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भारत की आर्थिक और सामाजिक स्थिति (सन 1980-2020) : एक विहंगावलोकन

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-1

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति और संयुक्त राष्ट्र संघ आदि वैश्विक संगठनों के बाद ही सरकारवाद, जिसे रूस, चीन मार्का सरकारी पूँजीवाद भी कहा जा सकता है, और बाजारवाद की नवउपनिवेशवादी पैंतरे जोर पकड़ने लगे थे। भारत में उदारीकरण 1980-81 में सामने आया। और उसका पक्का रूप आर्थिक सुधारों के रूप मे 1991 में सामने आया। नई आर्थिक नीति सामने आई। LPG ने गति पकड़ी।

भारत की चेतना ने स्वदेशी जागरण मंच सरीखे अनेक मंचों, संगठनों, समूहों के माध्यम से विदेशी आर्थिक ताकतों, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनैतिक सोच का प्रबल विरोध किया। पर सरकार के सक्रीय सहयोग और अपनी धनबल की ताकत के प्रयोग से वातावरण को उन्होंने अपने पक्ष मे करने का प्रभावी प्रयास किये।

उपभोगवाद को हवा दी गई। लाइसेंस परमिट राज का मानो समाधान है ऐसा चित्रित करने की कोशिश की गई। सरकारी पूंजीवाद के उत्तर के नाते बाजारवाद को प्रस्तुत किया गया। उसके द्वारा होने वाले शोषण, कुपरिणामों को प्रचार माध्यमों, विज्ञापनों की चमक-दमक का सहारा लेकर छिपाया गया।

सामान्य जन की इच्छाओं का दमन सरकारी पूंजीवाद के दौरान हुआ ही था। क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रभाव तो आजादी के बाद ही दिखने लगा था। कुछ चुनिन्दा उद्योग घरानों को सत्ताधारियों ने लाभान्वित किया था। पर 91 के बाद के बाजारवादी आक्रामकता ने प्रचार माध्यमों का भरपूर सहारा लिया। सोच को प्रभावित किया। सतही लाभों को प्रचारित किया गया। देश की आर्थिक ताकत की पहलुओं की उपेक्षा की गई। पूंजी और प्रचार के माध्यम से निर्णय स्थानों को प्रभावित किया गया। होने वाले नुकसान को कम करके बताया गया। देश की आर्थिक प्राथमिकता में भारी उलट-फेर हुई।

1991 से यह दौर 2020 तक लगभग अबाधित रूप से छिटपुट विरोध के बीच चला है। सामान्य जन के सामने क्या खोया? क्या पाया? का हिसाब नही हो सका। इस सन्दर्भ में कुछ अनुभव प्रासंगिक है। 1993 की बात है। बैंगलोर में स्व.जा.मंच के कार्यकर्ता स्वदेशी, विदेशी सामानों की सूची लेकर घर-घर संपर्क कार्य में लगे थे। एक घर के लोगों ने LPG (Liberalisation, Privatisation, Globalisation) की प्रशंसा करते हुए कहा कि पहले महाबलेश्वर की स्ट्रॉबेरी को हम सर्वश्रेष्ठ मानते थे अब उदारीकरण की बदौलत उससे भी अच्छे स्ट्रॉबेरी बाजार में अब मिल रहे है।

केवल 3-4 कारों मे से चुनने की मज़बूरी थी। अब तो चाहे जितने ब्राण्ड उपलब्ध हैं। वे सरकारवाद का देश भुगते हुए थे। वे बाजारवाद को उसका समाधान मानकर समर्थन कर रहे थे। उससे होने वाले भारी नुकसान से वे अनभिज्ञ थे, गाफिल भी थे। बाजारवाद ने पूंजी और प्रचार की मार्फ़त इस सन्दर्भ मे सामान्य जन के विवेक को कुन्द कर दिया था। यह वैसा ही है।

जैसे बिल्ली के लिए गृहिणी ने एक कटोरी मे दूध रखा था। साथ ही पीठ पीछे कपड़ा पीटने का मोंगरे (एक तरह का डंडा) को छिपाये थी। बिल्ली को दूध की कटोरी तो दिख रही थी लेकिन वह मोंगरे की मार की आशंका से अनभिज्ञ थी। यही कथानक बाजारवादी छल के बारे मे भी लागू होता है। इस पर बहुत साहित्य सामने आ चुका है।

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