ज्ञान भंडार

‘हलमा’ से पर्यावरण बचाने की जद्दोजहद

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सरिता अरगरे

देश के दस राज्य इन दिनों भीषण सूखे से जूझ रहे हैं। महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल में लोग पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे हैं। जलसंकट ने क्षेत्र की आर्थिक ही नहीं, सामाजिक व्यवस्था को भी छिन्न-भिन्न कर दिया है। गंभीर सूखे पर मीडिया में खूब लिखा जा रहा है। लेकिन ये हालात एकाएक नहीं बने हैं। संकट की आहट तो बहुत पहले से थी। बहरहाल आदिम और असभ्य कहे जाने वाले जनसमुदाय ने झाबुआ में अपनी कल्पनाशक्ति, दृढ़ इच्छा और संकल्प से वो कर दिखाया है, जिसे सरकारें सालोंसाल लम्बे-चौड़े बजट और बड़े भारी अमले के बावजूद हकीकत के धरातल पर नहीं उतार पाती हैं। दिलचस्प बात है कि जिस वक्त ग्लोबल वार्मिंग और क्लाइमेट चेंज को लेकर राजधानी भोपाल में विद्वानों का विचार मंथन चल रहा था, ठीक उसी समय हलमा के लिए देशभर में लोगों को न्योता भेजा जा रहा था। दुनिया भर में जब पर्यावरण सुरक्षा की चिंता सिर्फ बंद वातानुकूलित कक्षों में होने वाली ‘कार्यशालाओं’ तक सिमट कर रह गई है, तब उससे उलट झाबुआ की धरती पर पर्यावरण बचाने के लिए जमीनी काम ‘हलमा’ के जरिए हो रहा है।
प्रदेश के आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के हाथीपावा की पहाड़ी पर बीते दिनों पुरानी परंपरा की नई शुरुआत हुई। इस परम्परा को यहां पुनर्जीवित करने की कोशिश स्थानीय समाज ने की। इसी हलमा को जल संरक्षण का आधार बनाया गया है। झाबुआ जिले में, जहाँ जंगल तेजी से खत्म हुए हैं, प्राकृतिक संपदा को बेदर्दी से लूटा गया है, वहीं हलमा के जरिए पहाड़ों में फिर जान डालने की कोशिश की जा रही है। इस बंजर पहाड़ी पर 14 एवं 15 मार्च 2016 को इकट्ठा हुए आदिवासी समुदाय के हजारों लोगों के परिश्रम ने अगले मानसून में आसमान से बरसने वाली अमृत की एक-एक बूंद को सहेज लेने का पर्याप्त इंतजाम कर लिया है। युवाओं ही नहीं बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं ने भी वर्षा जल को धरती के आँचल में समेटने की मुहिम में बढ़-चढ़ कर अपना योगदान दिया। देखते ही देखते हाथीपावा की पहाड़ी पर श्रम की गंगा बहा कर महज चार घंटे में करीब तीन हजार रनिंग वाटर कंटूर और दो छोटी तलैयों को आकार दे दिया। इससे वर्षा के दौरान पानी इन जल संरचनाओं में संग्रहित होकर जमीन में उतरेगा।
halama_1दरअसल, हलमा भीली बोली का शब्द है, जिसका मतलब होता है- ‘सामूहिक श्रमदान’। हलमा यानी एक-दूसरे के साथ मिल कर श्रमदान करना। यहाँ 2008 से 2014 तक भी इसी तरह हलमा किया जाता रहा है। हलमा आदिवासियों की पीढ़ियों पुरानी परम्परा है। इसमें पानी और प्रकृति से सम्बन्धित कामों के लिये श्रमदान किया जाता है। इसके लिए हजारों लोग एकजुट होते हैं और कुछ ही घंटों में काम पूरा कर देते हैं। इस सामाजिक परम्परा में पैसे की कोई भूमिका नहीं होती है। बस इतनी सी शर्त होती है कि जब उन्हें कोई काम होगा तो वे भी इसी तरह श्रमदान कर मदद करेंगे। आदिवासी क्षेत्रों में हर साल मानसून से पहले ये लोग इसी तरह बारिश की मनुहार में जुटते हैं। अंचल के कई गाँवों में हलमा के जरिए हुए पानी सहेजने के दर्जनों कामों को देखा जा सकता है। झाबुआ अपनी एक आदिवासी परंपरा से विश्व को एक रास्ता बताने को तैयार है। श्रम के विनिमय और सहजीवन के सिद्धांत पर आधारित हलमा, मुसीबतजदा लोगों को भँवर से निकालने का नायाब तरीका है। संकट से निकलने के जब सभी प्रयास विफल हो जाते हैं, तब समाज को हलमा के लिए आमंत्रित किया जाता है। तब सभी लोग मिल-जुल कर उसे हलमा कर संकट से उबार लेते हैं। हलमा में आदिवासी समाज शादी-विवाह, खेती-किसानी और ऐसे अन्य मौकों पर एक-दूसरे की मदद करता है। इस परंपरा के तहत हर परिवार से एक वयस्क मदद के लिए आगे आता है। यह गाँव की सामुदायिक सोच का अनुपम उदाहरण है। किसी किसान को आज बुआई के लिए जरूरत है, पूरा गाँव उसका साथ देने को आगे आ जाएगा। इसी तरह अगले दिन किसी और की बारी होगी। इस तरह यह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक जीवन बनता है और यह समाज आगे बढ़ता है।
आयोजन से एक दिन पहले ही उत्साह से लबरेज लोग गैंती-फावड़ा लेकर झाबुआ पहुंचने लगे थे। जिले भर के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आदिवासी अपने पूरे परिवार के साथ यहां जुट चुके थे। इन्होंने झाबुआ शहर में कंधे पर गैंती रख कर करीब दो किमी लम्बी गैंती यात्रा भी निकाली। हाथीपावा पहाड़ी पर यह विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। सब की आँखों में हरी-भरी पहाड़ी का सपना झिलमिला रहा था। जुनून ऐसा कि गैंती-फावड़े भी खुद अपने घरों से लेकर आये। औरतें भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। वे भी तगारी उठाए चल पड़ीं साथ-साथ। एक साथ हजारों आदिवासियों को अपने घर से लाए गैंती-फावड़ों के साथ मेहनत करते बरसाती पानी सहेजने के लिए पसीना बहाते देखना सुखद आश्चर्य से भर देता है। युवा मांदल की थाप पर थिरकते नजर आए। यात्रा के समापन पर वक्ताओं ने कहा कि सैनिक की बन्दूक और किसान की गैंती एक जैसी होती है। सैनिक इससे देश की रक्षा करता है, तो किसान देशवासियों की क्षुधा शान्त करता है।
उम्र के बंधन से बेपरवाह समाज हित के इस काम में बच्चे, बूढ़े और जवान अपना भरपूर योगदान देते नजर आए। एक बंजर पहाड़ी को हरा-भरा बना देने की जिद में छह हजार से ज्यादा आदिवासियों ने कुछ ही घंटों में पहाड़ी की तस्वीर ही बदल डाली। हाथीपावा की पहाड़ी को हरा-भरा करने का इरादा लिए हजारों हाथों ने महज पांच घंटों में ही 15 हजार से ज्यादा जल संरचनाएं (कंटूर-ट्रेंच) बना दीं। इतना ही नहीं, तीन साल पहले बनी 25 हजार जल संरचनाओं की सफाई भी की गई। दो से तीन साल पहले बनी इन संरचनाओं में मिट्टी भर चुकी थी। इस वजह से इनका अपेक्षित फायदा नहीं मिल पा रहा था। वह भी बिना एक पैसा खर्च किए। इससे हर साल बारिश का करीब 40 करोड़ लीटर पानी जमीन की रगों तक पहुंच सकेगा। इतना पानी करीब 50 लाख से ज्यादा लोगों की एक दिन की जरूरत पूरी कर सकता है। गौर करने वाली बात है कि अगर सरकार इस काम को करवाती, तो कम-से-कम दस लाख रुपए खर्च होते। मानसून से पहले बारिश की ऐसी मनुहार कहीं देखी है भला आपने। यहां एक बार फिर आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचम्भित कर दिया। पानी के लिए पसीना बहाते इन लोगों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था। हलमा में लगे फत्या सिंह का कहना है कि उनकी प्रेरणा एक सामाजिक संस्था है, लेकिन ये खुद भी जल और जंगल का महत्व समझते हैं। इसलिए वे धरती मां को हरा-भरा करने के लिए पानी को रोक रहे हैं। अगली बारिश में यह पहाड़ी हरी-भरी हो सकेगी, वहीं बड़ी मात्रा में पानी गहरे उतर कर धरती माँ को तृप्त कर सकेगा।
halama_2अब इस बंजर पहाड़ी पर पचास हजार से ज्यादा जल संरचनाएं (कंटूर-ट्रेंच) बरसाती पानी सहेजने के लिये तैयार हो चुकी हैं। कड़े परिश्रम के बाद इंतजार है तो बस मानसून का। इलाके के लोग खासे उत्साहित हैं कि बारिश का पानी इस साल से व्यर्थ नहीं बहेगा। इन छोटी-छोटी संरचनाओं में रुकने वाला पानी जमीन में आसानी से उतर सकेगा। भूजल स्तर भी सुधरेगा और तपिश से भी राहत मिलेगी। जिले में फिलहाल जल स्तर काफी नीचे चला गया है। गर्मी आते ही हर साल जल संकट गहराने लगता है। पानी बचाने के इस पुनीत कार्य को अंजाम देने आईं ग्रामीण महिलाओं और पुरुषों ने बड़े उत्साह से बताया कि वे शिवजी के हलमा के लिए आए हैं और यहां हाथीपावा पहाड़ी पर जाकर पानी बचाने का काम करेंगे। उनसे पूछा गया कि तुम मजदूरी छोड़ कर आए हो, यहां कितना पैसा मिलेगा, तो उन्होंने अपनी भाषा में कहा- ‘हम तो यहां धरम का काम करने आए हैं।’
आदिवासी आपस में अपने यहां गांवों में तो यह करते ही रहते हैं पर यहाँ शहर के लोगों की मदद करने के लिए वे जुटे हैं। वे बताते हैं कि पानी चाहे शहर का बचे या गाँव का, आखिरकार पानी तो धरती का ही है। किताबी ज्ञान रखने वाले शहरी लोगों की निगाह में भले ही ये लोग अनपढ़ हों, मगर पर्यावरण, प्रकृति की गहरी समझ और धरती, अंबर, पशु-पक्षियों की जुबान समझने में इनका कोई सानी नहीं है। वे कहते हैं, ‘हम धरती से पानी तो उलीचते रहते हैं, पर धरती में भेजते कहाँ हैं? पहले जंगल हुआ करते थे, नदी-नाले थे और पेड़ों की जड़ों व नदी नालों से पानी अन्दर जाया करता था। अब खंतियाँ खोद कर हम पानी को धरती में रंजाना चाहते हैं। धरती की रक्षा करना है। इसीलिए यह मेहनत कर रहे हैं। धरती रहेगी और इसमें पानी रहेगा तो ही हम रह सकते हैं। इसके बिना हमारा क्या मोल।’
श्रमदान करने यहां पहुंची भूरीबाई कहती हैं कि गंगा को सूखी धरती पर लाने के लिए शंकर भगवान ने अपनी जटाएं बिखेर दी थीं और गंगा उसमें आयीं और धरती पर बहने लगीं। इसी तरह अब भी बारिश का पानी तो बहुत बरसता है पर हम उसे सहेज कहाँ पाते हैं। उसे सहेजने और व्यर्थ बहने से बचाने के लिए हमें शिव बाबा की जटाओं की तरह धरती पर पानी रोकने का जतन करना पड़ेगा। हंसते हुए भूरीबाई उसके द्वारा बनाई कंटूर ट्रेंच दिखाते हुए बताती हैं कि देखो यह बन गई शिव बाबा की जटा।
पिछड़े कहे जाने वाले आदिवासी समाज के जीवन में हलमा तब से महक रहा है, जब आज की तरह आजीविका का आधार आर्थिक मुद्रा नहीं हो पाई थी। यह अलग बात है कि वक्त के साथ जब बाकी दुनिया का इन लोगों से संपर्क बन रहा है और उसके प्रभाव से आदिवासी समाज और इनकी परम्परायें नहीं बच पाई हैं, तब हलमा और ऐसी कई परम्परायें दम तोड़ रही हैं। आमतौर पर आदिवासियों को कम पढ़ा-लिखा या अनपढ़ मान कर हम उन्हें सीख देने की बात करते हैं लेकिन हलमा जैसी सामुदायिक पहल करने वाले इस समाज से तो हम सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी सीखने की जरूरत है। कितनी अनुकरणीय है, जनजातीय समाज की हलमा परम्परा। ’

इजराइल से सीखने की जरूरत
israelकई साल पहले इजराइल में सूखा पड़ा। तब देश में घरों में अधिक पानी के उपयोग पर भारी कर लगा दिया गया। जिन घरों में लॉन था, उन पर जुर्माना लगाया जाने लगा। समूचे देश में लोगों से कहा गया कि वे अपने शॉवर टाइम में दो मिनट की कटौती करें। कारों को हौजपाइस से धोने पर रोक लगा दी गई। जो लोग पैसे देकर अधिक पानी खरीद कर एक लॉन को हराभरा रख सकते थे, उन्हें भी केवल रात में ही पानी दिया जाता। आंशिक भूमध्यसागरीय और आंशिक रेगिस्तानी जलवायु के कारण इजराइल को दशकों तक अपने कुदरती जल संसाधनों के शोषण और स्थायी कमी से जूझना पड़ा है। एक औसत वर्ष में इजराइल के पास प्राकृतिक ताजे पानी की उपलब्धता पूरी नहीं होती है जो कि मोटे तौर पर उपयोग के तौर पर 525 बिलियन गैलन है। इस वर्ष जहां पेयजल की जरूरत 317 बिलियन गैलन है जो कि वर्ष 2030 तक 515 बिलियन गैलन तक बढ़ जाएगी। यह बदलाव सात वर्ष के सूखे के बाद आया जो कि आधुनिक इजराइल को प्रभावित करने वाला सबसे अधिक भीषण था। यह सूखा वर्ष 2005 में शुरू हुआ और वर्ष 2008-09 की सर्दियों तक अपने चरम पर रहा।
उस समय देश के सबसे प्रमुख प्राकृतिक जल स्रोत-उत्तर में गैलिली का समुद्र, और पर्वत और समुद्रतटीय जलीय चट्टानी परतें बुरी तरह से सूख गए थे। इस स्थिति से यह खतरा पैदा हो गया था कि जल की गुणवत्ता के क्षरण को संभावित तौर पर फिर कभी न बदला जा सकेगा। पर आपूर्ति की बढ़ोत्तरी के उपाय किए गए और मांग को कम करने को बढ़ाया गया और यह सब वाटर अथॉरिटी की देखरेख में किया गया जोकि एक ताकतवर अंतरमंत्रालय एजेंसी है जिसे 2007 में स्थापित किया गया था। इस दौरान सरकार के प्रयासों का केन्द्रबिंदु पानी से लवण को दूर करना था। इसके लिए पिछले एक दशक में चार बड़े संयंत्र चालू किए गए। पांचवां कुछेक महीनों में ही संचालित होने के लिए तैयार हो जाएगा। ये सभी मिलकर एक वर्ष में 130 बिलियन गैलन पेयजल का उत्पादन करेंगे जबकि देश का लक्ष्य है कि वर्ष 2020 तक 200 बिलियन गैलन का उत्पादन हो।
इस बीच इजराइल कृषि के लिए वेस्टवाटर को फिर से उपयोगी बनाने और रिसाइकिलिंग में विश्व का सिरमौर बन गया। यह घरेलू वेस्टवाटर का 86 फीसदी भाग ट्रीट करता है और इसे कृषि के लिए उपयोग के लिए रिसाइकल करता है। यह कुल कृषि के लिए उपयोग होने वाले पानी का करीब 55 फीसदी है। इस मामले में स्पेन दूसरे नंबर पर है और यह वेस्टवाटर का 17 फीसदी भाग रिसाइकल करता है जबकि वाटर अथॉरिटी डाटा के अनुसार अमेरिका केवल एक प्रतिशत गंदा पानी रिसाइकल करता है। वाटर अथॉरिटी की स्थापना से पहले जल संबंधी मुद्दे के विभिन्न पहलुओं के लिए विभिन्न मंत्रालय जिम्मेदार थे। जिसको लेकर प्रत्येक का अपना हित था और जिसकी अपनी लॉबी थी। वाटर अथॉरिटी के प्रतिनिधियों ने घर-घर जाकर शॉवर हैड्स और टैप्स पर ऐसे उपकरण मुफ्त में लगाए जो कि वाटर सिस्टम में हवा भर देते थे। इससे करीब एक तिहाई पानी की बचत होती थी लेकिन लोगों को लगता था कि पानी का फ्लो अधिक तेज हो गया है। अधिकारियों का कहना है कि पानी के बुद्धिमतापूर्ण उपयोग से हाल के वर्षों में घरेलू उपयोग में 18 फीसदी तक की कमी आई है। सिटी पाइप नेटवक्र्स की देखभाल के लिए म्युनिसिपल अधिकारियों को जिम्मेदार बनाए जाने की बजाय स्थानीय निगमों की स्थापना की गई। पानी के लिए जमा की गई रकम को बुनियादी सुविधाओं में निवेश किया गया। ’

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