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जब गंगा-जमुना में उठ रही कर्तव्य और रिश्ते के बीच की भंवर में फंसे दिलीप कुमार और उनके सगे भाई नासिर ख़ान

मनीष ओझा

दिल रोता है चेहरा हँसता रहता है
कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है।।

मुबंई: अख्तर आज़ाद की ये शायरी तब-तब प्रासंगिक हो जाती है जब-जब इंसान कर्तव्य और रिश्तों के धर्मसंकट में फंसता है। ईमान से जीने वाले इंसान के जीवन की सबसे मुश्किल घड़ी तब होती है जब उसके समक्ष अपने कर्तव्य और अपने श्रद्धेय में से किसी एक को चुनने की विवश्ता आ जाये।

गंगा सभी मुश्किल हालातों का सामना करते हुए भी छोटे भाई जमुना को ऑफ़िसर बनाने के सपने देखता है। उसे पढ़ने के लिए बाहर भेजता है। जमुना भी मन लगाकर पढ़ता है और एक दिन पुलिस ऑफ़िसर बन जाता है। जमुना कहाँ जानता है कि वह जो बनने जा रहा है, वही उसका बनना, उसके बनने का सबसे ज़्यादा इंतज़ार करने वाले गंगा के अंत का आरंभ है।

जमुना को कौन बताए भला कि जब गंगा मेहनत मजदूरी कर उसे बाबू साहब बनाने के सपने पाल रहा था तब गंगा के सामने दुष्चरित्रों ने ऐसे हालात खड़े कर दिए थे कि सदा हंसने मुस्कराने वाला गंगा अब बंदूक उठाकर बागी बन चुका है और इलाके में उसके फैले हुए खौफ़ से निज़ात पाने के लिए ही जमुना को गोण्डा जनपद के घोघरा घाट निकट हरिपुर थाने में तैनात किया जा रहा है।

बड़ी भीषण असमंजस सी स्थिति बनी हुई है। एक तरफ़ बड़ा भाई गंगा उधर से गुजरने वाली ट्रेन को लूटने की योजना बना रहा है तो वहीं दूसरी ओर छोटा भाई जमुना पढ़-लिखकर पुलिस अफसर बन चुका है और अपने आला अफ़सर से कर्तव्यपरायणता की बारीकियां सीख रहा है, साथ ही साथ शपथ ले रहा है कर्तव्य के मार्ग पर डटे रहने का। जमुना अपनी तैनाती को लेकर उत्साह से भरा हुआ है और गंगा भरा है रेलगाड़ी लूटने की दुस्साहसिक कल्पनाओं व साथी डाकुओं की हौसलाअफज़ाई से।

दर्शकों के दिमाग की हलचल अब उनके समस्त शरीर को अस्थिर कर रही है। फ़िल्म के ये दोनों मुख्य पात्र आने वाली स्थितियों से बेख़बर हैं किंतु दर्शक सब भांप चुका है वह तो इस उहापोह में मरा जा रहा है कि जब दोनों भाई टकराएंगे तो स्थिति क्या होगी।

दर्शकों ने अपने मन में निर्णय भी कर लिया है कि बड़े भाई गंगा का सामना करते हुए छोटे भाई जमुना को अपने कर्त्तव्य पथ का त्यागकर बड़े भाई को सरकारी सरपरस्ती दे देनी चाहिए। गंगा के बड़े एहसान हैं जो जमुना पर। दर्शक कदापि नहीं चाहेगा कि जमुना कर्तव्य परायणता के फ़ेरे में पड़कर पारिवारिक सिद्धांतों को तोड़ मरोड़ डाले और एहसान फ़रामोशी की मिसाल पेश करते हुए अपने बड़े भाई को किंचित मात्र भी हानि पहुंचाए क्योंकि ऐसा करने पर इन दर्शकों ने रामायण के विभीषण को आज तक माफ़ न किया है।

गलती दर्शक दीर्घा की भी नहीं है। इसका कारण तो समाज में बुन चुका ताना बाना है। इस समाज में यही तो होता है कि “सइयां भये कोतवाल अब डर काहे का “। यही तो करते हैं लोग जब कोई एक ओहदे को सम्हालता है तो दूजा उस ओहदे से उपजे भौकाल को अपने कर्मपथ पर शामिल कर दूसरों पर हेकड़ी गाँठता है। दर्शकों ने सदियों से यही तो देखा है तो इससे इतर चाहें भी तो कैसे ? उन्हें चाह ही नहीं लगभग यक़ीन भी है कि जमुना अपने भाई गंगा को एक डकैत के रूप में कभी नहीं देखेगा किंतु इस बात को लेकर पूर्ण आस्वस्त नहीं है बल्कि उन्हें एक डर है। डर ! क्योंकि दर्शक जमुना की ईमानदारी को भी जानता है और गंगा की खुद्दारी को भी। वो जानता है ये दोनों यदि टकराये तो दोनों में से कोई अपने रास्ते से क़दम पीछे नहीं खींचेगा और तब अनर्थ होगा -अनर्थ।

जमुना रेल गाड़ी में सवार होकर हरिपुर के लिए निकल चुका है। उधर गंगा घोड़े पे सवार रेल गाड़ी आने का इंतज़ार कर रहा है। विधिना का खेल तो देखो ! जिस गाड़ी को लूटा जाना है , सुरक्षा करने वाला भी उसी गाड़ी का सवार है। अब क्या होगा ! रेल गाड़ी ने जंगल में प्रवेश करते ही आवाज़ लगाई । गंगा का डकैत साथी ज़ोर से चिल्लाया ‘आ गयी रे !’

गंगा ने घोड़े को दौड़ा दिया। गंगा घोड़े पे दौड़ रहा है , जमुना रेल गाड़ी में, और उसी गति से शरीर के अंदर दर्शकों का हृदय स्पंदन भी दौड़ रहा है। रेल चिल्ला रही अनर्थ के हो जाने की आशंका पर , दर्शक चीख रहे हैं भाई भाई के संग्राम छिड़ जाने की संभावना पर। गाड़ी अपनी रफ्तार में है घोड़ा भी दौड़ में पूरी ताकत झोंक चुका है। खटर खटर गाड़ी लौह पथ पर दौड़ रही है , घोड़ा भी ठीक किनारे चौकड़ी भरे हुए है। बस गंगा लपकर अंदर हो जाना चाहता है। हवा के झोकों का दबाव इतना प्रबल है कि रेल डिब्बे का हत्था ज्यों गंगा के हाथ आना चाहता है त्यों कुछ आघात सा मालूम पड़ता है और गंगा हाथ नहीं लपका पाता। पिक्चर पटल पर एक झिलमिलाहट सी तैर जाती है।

अब गंगा घोड़े को छोड़कर गाड़ी में चढ़ चुका है। उधर गाड़ी में अफरा तफ़री मच जाती है। जमुना अपनी बंदूक उठा लेता है। बाहर दौड़ते डाकुओं को देखकर यात्रियों की सुरक्षा का मोर्चा सम्हाल लेता है। गंगा के दो साथी जमुना की गोली से गिरा दिए जाते हैं। चिल्लाहट होती है ‘भाग गंगा ! गाड़ी म पुलिस है रे।’ गंगा तो साथी की आवाज़ सुन लेता है ।

वह रेलगाड़ी से कूदकर भागता है लेकिन जमुना उस डकैत का ‘गंगा’ संबोधन नहीं सुन पाता क्योंकि एक तो गाड़ी की आवाज़ जंगल को चीरती सी लग रही है। दूसरा वो कभी ख़याल भी नहीं कर सकता कि उसका पालनहार इस रूप में भी हो सकता है। जमुना बंदूक तान देता है। दर्शक मना करते हैं , चिल्लाकर बता देना चाहते हैं “मत मार ! तेरा भाई है वो” लेकिन जमुना भाई के इस रूप के कल्पना से भी दूर है। वह तो इस डकैत को अभी ढेर कर देना चाहता है। गंगा घोड़े पे भाग रहा है जमुना उस पर निशाना साध रहा है।

बार-बार बृक्ष गंगा को बचाने अवरोध बनकर सामने आ जाते हैं लेकिन अब निशाना सीधा है, मैदान साफ़ है, जमुना एक गोली उस डकैत के पीठ में घुसा देता है जो उसके पुलिसिया रुतबे को ललकार रहा था। दर्शक ‘धत्त तेरी कि’ कहकर अपनी बढ़ी हुई सांस थामकर आगे की लीला देखना चाहते हैं।

चूंकि दोनों भाई में मुठभेड़ तो हो गयी लेकिन अभी तक सिर्फ़ पुलिस और डकैत के रूप में। अभी तो दो भाइयों के रूप में आमना सामना होना शेष बचा है। इसका अर्थ ये कि जमुना के कर्तव्य विमुख होकर बड़े भाई के सम्मान को ज़िंदा रखने की संभावना अभी कुछ न कुछ बाक़ी है । इसी उम्मीद से दर्शक अगले दृश्य का आनंद लेने को तैयार है।

उपरोक्त वर्णित दृश्य है साल 1961 में आयी दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला और दिलीपकुमार के सगे भाई नासिर ख़ान के अभिनय से सुसज्जित फ़िल्म ‘गंगा – जमुना’ का। नितिन बोष द्वारा निर्देशित गंगा जमुना अपने ज़माने की शानदार फ़िल्म थी। इस कहानी के लेखक स्वयं दिलीप कुमार थे। यह फ़िल्म अवधी मिश्रित हिन्दी में बनाई गई थी।

इसके भावपूर्ण संवाद लिखे थे वज़ाहत मिर्ज़ा ने और यही वजह रही कि फ़िल्म में बोली गयी अवधी शैली शुद्धता के उच्चतम शिखर पर रही। कहीं एक प्रतिष्ठित समाचार कंपनी की साइट पर मैंने पढ़ा था कि दिलीप साहब ने गंगा जमुना में भोजपुरी भाषा शैली में संवाद अदा किया था। उस लेख को लिखने वाले के पास बिल्कुल जानकारी का अभाव है।

सही तथ्य ये है कि फ़िल्म गंगा-जमुना का लोकेशन अवधी भाषा भाषी क्षेत्र दर्शाया गया है और दिलीप कुमार वैजयंतीमाला समेत कई अन्य कलाकारों ने शानदार अवधी संवाद अदायगी कर इस फ़िल्म को संबल प्रदान किया है। इसी फ़िल्म में जब गंगा (दिलीप कुमार ) , धन्नो (वैजन्ती माला ) को किसी बात पर एक थप्पड़ मार देता है और अगले ही दृश्य में प्यार जताने की कोशिश करता है। तब धन्नो मासूम सा चेहरा बनाकर नखरे दिखाते हुए कहती है “तू हमका मारे हौ।”

ये देख सुनकर हम जैसे न जाने कितने दर्शक धन्नो की उस मासूमियत और वैजयंतीमाला के अवधी संवाद अदायगी की उस प्रतिभा के दीवाने हो गए थे। इस संवाद का मुझ पर तो ये असर रहा कि जब मैंने गंगा जमुना देखा तो इस पर मैं ऐसा फ़िदा हुआ कि मेरा कोई निकटस्थ जानने वाला ऐसा नहीं छूटा जिसे मैंने गंगा जमुना देखनी की सलाह न दे डाली हो। क्या क्या कहा जाय इस फ़िल्म के संवाद , अभिनय यहां तक की इसके गीत भी तारीफ की परंपरागत अभिव्यक्ति से ऊपर के बन पड़े हैं।

नौशाद साहब के संगीत से सजी फ़िल्म ‘गंगा जमुना’ में एक से बढ़कर एक गाने हैं, ‘नयन लड़ि जइहें तो मनवा म , दो हंसो का जोड़ा बिछड़ गयो रे , ‘ढूंढो ढूंढो रे साजना मेरे कान का बाला’ आदि तो आज भी लोगों की जुबान पर उसी नएपन के साथ चढ़े हैं। ढूंढों ढूंढो रे साजना गीत के तुरंत बाद यह दृश्य फ़िल्म में दिखाई पड़ता है।

भाई भाई के रिश्ते में हालात और कर्तव्यबोध की लड़ाई का मार्मिक चित्रण करती हुयी यह फ़िल्म बहुत प्रसिद्ध हुई। इसकी कहानी 70 के दौर में लोगों की जुबान पर थी। दिलीप कुमार के कलम से निकली इस कहानी से प्रभावित होकर बाद में सलीम जावेद की जोड़ी ने बॉलीबुड में एक और मील का पत्थर रूपी फ़िल्म लिखा, जिसका नाम रखा ‘दीवार’।

फ़िल्म के अंतिम दृश्य को फ़िल्माये जाने का एक दिलचष्प क़िस्सा मशहूर है। दरअसल दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि वे कोई भी चरित्र वास्तविकता के क़रीब लाकर निभाते थे। महबूब स्टूडियो में फ़िल्म का क्लाइमेक्स सीन शूट होना था। सेट तैयार किया गया। कहानी के अनुसार सीन में दिलीप साहब की गोली लगने से मौत हो जाती है।

दिलीप साहब इसे शूट करने आये तो कैमरामैन बी बाबा साहब को बताया कि आप इस एंगल पर कैमरा लगा कर रखिये मैं जैसे ही एंट्री करूँ मेरे एक्सप्रेसन्स पूरे के पूरे रिकॉर्ड होने चाहिए। बी बाबा साहब रेडी हुये। दिलीप साहब बाहर निकल गए। सारे क्रू मेंबर्स हैरान। किसी को कुछ पता नहीं क्या होने वाला है ? शूट होगा भी या नहीं !। दिलीप कुमार साब बाहर गए और पूरे स्टुडियो का चक्कर लगाने लगे। साब ने चक्कर तब तक लगाया जब तक उन्हें चकराकर गिर जाने का अंदेशा न हो गया। उसके बाद वहां से सीधा दौड़ते हुए सेट पर आए और गिर पड़े। सीन कमाल का हुआ। सारे क्रू मेंबर्स ने तालियां बजायीं। लेकिन बी बाबा साहब का चेहरा पीला पड़ गया। दिलीप साहब उठकर आये और फ़ुटेज दिखाने को बोला तो बी बाबा साहब अस्पष्ट सा मिमियाने लगे।

दिलीप साब माज़रा भांप गए और ग़ुस्से में उनका चेहरा लाल पड़ गया। बाद में बी बाबा साहब ने बताया “आपका अभिनय इतना संज़ीदा था कि मैं आपको देखने के चक्कर में कुछ एक्सप्रेसन्स मिस कर गया , कृपया एक बार और !”

दिलीप साहब क्रोधित तो बहुत हुए लेकिन बी बाबा साहब की बात मानकर रिटेक देने को राज़ी हो गए। इस बार भी सीन जबरदस्त हुआ और यही सीन हम सबके सामने आया। दर्शक उपरोक्त दृश्य से आगे बढ़े उनकी सारी आशंकाओं ने विराम लिया। भाई भाई के रिश्ते और कर्तव्य के धर्मयुद्ध का एक ऐसा अंत सबके सामने आया कि उस वक़्त के दर्शक इस बात को साधारण ही न पचा सके , सबके रोंगटे खड़े हो गए थे और सबकी पलकें आंसूओं से सराबोर हो गईं थीं।

(लेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, फ़िल्म समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)

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