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भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति (सन 1980-2020) : एक विहंगावलोकन

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-2

उसी प्रकार की बात विदेश व्यापार के नियमों के बारे मे भी अनुभव मे आती है। शोषण के लिये उपयोगी नियमों को इस प्रकार प्रस्तुत करना मानो वह सब अत्यंत पाक साफ़ नीयत से किया जा रहा है, नैतिकता, संवेदनशीलता के साथ किया जा रहा है। गरीब देशों के हित में ही किया जा रहा है। इन सब पैंतरेबाजी को समझ मे न आने देना, ऐसी शैली अपनाना यह बाजारवाद के पुरोधाओं की महारत है।

हम पालक साग के निर्यात का उदाहरण लें। भारत मे उपजे पालक का यूरोपीय देशों में निर्यात होता है। यूरोप के लोग पालक के साग को मुख्यतः हरा रंग उत्पन्न करने में इस्तेमाल करते हैं। वे ठंढे मुल्क है। पानी वहां इफरात हैं। भारत मे पानी की कमी है। किफायत से इस्तेमाल करने की यहाँ परंपरा है। भारत मे वर्ष भर मे अधिक से अधिक 100 दिन पानी बरसता है वह भी प्रतिदिन 1 घंटे के हिसाब से 100 घंटे वर्षा होती है। उसी मे वर्ष भर का काम चलता है। पेयजल, स्नानजल, गृह उपयोगी जल, सिंचाई जल, के बाद ही ऊर्जा, उद्योग निमित्त जल की प्राथमिकता होनी चाहिये। यूरोप के लिये जल उतना मूल्यवान नही है जितना भारतीय इन्तजामात के लिये। 1 किलो पालक उगाने मे मान लीजिये 10 लि. पानी लगता है। भारत के बाजार मे मौसम के समय एक किलो पालक 10रु. में मिलता है। निर्यात 20 के हो जाय तो किसान को लगता है उसे 10 अतिरिक्त लाभ हुआ। पर वह साथ मे 10 लि. पानी(जो भारत के लिये कीमती वस्तु है) को 2रु. प्रति लिटर जोड़कर 40 या 50 किलो के दाम से पालक के निर्यात की व्यवस्था हो, तब कुछ व्यापारिक न्याय हुआ ऐसा माना जा सकता है। पर यह समझ-समझाने मे सत्ता और समाज दोनों के उपकरण कम पड़ें। उदाहरणों से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि लाभ-हानि का सही बैलेंसशीट पहले बनना था।

नियम बनने थे। मूल्य निर्धारण होना था। उसके बाद एक्सिम पालिसी को अमलीजामा पहनाया जाना था। पर उदारीकरण की चमक से चौधियाकर घोड़े के आगे गाड़ी जोत दी गई।
इसका खामियाजा सामान्य उत्पादक के खाते मे आया। उदारीकरण के प्रभाव, परिणाम के बारे में केरल के नारियल उत्पादकों के व्यापारी संगठन के लोगों से बात हुई।

उनका कहना था कि पहले बाजार मे 4 नारियल बेचने से जो काम चलता था वह अब 16 नारियल बेचने से काम चलता है। क्योंकि मलेशिया से ऑयल का आयात होने लगा है। और वियतनाम से आये नारियल बेहतर हैं और उनका ज्यादा दाम भी मिल रहा है। देसी-नारियल की मांग बेहद घट गई है। इसलिये किसान फिर केले और धान की फसल पर जोर देने लगे हैं। पाम ऑयल सस्ता बिक रहा है। उसके आयात पर प्रतिबंध करने से केरल के वे गरीब नाराज हो रहे हैं। उस नाराजगी मे कई सामाजिक, आर्थिक और नैतिक सवालों को उभार दिया गया है। उसके पीछे बाजारवादी पूंजी और प्रचार की पलटन लगाई गई है।

फिर यह भी पता चला की नारियल को भारत में ऑयल सीड माना जाता है तदनुसार व्यापार के नियम है, शोध क्रिया आदि है। वियतनाम ने 1970 से ही नारियल के बारे में समग्र सोच रखी, शोध किये, नारियल के सभी अंगों के बारे में नवाचार किये, बाजार तैयार किये, वैल्यू-एडिशन किया। कई सुधार किये। जबकि भारत की प्रादेशिक और केंद्र सरकारें यथास्थितिवादी रह गई।

दुनिया मे हो रहे बदलाव की परवाह नही की। हम अपने नारियल के क्षेत्र मे पिछड़ गये। तिलहन, दलहन की उपज घटी। घाटे से निपटने के लिये एक फसली खेती, नकदी फसल की खेती की तरफ मुड़ गये। किसान कभी बाजार की मार और कभी मानसून की मार के शिकार होते गये है। देश के कुछ क्षेत्रो मे इस मकड़जाल मे फंसकर किसान आत्महत्याओं की दुस्थिति नजर आने लगी।

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