स्वास्थ्य

उन्नत एआरटी तकनीकों से बढ़ी आईवीएफ की सफलता दर 

लखनऊ: इनफर्टिलिटी की समस्या दुनिया भर में बढ़ रही है। भारत में लगभग 10-12 प्रतिशत ऐसे शादीशुदा जोड़े हैं, जो स्वाभाविक रूप से गर्भधारण न हो पाने की समस्या से जूझ रहे हैं। उनमें से, मात्र 1 प्रतिशत जोड़ों ने गर्भधारण हेतु आईवीएफ (इन – विट्रो फर्टिलाइजेशन) या इनफर्टिलिटी के अन्य उपचारों का सहारा लिया है। हालांकि गर्भधारण हेतु असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी (एआरटी) का उपयोग बढ़ा है। दुनिया के पहले आईवीएफ शिशु के जन्म के बाद से 40 वर्षों में, दुनिया भर में 8 मिलियन से अधिक आईवीएफ शिशु पैदा हो चुके हैं।

नोवा इवी फर्टिलिटी, लखनऊ की डॉ. सईदा वसीम ने कहा कि  आईवीएफ सामान्य रूप से सर्वाधिक उपयोग की जाने वाली एआरटी तकनीक है। इस उपचार के जरिए अंडाणु पैदा करने हेतु अंडाशयों को उत्तेजित किया जाता है, अंडाशयों से अंडाणुओं को निकाला जाता है (एग रिट्राइवल), स्वस्थ शुक्राणुओं का चयन किया जाता है, प्रयोगशाला में अंडाणुओं और शुक्राणुओं का सामान्य तरीके से निषेचन कराया जाता है और उसके बाद, निषेचन के परिणामस्वरूप बने भ्रूण को गर्भाशय में डाला जाता है (एंब्रायो ट्रांसफर या ईटी)।

आईवीएफ का परामर्श उन मरीजों को दिया जाता है, जिनकी फैलोपियन ट्यूब्स अवरूद्ध या क्षतिग्रस्त हो गयी है अथवा जिनकी फैलोपियन ट्यूब्स हटा दी गयी है, जिन महिलाओं को अण्डोत्सर्ग संबंधी विकार है, या जिन्हें प्रीमैच्योर ओवेरियन फेल्योर, यूटेरियन फाइब्रॉयड्स, अकारण इनफर्टिलिटी आदि की समस्या है। इसका परामर्श उन पुरूषों को भी दिया जाता है, जिनकी शुक्राणुओं की संख्या या गतिशीलता घट गई है। चूंके इसके कई कारण है, इसलिए दो अलग-अलग मरीजों के लिए उपचार का तरीका कभी भी एक जैसा नहीं होगा। इनफर्टिलिटी के शिकार कुछ कपल्स के लिए दवा या आईयूआई (इंट्रायूटेराइन इंसेमिनेशन) जैसे आसान उपचारों से गर्भधारण संभव है, जबकि अन्य कपल्स को आईवीएफ या आईसीएसआई (इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजेक्शन) के कई चक्र जरूरी हो सकते हैं।’’

50 प्रतिशत की औसत सफलता दर के साथ, ऐसे कई लोग हैं जो आईवीएफ के सफल न होने पर निराश हो जाते हैं। दुनिया के अच्छे-से-अच्छे क्लिनिक्स में 3 से अधिक आईवीएफ चक्रों के बाद सफलता दर 90 प्रतिशत है। इसीलिए, कपल्स के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे सकारात्मक सोच एवं उम्मीद के साथ उपचार जारी रखें। आईवीएफ की विफलता के कारणों या संभावित कारणो जैसे उम्र, अंडाणु या शुक्राणु की गुणवत्ता, गर्भाशय का स्वास्थ्य आदि का पता लगाने या समझ पाने से इस तरीके से उपचार की योजना बनाने में मदद मिलती है, जिससे उस समस्या का हल हो जाये और सफलता की अधिक संभावना हो। आईवीएफ चक्र की विफलता के ज्ञात कारण यहां दिये गये हैं। आईवीएफ चक्र की सफलता में अंडाणुओं की गुणवत्ता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। महिला की उम्र के साथ उनके अंडाणुओं की गुणवत्ता बिगड़ती जाती है। 35 वर्ष के बाद, महिला का ओवेरियन रिजर्व तेजी से घटता जाता है। आरोपण (इंप्लांटेशन) विफलता का कारण  गर्भाशय का स्वास्थ्य और भ्रूण की गुणवत्ता कुछ भी हो सकता है।

डॉ. सईदा वसीम ने कहा, ‘‘पहले आईवीएफ शिशु, लुइस ब्राउन के जन्म के 40 वर्षों बाद, एआरटी ने प्रत्येक इनफर्टाइल कपल के लिए उपयुक्त उपचार विकल्प तलाशने में सहायता हेतु अनेक समाधान विकसित कर लिया है। वैयक्तिकृत दवा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते चलन के साथ, आईवीएफ ने वैयक्तिकृत प्रोटोकॉल्स की आवश्यकताओं में वृद्धि देखी है, जैसे उपयुक्त उपचार हेतु पर्सनलाइज्ड एंब्रायो ट्रांसफर (चम्ज्) और वैयक्तिकृत ओवेरियन स्टिम्युलेशन। ब्लास्टोसिस्ट कल्चर, मैग्नेटिक एक्टिवेटेड सेल सॉर्टिंग्स (एमएसीएस) जैसी तकनीकों और प्रीइंप्लांटेशन जेनेटिक स्क्रीनिंग (पीजीएस), प्रीइंप्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस (पजीडी) और एंडोमेट्रियल रिसेप्टिव एर्रे (ईआरए) जैसे रिप्रोडक्टिव जेनेटिक्स से आईवीएफ की सफलता दर को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाने में मदद मिली है।’’

कपल्स में बार-बार गर्भपात के 10 प्रतिशत मामलें आनुवांशिक कारकों के चलते होते हैं। क्रोमोसोम्स की गलत संख्या वाले भ्रूण इंप्लांट नहीं हो पाते या गर्भधारण की पहली तिमाही के दौरान गर्भपात हो जाता है। रिप्रोडक्टिव जेनेटिक्स से भ्रूणों को छांटने और इंप्लांटेशन के स्वस्थ भ्रूण का चयन करने में मदद मिलती है। पीजीएस से आईवीएफ चक्र के दौरान भ्रूणों में क्रोमोसोम संबंधी असामान्यताओं का पता लगाने में मदद मिलती है। पीजीएस का उपयोग सभी 24 प्रकार के क्रोमोसोम्स का विश्लेषण किया जाता है, ताकि असुगुणित (एन्युप्लॉइडिज) (क्रोमोसोम की संख्या में परिवर्तन) की पहचान की जा सके, जो कि गर्भपात और इंप्लांटेशन की बार-बार विफलता के प्रमुख कारण हैं।

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