दस्तक-विशेषसाहित्य

जवाब

निश्रुति पर मानों इस समय कोई वज्रपात हुआ हो। हाय ईश्वर! इसलिए ये रोज़ मुझे टालता रहा। बन्द कमरे में जो भी हुआ उससे तो वो आहत थी ही। पर लोग उसे क्या समझ रहे होंगे इसकी कल्पना कर के उसका हृदय काँप उठा। विभाग से बाहर आई तो पैर काँप रहे थे। पैदल चलने की हिम्मत नहीं थी। एक रिक्शे पर जा बैठी। पर जाना कहां है ये कैसे बता पाये।

-निधि श्री”

सर..सर मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ.. सर देखिये.. सर मैं ये सब नहीं कर सकती।’ श्रुति ने पीछे हटने की एक नाकाम कोशिश की।
शिक्षा के महान केंद्र के महान विभाग का केबिन नं 04। वैसे तो ये कमरा वरिष्ठ प्रो. चमन लाल चौबे का है। बहुत सी भाषाओं के प्रकांड विद्वान हैं। कई व्याख्यानों के लिए अमरीका भी जा चुके हैं। चौबे जी की एक बेटी है। विलायत पढ़ रही है। पत्नी घर में ही रहती है। धर्म कर्म वाले आदमी हैं।
चौबे जी ने व्यंग का एक बाण छोड़ा-‘अरे बेटा!तुम्हें कहाँ कुछ कह रहा हूँ। मैं कर रहा हूँ न जो करना है। क्यों? तुम इतने नखरे क्यों करती हो?’
‘सर.मैं आपके पैर पड़ती हूँ.. मेरी उम्र की आपकी बेटी है सर!’
‘देखो मैं तुम्हें पहले भी कह चुका हूँ। फ़ालतू बातें मत किया करो। देखो श्रुति इसमें तुम्हारा फायदा ही फायदा है। तुम अभी बी.ए में हो। फिर एम.ए करोगी। फिर रिसर्च। यहाँ बिना सोर्स के कुछ नहीं होगा। मक्खी मारती रह जाओगी।’ फिर एकाएक जैसे उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ हो। ज़रा प्यार से बोले-
‘मैं तुमसे बहुत स्नेह करता हूँ। तुम तो मेरी ही बिरादरी की हो। मुझसे जितना बन पड़ेगा तुम्हारे लिए करूँगा। और बदले में ज़्यादा कुछ मांग भी तो नहीं रहा तुमसे।’
श्रुति के मुँह से एक शब्द न निकला। गला रुंध गया था। पैर काँप रहे थे। देह गर्म थी। उसे बुखार आ गया था। आँखें नीची किये सर झुकाये वो चुप चाप खड़ी थी। न जाने क्यों चौबे जी उसे इस दशा में देखकर मन ही मन खुश हो रहे थे। ‘अरे मेरी बच्ची! तुम सोंच लो। जी भर के समय लो। मैं तुमसे ज़बरदस्ती नहीं कर रहा।’ फिर थोड़ा रुककर हंसते हुए बोले-“आखिर ज़बरदस्ती में वो मज़ा कहां जो रज़ामंदी में है।’
श्रुति आँखें न उठा सकी। इस वक़्त उसे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे किसी ने उसे निवस्त्र कर भरे बाजार में छोड़ दिया हो। एक हाथ से अपना बैग और दूसरे हाथ से अपना दुपट्टा पकडे़ वो खड़ी ज़मीन की ओर ताकती रही। चौबे जी उस के इर्द गिर्द घूम रहे थे। किसी ना किसी बहाने उससे टकरा जाते या फिर सर पर हाथ फेरते हुए उनके हाथ अपने आप ही उसके कन्धों और पीठ को सहलाने लगते। पर-पुरुष के स्पर्श से कितनी घृणा होती है उसे उस वक्त मालूम हुआ।
श्रुति मौखिकी के लिए समय पर उपस्थित नहीं हो पायी थी। तो चौबे जी ने उसे केबिन में बुलाया। पिछले एक हफ्ते से उसे रोज़ बुलाते हैं। पर आज तक मौखिकी नहीं हुई। उन्होंने कह दिया है तुम मौखिकी दो न दो, कक्षाएं करो न करो तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। श्रुति कह कह के थक गयी कि ‘सर मैंने श्लोक याद किये हैं आप ज़रा पूछें तो’ पर चौबे जी ने मौखिकी लेने में कोई विशेष रूचि न दिखायी। उससे उसके घर परिवार आदि की जानकारी लेते, रोज़ इधर उधर की बातें करते और फिर अगले दिन आने को कह देते। कहते अगले दिन मौखिकी होगी पर अगला दिन कभी न आता। ऐसा कर के उन्हें बहुत मज़ा आता था।
जाते-जाते उन्होंने श्रुति को धमकाया-‘बाहर जा के कोई तिकड़म न लगाना लड़की। याद है न अभी मौखिकी नहीं हुई। और वैसे भी एक हफ्ते से तू मेरे केबिन में आती है। देखने वाले भी खूब समझते हैं।’
श्रुति पर मानों इस समय कोई वज्रपात हुआ हो। हाय ईश्वर! इसलिए ये रोज़ मुझे टालता रहा। बन्द कमरे में जो भी हुआ उससे तो वो आहत थी ही। पर लोग उसे क्या समझ रहे होंगे इसकी कल्पना कर के उसका हृदय काँप उठा।
विभाग से बाहर आई तो पैर काँप रहे थे। पैदल चलने की हिम्मत नहीं थी। एक रिक्शे पर जा बैठी। पर जाना कहां है ये कैसे बता पाये। आवाज़ मानों गले में अटक गई थी। बड़ी देर लगी रिक्शे वाले को हॉस्टल का नाम बताने में।
हॉस्टल आयी तो ना किसी से बोली ना किसी की बात का जवाब दिया। कमरे में जा कर रजाई से मुँह ढंक लिया। चौबे हर आधे घंटे में फोन करता था। धमकियां देता,डराता। रात को 11 बजे फिर फोन आया। श्रुति भीतर तक कांप उठी। तेज़ बुखार से उसकी देह तप रही थी। उसने खुद को आईने में देखा तो फिर से वो घृणित स्पर्श याद आ गया। फूट फूट कर रोने लगी थी वो। एकाएक उठी, सामने टेबल पर रखे चाकू को उठाकर अपनी कलाई पर सटा लिया। पर अगले ही क्षण जैसे बहुत गंभीर हो गयी। चाकू वापस रख दिया। उस रात उसकी आँखों से जैसे नींद गायब हो गयी थी। उसे सुबह होने का इंतज़ार था। सात बजते बजते उसने खुद चौबे को फोन मिलाया।
‘सर आप कब मिलेंगे?’ चौबे अपनी जीत पर फूला न समाया।‘अ.. श्रुति तुम दो बजे आओ बच्चा।’
ठीक दो बजे श्रुति ने चौबे का दरवाजा खटखटाया। ‘आओ श्रुति! तुम्हारा ही इंतज़ार था।’
श्रुति अंदर जा कर उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी। चौबे ने उठकर दरवाज़े के पर्दे ठीक किये।
‘मैं जानता था कि तुम मान जाओगी। वैसे भी हॉस्टल की लड़कियों को तो इन चीज़ों की लत लग जाती है। तुम कुँआरी तो होगी नहीं मुझे पता है। कोई बॉयफ्रेंड तो होगा ही?’
श्रुति ने इसका कोई जवाब न दिया। बस एकटक उसे देखती रही।
चौबे अपनी जगह से उठकर उसके पास आ चुका था।
‘खैर छोड़ो! तुम नहीं बताना चाहती न सही। हाँ तो तुम्हें ये बता रहा था कि मौखिकी के नम्बर की चिंता मत करना। और परीक्षा में भी तुम्हें अव्वल करवा दूंगा। कल रविवार है। देखो यहां शहर में रिस्क है। काफ़ी लोग जानते हैं यहां। मैंने सारनाथ में एक कमरा बुक करा लिया है.. तुम्हें हॉस्टल से पिक अप…’
चटाक!!
इससे पहले चौबे अपनी बात पूरी कह पाता श्रुति ने उसके मुँह पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया और उठकर कमरे से बाहर निकल गयी।
(-निधि श्री”,  छात्रा- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)

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