दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

भारत के 1980-95 तक की राजनीति की एक झलक

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग -2

सन् 80 मे श्रीमती इंदिरा गांधी के सत्तासीन होने और श्री संजय गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद श्री राजीव गांधी कांग्रेस पार्टी मे सक्रिय किये गये। श्रीमती इंदिरा गांधी के समय के पहले अगर कांग्रेस का चरित्र महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरु की कांग्रेस का था तो इंदिरा जी के उदय के बाद कांग्रेस विभाजन 1969 के बाद कांग्रेस सत्ता कांग्रेस बन गई।

दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह बदलकर गाय बछड़ा चुनाव चिन्ह हो चुका था। जिसका कई लोग अपने ढंग से अर्थ लगाते थे। श्री संजय गांधी के आने के बाद अब कांग्रेस का चरित्र सत्ता कांग्रेस से बदलकर लूम्पेन कांग्रेस का हो गया। वही चरित्र लगभग आठ नौ वर्ष बाद श्री राजीव गांधी के नेतृत्व मे बदलकर सफारी कांग्रेस हो गया। कांग्रेस दफ्तर मे वातावरण इसी अनुसार बदलता गया। 84 के बाद मे तो श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री बन गये।देश की अर्थव्यवस्था मे आयात-निर्यात मे खुली छूट के लिये नीतियों मे बदलाव लाया गया। फलतः आयात बढ़ा, निर्यात घटा। 

अर्थव्यवस्था मे विदेशी ताकतों के प्रवेश को आसान बनाया जाने लगा। छोटे, और घरेलू क्षेत्र मे उत्पादन के लिये आरक्षित रखने के नियमों को ढीला किया जाने लगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन के रास्ते मे जो अवरोध थे उन्हें वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के पक्ष मे आसान बनाया जाने लगा।

उसी बीच 1980, 85, 89 और 90 मे लोकसभा, विधानसभा चुनावों मे जातिवाद, संप्रदायवाद ने गहरी पैठ बना ली। वंशवाद जोर मारने लगा। राजनेताओं की संतान रिश्तेदारो मे अपने अभिभावक को जिताने, बूथ कैप्चरिंग के लिये अपराधियों की मदद ले रहे थे। शराब, पैसा बांटने का काम कर रहे थे, उनमे भी चुनाव लड़ने की हबिस लग गई। जो अपराधी पहले पैसा लेकर बूथ मैनेज करते थे, खौफ फैलाते थे, अब उन्हें लगा कि वे ही क्यों न चुनाव लड़ लें।

नेता पुत्र किशोरावस्था से ही बूथ मैनेज करने मे जुटते थे। अब उनमे खुद प्रत्याशी बनने की चाह ज्वलंत हो गई। घर मे दबाव बनाने लगे। बाहुबली का सदनों मे इस कालखंड मे सर्वाधिक प्रवेश हुआ। उन्हे कोई भी दल स्वीकार्य था। दलों को भी चुनाव-जीतना आवश्यक और महत्वपूर्ण लगने लगा। इसलिये टिकाऊ की जगह जिताऊ उम्मीदवार की पूछ बढ़ गई।

अब सत्ता राजनीति में बाहुबली स्थापित हुए, वंशवाद का चलन अब स्वीकृत हो गया। उसके बाद ये बातें अटपटी लगना बंद हो गई। सभी दल इसमें सन गये। वामपंथी दल भी इसमे अछूते नही रहे। फिर भी उनकी उम्मीदवार तय करने की पद्धति उनके कुछ काम आई। उनके कार्यकर्ता अपराधी बनने लगे और अपराधी भी कार्यकर्ता बनने लगे। पर उम्मीदवारी के लिये कार्यकर्ता होने की अनिवार्यता कुछ मात्रा मे बनी रही।

सन् 80 के पहले समाजवाद मुख्य धारा थी। सभी अपने को एक किस्म का समाजवादी बताकर गौरवान्वित अनुभव करते थे। सन् 80 के बाद श्री राजीव गांधी के राजनीति मे पहले और बाद मे सत्ता मे आने के बाद देश की गाड़ी समाजवाद की पटरी से हट कर बाजारवाद की दिशा मे मुड़ चुकी थी। कोका कोला, पेप्सी, कोलगेट का बाजार फ़ैल चुका था।

स्थानिक ब्रांड आदि को बाजार से बाहर किया जाने लगा। अब बाजारवाद ने वाद के नाते समाजवाद को खारिज करना शुरू किया।  इस बीच सरकारवाद से बाजारवाद की दिशा के कारण संभ्रम और उथल-पुथल भी मची। सन् 80 के श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन मे वापसी के बाद राजनैतिक पैंतरेबाजी के तहत उन्होंने उदार हिन्दुत्व का दामन पकड़ा। इसे सिख भावनाओं के खिलाफ उपयोग भी किया।

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