साहित्यस्तम्भ

हम सभी स्वतंत्र भारत के परतंत्र नागरिक हैं…

हम सभी स्वतंत्र भारत के परतंत्र नागरिक हैं…यह वाक्य पढ़ने में बिल्कुल गलत लगा न? कड़वा तो ऐसा है जैसे कच्ची निबौरी हो। लगेगा भी क्यों नहीं, कहते हैं सच्चाई कड़वी ही होती है। अपने लिए ऐसे वाक्य का प्रयोग पढ़कर भड़कने वाले नागरिक आप कृपया सोचें! क्या आप पराधीन नहीं हैं? क्या आज आप पर किसी का शासन नहीं है? क्या आज आपके विचार स्वछंद हैं? क्या आपकी मां की इज्जत पर खतरा नहीं है? बिल्कुल है…पढ़ें कैसे? 

1947 में मिली स्वतंत्रता के 7 दशक बाद भी भारतीय पराधीनता की जंजीरों से बाहर नहीं आ सके, देश के लोगों ने अपनी एक मां भारत माता को स्वतंत्र तो करा लिया परन्तु अभी भी उनकी दूसरी मां जिन्हें ये मातृ भाषा के रूप में मानते हैं वह परतंत्र है और देश के लोग इसे भूल रहे हैं। आज समाज मे अंग्रेजी बोलकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करने वाले और हिंदी को अपमान की दृष्टि से देखने वाले मूर्खों को हम याद दिला दें कि जिस हिंदी को संपूर्ण विश्व मे सम्मान की नजरों से देखा जाता था,जिस हिंदी की माँ संस्कृत ने वर्षों तक विश्व पर राज किया अर्थात चारों वेदों की रचना,कृष्ण की गीता इत्यादि जिस भाषा मे ही रहे उसका प्रयोग करना आज समाज में इन लोगों द्वारा अपमान का सूचक माना जाता है। क्या लहसुन प्याज के दाम, पेट्रोल डीजल के दाम, हिन्दू, मुस्लिम इन सब से ऊपर हट कर इस पर कभी सोचा है? आज हम सभी पश्चिमी सभ्यता को देखकर एवं उसे अपना मान कर खुद को इस प्रकार इस पर न्योछावर कर चुके हैं जैसे एक प्रेमी अपनी प्रेमिका पर और चकोर चांद पर, भ्रमर कुमुदुनी पर न्योछावर होता है। अर्थात इसके बिना रहने की भी हम कल्पना नहीं कर पाते, लेकिन अगर गौर करें तो इसकी शुरुआत हमारे व्यक्तिगत जीवन मे कहीं और से नहीं हमारे अपने परिवार से ही होती है। बचपन में जब हम बोलना शुरू करते हैं उस वक़्त हमें श्लोक और मंत्रों के उच्चारण की जगह अंग्रेजी कुछ शब्द और वाक्य सिखाये जाते हैं। हमारी वैदिक संस्कृति के स्थान पर पश्चिमी संस्कृति को कुछ इस प्रकार हम पर थोपा जाता है। पैर छू कर प्रणाम करने वाले अभिवादन के स्थान पर हाथ मिला कर हेलो, हाय कराया जाता है। कुछ बड़े होने पर वैसे विद्यालय में भेजा जाता है जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो। इन विद्यालयों के नियमानुसार शिक्षक (गुरुजी) के पैर कभी न छुएं उन्हें (Good Morning, Good Evening इत्यादि) बोलें। ऐसे विद्यालयों में अपने पारंपरिक पोशाकों को तो पहनने से रहे उसकी जगह गले में फंदे डाल कर आना अनिवार्य है। पदवेश धारण कर पूजा करना वर्जित है ऐसा अब पुस्तकों में ही बहुत नजर दौड़ाने के बाद देखने को प्राप्त होता है, प्रयोगात्मक जीवन में हम जूता पहन कर प्रार्थना सभा मे उपस्थित होने के लिए बाध्य हैं। अगर थोड़ी नजर इनकी कक्षाओं की स्थिति पर डाली जाए तो हम पाएंगे कि पदवेश धारण कर पठन पाठन तो छोटी बात है, पाठ्यक्रम से संस्कृत को निष्काषित ही कर दिया गया है और सबसे बड़ी बात की हिंदी को अनिवार्य विषय की श्रेणी से भी बाहर कर दिया गया है। सभी भाषाओं की पढ़ाई अंग्रेजी में तो हो ही रही है लेकिन अनिवार्य विषय से हिंदी को मुक्त कर तृतीय भाषा के रूप में कुछ विषयों को पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है। विद्यालय की संस्कृति ऐसी बनी है कि यहां के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ऐसे प्रदर्शन होते हैं जैसे वह सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं, अंग प्रदर्शन का ही मुख्य कार्यक्रम है। यहां प्रथम पुरस्कार भी उसी को प्रदान किया जाता है जिसने सर्वाधिक अंग प्रदर्शन कर अश्लील सीटियां और तालियां बटोरी हों। अगर विद्यालय से बाहर निकलने पर स्थिति देखें तो यहां के छात्रों के पोशाक के साथ मिलाप भी इस प्रकार से होता है कि इसे देखते समय आंखें स्वयं ही नीचे झुक जाती हैं और पैर विपरीत दिशा में मुड़ जाते हैं। सामाजिक स्थिति यह है कि एक हाथ मे बियर की बोतल और दूसरे हाथ मे सिगरेट पकड़े कोट पैंट पहने हुए अंग्रेजी भाषा बोलते सभ्य लोग भगवान की भक्ति करने वाले, चंदन लगाए हुए, धोती-कुर्ता पहने हुए व्यक्तियों को पाखंडी, गंवार, अनपढ़ कह कर संबोधन करते हैं। अब तो कुछ शिक्षक भी अंग्रेजी की चापलूसी में एवं पाश्चात्य संस्कृति की चाटुकारिता में ही लीन हैं। अब तो सभाओं में भी लोग हिंदी बस इसलिए नहीं बोल पाते क्योंकि उन्हें शर्म महसूस होती है और जिन्हें अंग्रेजी का तनिक सा भी ज्ञान हो जा रहा है वे स्वयं को उस सभा का सभापति ही मान ले रहे हैं।

विदेशों में जाकर विदेशियों की नकल करने में गौरवान्वित होने वाले लोग कभी ये नहीं सोचते कि क्या कभी विदेशियों ने भारत मे आकर हिंदी भाषा का प्रयोग कर सभाओं का सम्बोधन किया है? जब उन्हें इस देश मे अपनी भाषा के प्रयोग में शर्म नहीं है तो फिर हमें वहां हिंदी के प्रयोग में शर्म क्यों आती है? एक मुसलमान अपने धार्मिक अभिवादन की परंपरा नहीं भूलता एक सिख अपने अभिवादन की परंपरा नहीं भूलता अन्य समुदायों के लोगों की भी अपनी अपनी शैली है लेकिन केवल हम ही चरण स्पर्श करने में हाथ जोड़ने में शर्म क्यों करते हैं? विदेशियों ने भारत को एक उपहास पूर्ण उपहार दिया 1 जनवरी के रूप में, सभी इस दिन नव वर्ष मनाने में लगे रहते हैं परंतु चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम संवत तो हमें याद तक नहीं रहता है। हम अपने वेदों पुराणों और धार्मिक ग्रंथों से कोसों दूर हो रहे हैं, हमें अपनी परंपराओं का जरा भी ज्ञान नहीं है लेकिन हमें पाश्चात्य सभ्यता का विधिवत ज्ञान है। आज हम अपने गुरु को भी सर कहते हैं और कार्यालय के किसी कर्मचारी को भी सर कहते हैं तो फिर अंतर कहाँ है भगवान समान गुरु और उस कर्मचारी में? अब इन सभी तर्कों के बाद मैं यह सोचता हूँ कि क्या मेरी पहली पंक्ति पर भड़के हुए लोगों की चेतना क्या अब जगी होगी और उन्होंने यह स्वीकार किया होगा कि हां हम वैचारिक और सांस्कृतिक रूप से पराधीन हैं! लेकिन इस पिछड़ेपन और पराधीनता के पीछे कुछ कारण भी हैं। अंग्रेजी और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव अब देश पर इतना गहरा पड़ चुका है कि इसके बिना चलना दूभर है,रोजगार तो इसके बिना मिलने से रहा तो फिर पढ़ना अनिवार्यता है और इसके अंतर्गत ढलना हमारी मजबूरी। राजनैतिक लाभ लेना इसका अन्य कारण है। दिन प्रतिदिन संगणक पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है।अतिशीघ्र इसमें बदलाव भी नहीं हो सकता। देश के प्रधानमंत्री का इस क्षेत्र में प्रयास अच्छा रहा है लेकिन केवल प्रधानमंत्री का विदेशों में जाकर हिंदी बोलना यह प्रमाण नहीं देता की हिंदी नया स्थान प्राप्त कर पाने में सक्षम हो गयी है। जब तक हम स्वयं से एक बदलाव नहीं करेंगे, अपनी मानसिकता में एक परिवर्तन नहीं लाएंगे, स्वयं से हिंदी का सम्मान करना शुरू नहीं करेंगे, अपनी संस्कृति को पुनर्जीवित करने की शुरुआत नहीं करेंगे तब तक ऐसे कितने लेख लिखे और पढ़े जाएंगे लेकिन स्थिति ज्यों की ज्यों बनी रहेगी। हमें जरूरत है एक बदलाव करने की जिस से अंग्रेजी की प्रधानता कम हो पाश्चात्य संस्कृति से हम आगे निकले और भारतीय संस्कृति का विकास हो। हम हमेशा यह सोचते हैं कि अंग्रेजी इतनी विकसित है और इसने लगभग पूरे विश्व को स्वयं के ऊपर निर्भर किया है लेकिन हम कभी भी यह नहीं सोचते कि इसने यह स्थान कैसे और क्यों पाया है। जनसंख्या की दृष्टि में हम दूसरे स्थान पर हैं अगर एक छोटा सा प्रयास करें तो हिंदी तुरन्त ही प्रथम स्थान पर आ सकती है।आवश्यकता है हिंदी को, भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए एक प्रयास करने की जो शायद हमें एक साथ मिल कर करना होगा।
जय हिंद, जय हिंदी, जय हिंदुस्तान!

 

 

 

 

 

अंकित कुमार

 

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