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अफगानिस्तान में युद्ध विराम के बावजूद अब तक 500 से ज़्यादा लोगों की मौत

विवेक ओझा

अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र मिशन कार्यालय की रिपोर्ट में खुलासा 

नई दिल्ली: 27 अप्रैल को अफ़ग़ानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन की जारी की गई ताज़ा रिपोर्ट में अफ़ग़ानिस्तान में साल 2020 के पहले तीन महीनों में हिंसा और संघर्ष के चलते 533 मौतें होने की पुष्टि की गई है जिनमें 150 से अधिक बच्चे भी शामिल थे। रिपोर्ट के मुताबिक अफ़ग़ान सरकार विरोधी तत्वों तालिबान, इस्लामिक स्टेट खोरासान प्रोविंस (आईएसकेपी) और अन्य 282 मौतों (53 प्रतिशत) की वजह बने जबकि सरकार समर्थक बल 198 (37 प्रतिशत) मौतों के लिए जिम्मेदार थे। रिपोर्ट में देश में कोविड-19 महामारी के बढ़ते ख़तरे के बीच सभी पक्षों से आम लोगों को हिंसा के दंश से बचाने के लिए ज़्यादा प्रयास करने की ज़रूरत पर बल दिया गया है। रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है कि लंबे समय से जारी हिंसा अब भी आम नागरिकों के लिए गहरी पीड़ा का सबब बनी हुई है।

सरकार समर्थित सुरक्षा बलों के कारण 412 लोग (198 मौतें, 214 घायल) हताहत हुए जबकि शेष मामलों के लिए अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बलों व अन्य हथियारबंद गुटों को ज़िम्मेदार बताया गया है। हिंसा से महिलाएँ और बच्चे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं और इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। यूएन मिशन के मुताबिक 1 जनवरी से 31 मार्च 2020 तक 417 बच्चे हताहत हुए (152 मौतें, 265 घायल) और 168 महिलाएँ (60 मौतें, 108 घायल) हताहत हुईं हैं। मार्च 2020 में हिंसा का स्तर बढ़ने के बावजूद इस वर्ष की पहली तिमाही में हताहत होने वाले आम नागरिकों की कुल संख्या में वर्ष 2019 की पहली तिमाही के मुक़ाबले 29 फ़ीसदी की कमी आई है। वर्ष 2012 के बाद यह पहली बार है किसी साल की पहली तिमाही में हताहतों का ऑंकड़ा सबसे कम है।

फ़रवरी माह 2020 में ही हुआ था अमेरिका तालिबान के बीच ऐतिहासिक समझौता:

17 महीनों की वार्ता के बाद औपचारिक रूप से 29 फरवरी, 2020 को अमेरिका और तालिबान के बीच एक ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया गया था। हार्ट ऑफ एशिया कहे जाने वाले अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक, सामरिक भविष्य की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण घटना है। इस समझौते में अमेरिका ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि तालिबान ने समझौते के अनुसार शांति बहाली में सहयोग किया तो अमेरिका अपने सहयोगियों के साथ 14 माह के भीतर अपनी पूरी सेना अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकाल लेगा। इस समझौते में ‘हिंसा में कमी लाने वाले’ एक सप्ताह के आंशिक युद्ध/हिंसा विराम की शर्त तालिबान के समक्ष रखी गई है। यदि एक सप्ताह तक तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में कोई हिंसक आतंकी गतिविधि नहीं देखी जाती है तो इससे तालिबान की शांति बहाली के प्रति प्रतिबद्धता का मापन अमेरिका कर सकेगा।

इस समझौते की एक अन्य खास बात यह भी है कि इसमें अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और तालिबान तथा साथ ही अफ़ग़ानिस्तान के सशस्त्र जनजातीय समूहों के मध्य पहली बार अंतरा- अफ़ग़ान वार्ता करने पर बल दिया है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि अभी तक तालिबान लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित अफ़ग़ान सरकार से किसी भी प्रकार की बात चीत के लिए तैयार नहीं था। तालिबान अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अभी तक एक खास स्वायत्तता, प्रभुत्व और एकाधिकार की भावना से ग्रसित रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की तालिबान की मंशा कई अवसरों पर प्रकट होती रही है। तालिबान को लगता है कि वो अफ़ग़ान इस्लामिक राष्ट्र के सच्चे हितों का सच्चा प्रहरी है और अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक संस्कृति को दूषित ना होने देना उसकी जिम्मेदारी है। जबकि 2007 में पाकिस्तान के स्वात घाटी में मलाला यूसुफजई को गोली मारकर तालिबानियों ने अपनी इस्लामिक प्रगतिशीलता पहले ही दिखा रखी है।

फ़रवरी समझौते के मुख्य बिंदु:

तालिबान और अमेरिका शांति समझौते, 2020 में कहा गया है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में वर्तमान के अपने 13000 सैनिकों की संख्या में कमी कर उसे 8500 करेगा। इस समझौते में तालिबान ने अपनी इच्छा सामने रखते हुए कहा है कि अफ़ग़ान शासित जेलों में बंद 5000 तालिबान लड़ाकों को रिहा किया जाय। लेकिन यह निश्चित नहीं है कि अफ़ग़ान सरकार इस पर सहमत होगी या नहीं। इसे ऐतिहासिक समझौता इसलिए माना जा रहा है क्योंकि तालिबान पिछले वर्ष अमेरिका और नाटो सेना के खिलाफ कट्टर दृष्टिकोण अपनाए हुए था। 29 जुलाई, 2019 को कतर में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने तालिबान का रुख साफ करते हुए कहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की टुकड़ी के अपने देश वापस लौटने के ऐलान के बाद ही अफगान सरकार के साथ वार्ता शुरू होगी। उल्लेखनीय है कि भारत भी पहली बार पर्यवेक्षक के रूप में इस शांति वार्ता बैठक में मौजूद था। कतर में भारत के राजदूत पी कुमारन ने इसमें भारत का प्रतिनिधित्व किया। भारत ने इस समझौते के संदर्भ में अफ़ग़ान नेतृत्व वाले समाधान पर जोर दिया। भारत ने पिछले 18 वर्षों से अफ़ग़ानिस्तान में विकासात्मक परियोजनाओं में भारी पैमाने पर निवेश किया है।

पूर्व के वर्षों में तालिबान वार्ता:

जुलाई, 2019 में तालिबान के सुर्खियों में रहने की वजह को नवम्बर, 2018 में तालिबान से वार्ता के लिए रूस द्वारा मास्को बैठक के प्रस्ताव के संदर्भ में देखा जा सकता है। रूस के विदेश मंत्री सर्जेइ लावरोव ने अफगानिस्तान पर दूसरी मास्को बैठक की शुरुआत करते हुए कहा था कि रूस और अन्य सभी प्रमुख देश अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच वार्ता स्थापित करने के लिए सभी संभव प्रयास करेंगे।

गौरतलब है कि तालिबान रूस में प्रतिबंधित है। भारत के अलावा मॉस्को की बैठक में अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और कुछ मध्य एशियाई देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। भारत ने इस तालिबान वार्ता बैठक में अनौपचारिक तरीके से भाग लिया था। अफगानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत अमर सिन्हा और पाकिस्तान में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त टी.सी.ए. राघवन द्वारा 9 नवंबर, 2018 को गैर आधिकारिक स्तर पर तालिबान संग मंच साझा करने पर भारत को सफाई भी देनी पड़ी थी। 1999 में IC-814 विमान हाईजैक करने के बाद ऐसा पहली बार है जब भारत सरकार के प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से तालिबान से मिले हो।

गौरतलब है कि कतर में तालिबान की राजनीतिक परिषद के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास के नेतृत्व में पांच सदस्यीय तालिबान प्रतिनिधिमंडल ने इस बैठक में भाग लिया था। इसी क्रम में 7-8 जुलाई, 2019 को कतर की राजधानी में अमेरिका तालिबान वार्ता को लेकर दोहा समझौता संपन्न किया गया है। इसमें मास्को वार्ता के बिंदुओं पर सहमति जताकर रूस के हित का भी मान रखा गया है। इसके साथ ही अमेरिका तालिबान से निर्णायक वार्ता 1 सितंबर, 2019 तक कर लेना चाहता है ताकि अमेरिकी और नाटो फौजों की वहां से वापसी का मार्ग प्रशस्त हो सके।

तालिबान से वार्ता की व्यग्रता में महाशक्तियों की बीजिंग में 10-11 जुलाई को अफगान शांति प्रक्रिया पर हुई बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर अपने सामरिक महत्व को दर्शाते हुए बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में इस बात पर जोर दिया कि वार्ता अफगान- नेतृत्व और अफगान स्वामित्व वाली सुरक्षा प्रणाली के विकास को लेकर होनी चाहिए और जितनी जल्दी हो सके शांति का कार्यढांचा प्रदान करने वाली होनी चाहिए। बीजिंग में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर हुई बैठक में अपेक्षा की गई है कि अफगानिस्तान में पीस एजेंडा व्यवस्थित, जिम्मेदारीपूर्ण और सुरक्षा स्थानांतरण की गारंटी देने वाला होना चाहिए। इसके साथ ही इसमें भविष्य के लिए समावेशी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा व्यापक प्रबंध होना चाहिए जो सभी अफगानों को स्वीकार्य हो।

इस बैठक में अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने प्रासंगिक पक्षों से शांति के इस अवसर का लाभ उठाने और तत्काल तालिबान, अफगानिस्तान सरकार और अन्य अफगानों के बीच अंतर-अफगान बातचीत शुरू करने को कहा है। चीन ने पहली बार माना है कि उसने बीजिंग बैठक में अफगानिस्तान तालिबान के मुख्य शांति वार्ताकार मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को अपने देश में आमंत्रित किया। बरादर और चीनी अधिकारियों के बीच अफगानिस्तान में शांति बहाली और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के मुद्दे पर व्यापक बातचीत हुई। गौरतलब है कि बरादर ने चार अन्य नेताओं के साथ मिलकर 1994 में तालिबान का गठन किया था। पाकिस्तान सरकार ने पिछले साल ही बरादर को जेल से रिहा किया था। मुल्ला बरादर को तालिबान के सर्वोच्च नेता मुल्ला उमर के बाद सबसे प्रभावशाली नेता माना जाता था। तालिबान की मुख्य मांग है कि अफगानिस्तान से विदेशी सुरक्षा बल बाहर चले जाएं। तालिबान से उसकी इस मांग के बदले में यह सुनिश्चित करने को कहा जा रहा है कि वह अफगानिस्तान की धरती को आतंकवादियों के अड्डे के रूप में इस्तेमाल नहीं होने दिया जाएगा।

ऐसा माना जा रहा था कि चीन अफगानिस्तान-पाकिस्तान में सुलह कराना चाहता है। दोनों ही शंघाई सहयोग संगठन के भाग हैं और दोनों चीन के सामरिक हितों के लिए जरूरी हैं। इसके अलावा चीन के शिंजियांग प्रांत से प्रशासन की ज्यादतियों से भागकर उईगर मुसलमान अफगानिस्तान में शरण ले रहे हैं। वहां चीन के खिलाफ आवाज उठ रही है। इसको दबाना भी चीन की रणनीति है, इसलिए वह अफगानिस्तान शांति वार्ता में अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका की तलाश में सक्रिय हुआ है।

भारत का दृष्टिकोण:

भारत ने अफगानिस्तान में विकासात्मक परियोजनाएं चला के उसका डेवलपमेंट पार्टनर बनना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। आतंकवाद के भुक्तभोगी भारत के इस पक्ष को ग़लत नहीं ठहराया जा सकता। भारत ने अफगानिस्तान में 4 बिलियन डॉलर से अधिक का विकास निवेश किया है। अफगान संसद का पुनर्निर्माण, सलमा बाध का निर्माण, जरंज डेलारम सड़क निर्माण, गारलैंड राजमार्ग के निर्माण में सहयोग, बामियान से बंदर ए अब्बास तक सड़क निर्माण, काबुल क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण, चार मिग 25 अटैक हेलीकॉप्टर दिए हैं। अफगान प्रतिरक्षा बलों को भारत सुरक्षा मामलों में प्रशिक्षण भी दे रहा है। चबाहार और तापी जैसी परियोजनाओं से दोनों जुड़े हुए हैं। भारत ने अफगानिस्तान में सैन्य अभियानों में किसी तरह की संलग्नता ना रखने की नीति बनाई ताकि वह हक्कानी नेटवर्क, आइसिस खोरासान, तहरीक—ए—तालिबान जैसे संगठनों का प्रत्यक्ष रूप से निशाना ना बन जाए जैसा कि आज अमेरिका और नाटो के साथ है। ऐसे में यह सवाल पूछना बड़ा आसान है कि आखिर भारत ने किया ही क्या है अफगानिस्तान के प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए। यहां यह भी सच है कि भारत अफगानिस्तान में प्रतिरक्षा के मामलों में अपनी और प्रोएक्टिव भूमिका निभा सकता था और निभा सकता है। वह आधुनिक प्रतिरक्षा उपकरणों हथियारों को देकर अफगान सुरक्षा बलों को और मजबूती दे सकता है, भले ही वहां अपनी सेना ना भेजे।

एक ऐसे समय में जब अफगानिस्तान से नाटो फौजों की वापसी का दबाव बन रहा है, ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि नाटो फौजों के हटने के बाद तालिबानी कट्टरपंथ का शिकार अफगानिस्तान फिर से नहीं बन जाएगा, इस बात की गारंटी कौन लेगा, क्या खुद अफगानिस्तान या फिर भारत या खुद तालिबान। ऐसे में एक ऐसा प्रयास किया जा रहा है कि तालिबान से वार्ता कर, उसे समझा बुझाकर, अफगानिस्तान में शांति के बने रहने का वायदा लेकर ही फौजें वहां से बाहर निकलें तो ज्यादा बेहतर होगा। डी- रेडिकलाइजेशन के लिए उपाय तो करने ही होंगे भले ही उनका परिणाम चाहे जो निकले। पाकिस्तान को अपनी पाखंडी नीति को ख़त्म कर गुड तालिबान और बैड तालिबान के फर्क को खत्म करना होगा। जो तालिबान पाकिस्तान को उसके मकसद में मददगार साबित होता है उसे वह गुड तालिबान और जो तालिबान उसके खिलाफ हमले करता है उसे बैड तालिबान कहता है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान का इस मुद्दे पर ठोस गठजोड़ ही तालिबान पर नकेल कसने में कारगर साबित होगा।

(लेखक अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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