संरचना हमारी परिधि है।

स्वयं को जानना कठिन है। असंभव तो नहीं है लेकिन है बड़ा जटिल। जानने की गतिविधि में कम से कम दो भाग होते हैं। पहला जानने का इच्छुक व्यक्ति होता है और दूसरा जानने का विषय। ज्ञान प्राप्ति का इच्छुक व्यक्ति जानने के विषय से जुड़ता है। इन्द्रियबोध निर्णय देता है। हम उस विषय के जानकार हो सकते हैं। यहां इन्द्रियबोध का अर्थ आंख, कान, नाक, स्वादेन्द्रिय व स्पर्श नाम के पांच उपकरणों द्वारा प्राप्त संदेश है। स्वयं को जानने की कार्रवाई में हम स्वयं ज्ञान प्राप्ति की इच्छा करते हैं। स्वयं ही ज्ञान का विषय होते हैं। यह कार्रवाई कठिन है। स्वयं को स्वयं के द्वारा देखा जाना क्या आंख से ही संभव है? हम स्वयं की पीठ या चेहरा भी दर्पण से ही देख पाते हैं। कुछ भाग हाथ पैर आदि बेशक दिखाई पड़ते हैं। लेकिन यह देखना वास्तविक देखना नहीं है। हमारी अंदरूनी मगर अदृश्य समग्र अस्मिता है। क्या हम स्वयं द्वारा स्वयं को सुनते हैं। वार्तालाप में ऐसा होता भी है लेकिन स्वयं की बोली में अंतस् के तमाम विवरण प्रकट नहीं किए जाते। स्वयं का अंतस् नाद सुनने के लिए मौन के अलावा कोई दूसरा उपकरण नहीं। बाहर कोलाहल है, यह श्रव्य के साथ दृश्य भी है। स्वयं के द्वारा स्वयं का स्वाद और भी आश्चर्यजनक है। त्वचा को चखना आसान है। लेकिन त्वचा स्वयं का ही भाग है। शारीरिक संरचना हमारी परिधि है। सूंघने का उपकरण नाक है। नाक का अंदरूनी भाग संवेदनशील है। गंध की अनुभूति मस्तिष्क की सहायता से होती है। क्या स्वयं द्वारा स्वयं को सूंघा जा सकता है? बेशक अपने शरीर को सूंघा जा सकता है। शरीर स्वयं का भाग है लेकिन स्वयं केवल शरीर ही नहीं है। अब स्पर्श को स्पर्श करते हैं। स्पर्श अति आत्मीय संक्रमण है। हम मित्र का हाथ अपने हाथ में लेते हैं या मित्र हमारा हाथ अपने हाथ में लेते हैं। बात एक ही है। आत्मीयता की स्थिति में हम स्वयं अपने व्यक्तित्व के साथ हाथ पर पहुंच जाते हैं।
यह बिल्कुल भिन्न घटना है। हम अपने प्रिय कुत्ते या खरगोश को सहलाते हैं। सहलाना एक काम है लेकिन तब हम स्वयं-स्वयं जैसे ही नहीं रह जाते, खरगोश कुत्ते या किसी भी प्राणी का स्पर्श हमारी मन: चेतना तक उतर जाता है। प्रीति उगती है, भीतर तक। लेकिन क्या कभी आपने अपने हाथ से अपने ही शरीर को सहलाते हुए ऐसी ही आत्मीयता का अनुभव किया है? शायद नहीं। स्वयं के द्वारा स्वयं को छूने, चखने, सुनने, सूंघने और देखने का अनुभव ही कुछ और है। हमने स्वयं को स्वयं के द्वारा देखा है। बहुधा मालाओं से लदे फंदे स्वयं को भीतर से रीते-रीते स्वयं द्वारा देखा है। गंध समृद्ध फूलों को भी देखा ही है। लेकिन स्वयं द्वारा स्वयं को सूंघते समय पुष्पगंध लापता रहती है हर बार। बारंबार।
राजनीतिज्ञ का मन प्राय: स्वयं को नहीं देखता। वह संसार देखता है। संसार उसके लिए संघर्ष भूमि है। यहां जीता हुआ ही स्वीकार्य है। लेकिन स्वयं द्वारा स्वयं को देखने की कार्यवाही में संसार रणक्षेत्र नहीं रह जाता। साधो! हम न मरब मरिहें संसारा। स्वयं को स्वयं द्वारा स्पर्श करने और स्वयं द्वारा स्वयं के भीतर का नाद सुनने का प्रारम्भिक कार्य दुखदायी है। मैंने स्वयं को देखने के इस दुरूह काम में असह्य दुख भोगा-देखा है। दुख के बादलों को स्वयं पर दुख की वर्षा करते हुए भी देखा है। स्वयं ही दोषी, स्वयं ही गवाह, स्वयं ही अपना मुकदमा लड़ने और स्वयं ही न्यायाधीश होने की भूमिका के बावजूद मैं अपना मुकदमा स्वयं ही हारा हूं। अनेक बार। सांसारिक सुखों को भोगते हुए मैंने स्वयं को स्वयं द्वारा प्रताड़ित करते देखा है। संसार की दुखमयता के सिद्धांत पर मेरा विश्वास कभी नहीं रहा। सुख और दुख वास्तविकताएं नहीं हैं। वे अस्थाई मानसिक स्थितियां हैं। मैंने इन मानसिक स्थितियों को भी देखा है। भीतर की नदी का नाद सुनने के लोभ में मैंने पड़ोस के पेड़ो पर गीत गाते पक्षियों के कलरव को अनसुना किया है। गीत बाहर भी है और गीत अंदर भी। स्वयं गीत बनता हूं। स्वयं ही श्रोता होकर सुनता भी हूं। बहुत आश्चर्यजनक है स्वयं का स्वयं से याराना और बहुधा स्वयं से स्वयं की भिड़ंत। संसार अनंत अंतहीन है।

मैंने अपनी लघुता को अणु से भी छोटा देखा है लेकिन अहंकार के दुर्निवार पाश में बंधे होने के कारण स्वयं को विशिष्ट मानने का भ्रम भी मैंने कम समय तक ही नहीं पाला। काल ने बहुत आसानी से मुझे बार-बार पटका है। कभी बहुत ऊंचे ले जाने का भ्रम बढ़ाते हुए काल ने मुझे गर्म पानी की तरह खौलाया है। वैदिक ऋचाओं ने मुझे संसार के रम्य होने की अनुभूति दी है। वेद्यान्त दर्शन ने मुझे संसार को भ्रम समझने की दिशा दी है लेकिन मैंने स्वयं को रम्य वास्तविकता और मिथ्या जगत के बीच झूलते हुए पाया है। क्या सच है? नहीं जानता। स्वयं द्वारा स्वयं को ही समझाते देखने का मेरा अनुभव मजेदार है। अजीब बात है कि मैं स्वयं को स्वयं द्वारा संसार की असारता समझाता हूं। लेकिन संसार में मिल रहे यश कीर्ति में खुश होता हूं और अपमान में दुखी। यह भी ठीक वह भी ठीक की जुगुलबंदी में माया फिसल गई। मोह ऐसा कि न माया मिली न राम। स्वयं को कई तरह से देखा है। लेकिन देखने से मन नहीं भरा। स्वयं बड़ा रहस्यपूर्ण है। सोचता हूं कि क्या मेरा व्यक्तित्व ‘दो स्वयं’ से बना है। एक देखता है, दूसरा दिखाई पड़ता है। मन डोलता है। इसे किसने देखा है। मन को गतिशील और चंचल बने रहने का ईंधन कौन देता है? मैं सोचता, विचारता, देखता, सुनता, सूंघता, स्पर्श करता हूं। इस पूरी गतिशीलता को कौन परिचालित करता है? कौन प्राण डालता है? कौन प्राण छीन लेता है? तब हमारा ‘स्वयं’ काम करना बंद हो जाता है। कौन आकाश में नक्षत्रों का दूधिया गलियारा गढ़ता है? कौन चन्द्रमा को प्रति-तिथि छोटा बड़ा करता है? कौन लाता है पूर्णिमा और अमावस। तारों में ईंधन कौन डालता है। क्या तारों का प्रकाश बिना ईंधन ही जलता है? पूर्वज बता गए है कि यह ब्रह्म विराट है। वैसे ही यह मनुष्य पिण्ड भी है। मनुष्य को समझने के बाद विराट ब्रह्माण्ड भी समझ में आ जाता है। मैं ब्रह्माण्ड जानने का प्यासा रहा हूं सो मनुष्य जानने की जिज्ञासा की। शतपथ ब्राह्मण में प्रश्न है- “मनुष्य को कौन जानता है?” मनुष्य को दूसरा मनुष्य नहीं जान सकता। प्रत्येक मनुष्य अनूठा है। अद्वितीय है। उस जैसा दूसरा मनुष्य है ही नहीं। इसलिए मनुष्य को जानने का एकमात्र उपाय है स्वयं को जानना। सभी मनुष्यों के सामान्य घटक एक जैसे हैं। सबका अद्वितीय होना अलग विशिष्टता है। मैंने अपने भिन्न होने को आर्त भाव से देखा है। स्वयं को देखना असाधारण कार्रवाई है। अन्नमय कोष पहली पर्त है। अन्न से बनी है। प्राणमय कोष दूसरी है। इस पर्त पर प्राणों के कम्पन है। मनोमय कोष तीसरी है। यहां मन का साम्राज्य है। विज्ञानमय कोष चौथी परत है। यह तर्क और ज्ञान का क्षेत्र है फिर अंतिम है आनंदमय कोष। अनुमान है कि मैंने चार प्रथम कोषों तक गति की है। लेकिन पक्का नहीं कह सकता। संभव है कि विज्ञानमय कोष के क्षेत्र में टहलते हुए हम अनजाने में ही आनंदमय कोष तक पहुंचे हो कभी। आनंद रस मेरे भीतर ज्ञान मादकता की मस्ती और स्वयं द्वारा स्वयं को देखने की ललक पैदा करता है। हमेशा नहीं, कभी कभार। सप्रयास नहीं अनायास। संभव यह भी है कि प्राणमय कोष के कम्पन अथवा मनोमय कोष की गति के साथ तेज रफ्तार उड़ते हुए ही मैं आनंदमय कोष में जा गिरता हूं। क्या क्रोध भी ऐसा कर सकता है? अभिलाषा में बाधा से उगी ऊर्जा का नाम क्रोध है। क्रोध में शक्ति का विस्फोट होता है। इस शक्ति की अनजानी आंधी प्राय: अनचिन्ही रहती है। लेकिन मैंने अपने क्रोध को स्वयं द्वारा ही देख लिया है। क्रोध देव मस्त हैं। वे देख लिए जाने के बाद खिसियां जाते हैं और भाग जाते हैं। कुछ मित्र कहते हैं-क्रोध न करो। मैं हंसता हूं। क्या कोई क्रोध कर सकता है? क्रोध किया नहीं जा सकता। वह हमारी कामना का पुत्र होता है। कामना में बाधा पड़ी कि क्रोध उपस्थिति। अपने क्रोध सामने पड़ गए तो गायब। मैंने थोड़ा कुछ देखा है स्वयं को स्वयं के द्वारा। आप भी देखो स्वयं को स्वयं के द्वारा। यह एक मजेदार खेल है।

 

 

 

 

हृदयनारायण दीक्षित

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