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हिन्दी-चीनी नाहीं नाहीं

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: ‘हिन्दी-चीनी भाई भाई’ का नारा जब कभी भी हवा में लहराता है तो सबसे पहले दो मुकाम दिमाग में घूम जाते हैं। एक तो वह जब 1950 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह नारा ईजाद किया था और इसे आसमान पर गुंजाया था और दूसरे तब जब 17 सितम्बर 2014 को वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गॉधीनगर में चीनी समकक्ष जी पिंग और उनकी पत्नी को अपने बगल में बिठाकर झूला झुलाया था।

दोनों ही नेताओं ने अपने अंतरंग सम्बंध प्रदर्शित करने और चीन से दोस्ती को गहरा करने की ख्वाइश से यह सब किया था पर चीन के राजनीतिक कोश में ऐसे सम्बंधों के लिए कोई जगह कभी रही ही नहीं। सो नेहरू जी के शासनकाल में 12 साल बाद ही भारत-चीन युद्ध छिड़ गया और भारत को बहुत बुरी हार झेलनी पड़ी थी। और अब 6 साल बाद गलवान घाटी में लड़ाई छिड़ गई और भारत के 20 जवान मारे गए।

वर्ष 1950 से शुरू होकर हिन्दी-चीनी भाई भाई केवल बातों तक ही सीमित रह गया। वास्तव में इस नारे को सुन सुन कर लोगों के कान पक गए। 1950 के बाद 1962 में, फिर 1967 अरौर 1987 में सीमा पर तेज झड़पें हुईं थीं।  2014 में बी0बी0सी0 ने एक जनमत संग्रह किया तो भारत के केवल 23 प्रतिशत लोगों ने भारत और चीन की दोस्ती को सकारात्मक नजरिए से देखा था। 47 प्रतिशत का रवैया नकारात्मक था। तो भी यह उल्लेखनीय बात थी कि 2014 में ही जीपिंग के भारत दौरे के समय चीन ने गुजरात में औद्योगिक पार्क की स्थापना के लिए कई अरब की एक योजना पर हस्ताक्षर किए थे।

चीन के अब तक के सबसे बड़े नेता माओत्से तुंग ने एक बार कहा था कि तिब्बत हमारी हथेली है जबकि लद्दाख, नेपाल, भूटान, सिक्किम और अरुणांचल प्रदेश हमारी 5 उंगलियॉ हैं। उन्होंने कहा था कि हथेली तो हमने ले ली है, अब उंगलियों को आजाद कराना है।

बहुत साल बाद पिछले साल भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में इसका जवाब दिया जब उन्होंने कहा कि अक्सायी चीन हमारा है। यह चीन ही है जिसने नेपाल से हमारी दुश्मनी कराने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। चीन से भारत ने बहुत दोस्ती गांठने की कोशिश की मगर हकीकत यह है कि अजहर मसूद के मामले में उसने संयुक्त राष्ट्र में भारत का कभी साथ नहीं दिया।

ऐसी ही दोस्ती मोदी जी ने अमेरिकी राष्ट्रपति से करने की कोशिशें पिछले दिनों की हैं- खासतौर पर तब जब वे अमेरिका के दौरे पर गए और उन्होंने ट्रंंप को अपने मंच पर बुलाकर उनके समर्थन में नारे लगवाए। वास्तविकता यह है कि जितनी प्रगाढ़ दोस्ती भारत के साथ रूस ने समय-समय पर निभाई है, उतनी किसी ने नहीं निभाई। भारत-पाक युद्ध के समय अमेरिका ने जब पाकिस्तान का साथ देने के लिए अपना सातवॉ बेड़ा अरब सागर में उतार दिया था, उस समय रूस के समर्थन का संबल ही भारत को मिला था।

चीन ने सीमा पर भले ही पूरी वफादारी के साथ दोस्ती न निभाई हो, उसने पिछले कुछ वर्षों में मार्केट में भारत से गहरी यारी कायम कर ली है। छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा सामान चीन से भारत आयात होता है। भारतीय बाजारों में चीन से आयायित इलैक्टनिक्स, प्लास्टिक के सामान, खिलौने, कपड़े, किचिन का सामान, फर्नीचर, जूते, हैण्ड बैग, प्रसाधन सामग्री, गिफ्ट का सामान, घडिय़ॉ, ज्वैलरी, मोबाइल फोन, स्टेशनरी, कागज, स्वास्थ्य सम्बंधी सामान, दवाइयॉ, ऑटो और कम्प्यूटर के पाट्र्स भरे पड़े हैं।

भारत कभी यदि चीनी सामान के बहिष्कार का अभियान चलाए भी तो उसे लागू करने में बहुत दिक्कतें आएंगी क्योंकि यह सामान हमारे बाजारों के और हमारे समाज के अंग अंग में समाया हुआ है। वह पूजा घर, किचिन, खाद्य पदार्थों और यहॉ तक कि बाथरूमों में घुसा पड़ा है। यहॉ तक कि रक्षा सम्बंधी सामान तक चीन से आयात होता है। चीन से बुलट-प्रूफ जैकेट का आयात हो ही रहा है।

चीन से 2018-19 में आयात 68 प्रतिशत सामान का हुआ जबकि निर्यात मात्र 16.34 प्रतिशत का। घाटा था 51.72 प्रतिशत का। 2019-20 में चीन से आयात हुआ लगभग 58 खरब डालर मूल्य के सामान का जबकि अमेरिका से हुआ सिर्फ 30.5 खरब डालर का जो क्रमश: 14.37 और 7.57 प्रतिशत था। तात्पर्य यह कि जितना सामान अमेरिका से आयात होकर आया, उससे लगभग दोगुना चीनी से आया। जितना सामान भारत चीन भेजता है , उससे सात गुना वह वहॉ से आयात करता है।

अखिल भारतीय ट्रेडर्स का महासंघ बताता है कि कितना भारी आयात चीन से हो रहा है। उसका कहना है कि अभी हम 5.25 लाख करोड़ का सामान चीन से आयात करते हैं और जल्दी ही एक लाख करोड़ का आयात कम करेंगे। भारत सरकार ने चीन से व्यापारिक सम्बंधों में कटौती की अच्छी शुरुआत की है। रेलवे और टेलिकाम सेक्टर से विभिन्न ठेके रद्द किए जाने का ऐलान किया गया है।

और अंत में, कभी-कभी भगवान से पूछने का
मन करता है कि अगर, मास्क ही पहनना था
तो मुझे इतना सुंदर, क्यों बनाया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व सूचना आयुक्त हैं।)

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